Friday, March 5, 2010

लॉरी बेकर और घर

आर्कीटैक्ट शब्द सुनते ही लगता है कि इस आदमी को किसी रईस ने अपने सपनों के घर का नक्शा बनाने को मोटी रकम चुकाई होगी. आमतौर पर हमारे देश में मध्यवर्ग का आदमी आर्कीटैक्ट महोदय की सेवाएं जुटा पाने की हैसियत नहीं रखता क्योंकि जितनी फ़ीस इन साहब को देनी पड़ेगी उस से सारे घर की पुताई हो सकती है या बिजली-पानी की पूरी फ़िटिंग.



एक हद तक यह सच भी है. मैंने अपने मोहल्ले में पहचान वाले किसी भी घर के निर्माण में आर्कीटैक्ट की सहायता ली जाते नहीं देखी. पी डब्लू डी में बतौर ड्राफ़्ट्समैन काम करने वाले इसी मोहल्ले के एक सज्जन आज भी सात-आठ सौ रुपये लेकर आपके लिए घर का नक्शा बना देते हैं.थोड़े और पैसे लेकर वे नगरपालिका से इसे पास कराने का काम भी कर देते हैं. इधर कोई पच्चीसेक सालों में मेरे नगर में बिहार से काम की खोज में आए मिस्त्री-मजदूरों की संख्या पचास हज़ार (या उस से भी ज़्यादा) से पार जा चुकी है और हमारे लात खाये मध्यवर्ग और इन मेहनतकशों की जुगलबन्दी की बदौलत भवन निर्माण की एक ऊलजलूल सैद्धान्तिकी विकसित हो चुकी है. मखौल में मैं इसे बिहार स्कूल ऑफ़ आर्कीटैक्चर कहता हूं. इसमें कागज़ पर, ज़मीन के टुकड़े के आकार के मुताबिक एक वर्ग या आयत खेंचकर उसे सीधे सीधे चार या छः या आठ बराबर हिस्सों में बांट दिया जाना होता है और खुदाई-चिनाई स्टार्ट. तरीक़े से बदसूरत बना दिये शहर के चेहरे पर एक और मस्सा फ़िट करने का प्रोजेक्ट चालू.


ब्रिटिश मूल के लॉरी बेकर (२ मार्च १९१७-१ अप्रैल २००७) उन्नीस सौ पैंतालीस में एक मिशनरी के तौर पर भारत आये थे. पेशे से आर्कीटैक्ट लॉरी बेकर कम लागत वाले अपने मकानों के डिज़ाइनों के लिए एक जाना माना नाम बन चुके हैं. जगह का बेहतरीन इस्तेमाल और सादगी भरे सौन्दर्यबोध वाले उनके बनाए मकान आम मकानों से कहीं सस्ते बैठते हैं. अंग्रेज़ी में सस्टेनेबल एन्ड ऑर्गैनिक आर्कीटैक्चर कहे जाने वाले क्षेत्र में उनका एक अलग नाम है. १९९० में उन्हें बाकायदा पद्मश्री की उपाधि से सम्मानित किया गया.

अपनी पत्नी के साथ लॉरी बेकर


लॉरी बेकर ने करीब पचास साल भारत में बिताये और जाना कि यहां की अधिसंख्य ग़रीब जनता को सस्ते घर मुहैया कराने से ज़्यादा महत्वपूर्ण है उन्हें ऐसे सस्ते घर बनाने को प्रेरित करना जो अपने आसपास के परिवेश को कम से कम तबाह करते हुए आसपास ही उपलब्ध संसाधनों की मदद से आसानी से बनाए जा सकें. सन १९७० में वे त्रिवेन्द्रम में बस गये जहां मृत्युपर्यन्त वे अपने काम में जुटे रहे. उनकी बनाई संस्था COSTFORD यानी सेन्टर ऑफ़ साइंस ऐन्ड टैक्नॉलॉजी फ़ॉर रूरल डेवलपमेन्ट आज भी उनकी पत्नी एलिज़ाबेथ के निर्देशन में कार्यरत है.

कोई दो साल पहले मैं अपनी केरल यात्रा के दौरान COSTFORD देखने गया था. एलिज़ाबेथ उन दिनों बीमार थीं सो हमें उस पूरे कैम्पस का गाइडेड टूअर सेन्टर के मैनेजर साहब ने करवाया.

बाद में हमने लॉरी बेकर के बनाये और भी कुछ निर्माण देखे.

आज देखिये लॉरी बेकर के घर के कुछ चित्र और उनका डिज़ाइन किया हुआ त्रिवेन्दम का इन्डियन कॉफ़ी हाउस.









COSTFORD के मैनेजर


त्रिवेन्द्रम का इन्डियन कॉफ़ी हाउस

6 comments:

डॉ महेश सिन्हा said...

लौरी बेकर के काम को इस देश में लोग समझ नहीं पाये

अजित गुप्ता का कोना said...

आज का आर्किटेक्‍ट देखकर तो मन कैसा तो हो जाता है? लगता है क्‍या हम किसी घर में आए हैं या फिर किसी प्रदर्शनालय में? आपने अच्‍छी जानकारी दी, बधाई।

मुनीश ( munish ) said...

@"लौरी बेकर के काम को इस देश में लोग समझ नहीं पाये"
....But how many of them have even heard of him? Channels were busy in there ghagra-choli stuff .I thank kabad for introducing him here .

शरद कोकास said...

यह एक मान्यता है कि हम आर्किटेक्ट को पैसा न देकर पैसा बचा लेते है लेकिन यदि सही तरीके से देखा जाये तो आर्किटेक्ट आपके काफी पैसे बचा देता है और जो आप चाह्ते है उसे बिना बार बार तोड़-फोड़ किये एक बार मे ही बनवा देता है । लेकिन दुख यही है कि हम उपयोगिता के चक्कर में सौंदरयबोध को खत्म कर देते हैं ।
लॉरी बेकर की डिज़ाइंस के बारे मे भी हमारे "स्कूल" के लोग यही कहेंगे ..इसमे क्या रखा है ऐसा तो हम भी बना लेते ।
ऐसे व्यक्तित्व से परिचय करवाने के लिये धन्यवाद

डॉ महेश सिन्हा said...

@मुनीश
सही कहा खबर नेगटिव बातों की ही बनती है

abcd said...

जान्कारि क तुकडा...दोस्तो के लिये

Charles Correa

All of his work - from the planning of Navi Mumbai to the carefully detailed memorial to Mahatma Gandhi at the Sabarmati Ashram in Ahmedabad has placed special emphasis on prevailing resources, energy and climate as major determinants in the ordering of space.

Over the last four decades, Correa has done pioneering work in urban issues and low cost shelter in the Third World. From 1970-75, he was Chief Architect for New Bombay an urban growth center of 2 million people, across the harbor from the existing city. In 1985, Prime Minister Rajiv Gandhi appointed him Chairman of the National Commission on Urbanization.

In 1984, he founded the prestigious Urban Design Research Institute in Bombay which to this day is dedicated to the protection of the built environment and improvement of urban communities. He also designed the distinctive buildings of National Crafts Museum, New Delhi (1975-1990), British Council, Delhi. (1987-92).

He was awarded the RIBA Royal Gold Medal for the year 1984. His acclaimed design for McGovern Institute for Brain Research at MIT was dedicated recently. He is a recipient of the civilian awards in India, Padma Vibhushan (2006) and Padma Shri (1972). In 2008 he resigned his commission as the head of Delhi Urban Arts Commission.

further details:http://en.wikipedia.org/wiki/Charles_Correa