Monday, March 15, 2010

जब कोई स्त्री बजा रही हो खंजड़ी तो मत सुनो और कुछ

अन्ना अख़्मातोवा (जून ११, १८८९ - मार्च ५, १९६६) की कवितायें आप 'कबाड़ख़ाना' पर पहले कई बार पढ़ चुके हैं। अन्ना की कविताओं के अनुवादों का सिलसिला जारी है आज पढ़ते हैं यह कविता ....

मैं तुम्हारी जगह लेने आई हूँ , सखी ! /

अन्ना अख्मातोवा की कविता
(अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )

धधकते दावानल के बीच
- मैं तुम्हारी जगह लेने आई हूँ , सखी !

तुम्हारी आँखों की ज्योति मन्द पड़ गई हैं
आँसू भाप बन कर उड़ गए हैं बादल सरीखे
और बालों से झलकने लगा है उम्र का भूरापन।

तुम समझ नहीं पा रही हो चिड़िया का गाना
न तो सितारों की सरगोशियाँ
और न ही दामिनी की द्युति का दर्प।

जब कोई स्त्री बजा रही हो खंजड़ी
तो मत सुनो और कुछ
और मत डरो कि टूटेगा सन्नाटे का साम्राज्य।

धधकते दावानल के बीच
- मैं तुम्हारी जगह लेने आई हूँ , सखी !

- मुझे दफ़्न करने वालो
बताओ कहाँ है तुम्हारी कुदालें और बेलचे ?
अरे ! तुम्हारे पास तो है फक़त एक बाँसुरी
कोई गिला नहीं
कोई इल्जाम आयद नहीं
बहुत दिन हो गए मेरी वाणी को मूक हुए ।

आओ, मेरे वस्त्र धारण करो
मेरे डर का खामोशी से दो जवाब
बहने दो बयार जो तुम्हारे बालों को सहलाती हो
बकायन की गंध का मजा लो
तुमने बहुत लम्बे पथरीले रास्ते तय किए
यहाँ तक पहुँचने की खातिर
और इस आग से उजाले का उत्खनन करने में।

दूसरे के लिए जगह त्यागकर
कोई है जो चला गया है आत्मनिर्वासित
भटकता - अटकता
अब तो जैसे कोई अंधी स्त्री निरख - परख रही हो
अनचीन्हे - सँकरे रास्ते के मार्गदर्शक चिन्ह।

और अब भी
उसके हाथों में थमी है खँजड़ी
जो लपटों की तरह लहराने को है बेताब
कभी वह हुआ करती थी श्वेत परचम की मानिन्द
और वह अब भी है प्रकाश स्तम्भ से प्रवाहित
उजाले की उर्जस्वित कतार।

धधकते दावानल के बीच
- मैं तुम्हारी जगह लेने आई हूँ , सखी !

जब कोई स्त्री बजा रही हो खंजड़ी
तो मत सुनो और कुछ
और मत डरो कि टूटेगा सन्नाटे का साम्राज्य.

8 comments:

aarya said...

# भारतीय नववर्ष 2067 , युगाब्द 5112 व पावन नवरात्रि की शुभकामनाएं
# रत्नेश त्रिपाठी

शरद कोकास said...

अच्छी कविता है और सिद्धेश्वर जी का अनुवाद भी बेहतरीन ।

अजित वडनेरकर said...

बहुत सुंदर।
अनुवाद का आभास तक नहीं हुआ।
सहज सरल प्रवाह ...

Udan Tashtari said...

बहुत सुम्दर प्रवाहमय अनुवाद!!

गौतम राजऋषि said...

कविताओं का समर्पित पाठक हूँ...किंतु अनुवादित कवितायें हमेशा से मुझे असहज करती रही हैं तनिक। अजनबी बिम्ब, अपरिचित जुमले...फिर कुछ लोगों की टिप्पणियां पढ़ता हूँ कि बड़ा सहज अनुवाद है। अब इस बात को कहने के लिये तो मुझे रसीयन आना चाहिये ना और अपनी रसीयन तो "या ल्युब्लु वास" या फिर "दो बरे उतरा" या "दास विदानिया" तक ही सीमित है।

मुनीश ( munish ) said...

जो काव्यानुरागी ऐसी कविताओं में रस पा सकते हैं , वे बालू से भी ऑलिव-आयल निकाल सकते हैं और मैं नहीं समझ पाया आज तक कि भई इसकी बजाय कोई कहानी क्यूं नहीं लिखी जाती ? बहरहाल, दुनिया बहुत बड़ी है और उसमें सबकी पसंद एक नहीं हो सकती सो सब ठीक है अपनी जगह पर.

मुनीश ( munish ) said...

....लेकिन ये भी है कि इस प्रकार की विदेशी अनुदित कविताओं को सुना जाना अच्छा अनुभव भी रहा है अक्सर . दरअस्ल किसी भी कविता को पढ़ा जाना मशक्कत है और ये बड़ा ही शर्मनाक कन्फेशन है मेरा .

Ashok Kumar pandey said...

जहां तक मेरा सवाल है तो मैं अनुदित कविता पढ़ते समय 'अनुदित' शब्द पर ध्यान नहीं देता। कविता बस कविता की तरह पढ़ता हूं…अगर गहरे उतर जाती है तो मुक्तकंठ से प्रशंसा कर मान लेता हूं कि अनुवाद 'सहज' है…जैसा कि इस कविता में हुआ है। अब दुनिया कि कितनी भाषायें सीखी जा सकती हैं? और कहानी लिखने पर यह सवाल भी तो उठ सकता है कि भाई एक विवेचनात्मक लेख क्यूं नहीं?