Sunday, February 7, 2010

सिर्फ़ धरती है ऐसी जो हर क्षण सुनती रहती है

कल आपने देवताले जी की एक कविता पढ़ी थी. आज उसी क्रम में पढ़िये अस्सी के दशक की उनकी एक कविता

बकरों के साथ सुलूक के बारे में

बकरों के साथ सुलूक के बारे में
बहुत-सी बातें हो सकती हैं
गांधी जी ने कई बड़े काम किए
बकरे की मां का दूध पीते हुए
पर सद्भावनापूर्ण ज़िबह के बारे में
उनकी कोई टिप्पणी नहीं मिलती

आधा-आधा भेजा दो तरह का होगा उसका
जिसने ईजाद किया बकरे का झटका इस्तेमाल
सचमुच यह बेहद शालीन है
मानवीय करुणा की रिआयत
धीरे-धीरे हलाल करना
स्वादिष्ट मांस के ज़र्रे-ज़र्रे में
गुंजाता रह सकता है आर्त्तनाद
और खाते हुए यदि अतीन्द्रिय शक्ति से
सुनने लगें मनुष्य ऐसी अवशेष प्रतिध्वनियां
तो यह बुद्ध और ईसा के लिए कलंक ही होगा
बेमज़ा बुरा स्वाद भी हो सकता है अलग से

इसीलिए झंझटविहीन सदय झटका
ज़िबह करते वक़्त की यह मुरव्वत
असम्भव है मनुष्यों के बाहर

पर आदमी के साथ
उलटा सुलूक करती है न्याय-व्यवस्था
धीरे-धीरे महीन और कुशल विधियों के साथ
कि ख़ून का छींटा तक नहीं ...
पर सिर्फ़ धरती है ऐसी
जो हर क्षण सुनती रहती है
बिसूरने की अश्रव्य आवाज़.

5 comments:

L.R.Gandhi said...

गाँधी ने तो यह काम अल्लाह पर छोड़ दिया था 'इश्वर अल्लाह तेरो नाम सब को सन्मति दे भगवान' मेनकाजी भी कुत्तों पर तो मेहबान हो गई ,बकरे की व्यथा से kanni काट गई।

L.R.Gandhi said...

गाँधी ने तो यह काम अल्लाह पर छोड़ दिया था 'इश्वर अल्लाह तेरो नाम सब को सन्मति दे भगवान' मेनकाजी भी कुत्तों पर तो मेहबान हो गई ,बकरे की व्यथा से kanni काट गई।

मुनीश ( munish ) said...

itz always disturbing to read such poems as these and now don't ask as to why do i read'em in the first place!

कामता प्रसाद said...

Bahut hi achchhi poem.
shandar...

मनोरमा said...

अभी हाल ही में पढ़ा पाकिस्तान में आसिफ अली जरदारी साहब अपनी गद्दी की सलामती के लिए रोज एक काले बकरे को हलाल करते रहे है।