रोम्यां रोलां का उपन्यास ज्यां क्रिस्तोफ़ चार खण्डों में बांटा गया है - भोर, सुबह, यौवन और विद्रोह. आज आपले सम्मुख प्रस्तुत है उपन्यास का शुरुआती हिस्सा. इस हिस्से का अगला अंश एक या सम्भवतः दो किस्तों में आप को पढ़वाऊंगा. किताब दर असल इतनी लम्बी है कि उस के कुछ हिस्सों को पूरा का पूरा लगाने के लिए हो सकता है एक ब्लॉग अलग से बनाना पड़े.
भोर
घरों के पीछे से नदी का गुनगुनाना सुनाई देता है. सारे दिन बारिश खिड़की के शीशों पर थपेड़े मारती रही है. खिड़की के टूटे हुए कोने से पानी की एक पतली धार रिस रही है. पीलापन लिए हुए दिन की रोशनी जा चुकी है. कमरा बेझिल और मद्धिम है.
अपने पालने में नवजात शिशु हिलता डुलता है. हालांकि बूढ़ा आदमी लकड़ी के अपने जूतों को भीतर आने के बाद दरवाजे पर ही उतार चुका था उसके कदमों की चाप से लकड़ी का फर्श चरमराता है. शिकायत करता हुआ बच्चा कुनमुनाता है. अपने बिस्तर पर से मां उसे थपकियां देती है. अन्धेरे में दादाजी दीया खोजने लगते हैं ताकि जागने पर बच्चा रात से भयभीत न हो जाए. दीए की लपट में ज्यां मिशेल का रक्ताभ चेहरा चमक उठता है: उसकी रूखी सफेद दाढ़ी, मनहूस मुखाकृति और उसकी चपल आंखें. वह पालने के नजदीक जाता है. उसके लबादे से गीलेपन की महक आ रही है और जब वह अपनी बड़ी बड़ी नीली चप्पलें पहने अपने पैरों को घसीटता चलता है तो लुईसा इशारा करके उसे कहती है कि वह ज्यादा नजदीक न जाए. वह गोरी है : करीब करीब सफेद : उसके नैननक्श तीखे हैं और उसके उदार बेवकूफ चेहरे पर लाल चकत्ते हैं : उसके होंठ फीकी रंगत वाले और सूजे हुए हैं और वे एक निश्छल मुस्कराहट में खुले हुए हैं : अपनी आंखों से वह बच्चे को बेहद प्यार करती है और उसकी आंखें नीली और अस्पष्ट हैं जिनकी पुतलियां छोटी छोटी हैं लेकिन वे अनन्त कोमलता से भरपूर हैं.
बच्चा जागता है और रोने लगता है और उसकी आंखों में दर्द है. उफ़! कितना भयंकर है! अन्धेरा, दीए की आकस्मिक कौंध, और कोलाहल से अब भी जुड़े एक दिमाग के भीतर की गडमड छवियां. और घुटनभरी दहाड़ती रात जिसके भीतर यह सब है ¸ वह असीम अवसाद जिसके भीतर से चौंधिया देने वाले रोशनी के खम्भों की तरह तीखी सनसनियां¸ दर्द और प्रेत बाहर आते हैं – उसके ऊपर झुके हुए वे विशाल चेहरे¸ उसे बींधती हुईं आंखें – यह सब उसकी समझ से परे है. चिल्लाने की उसके भीतर ताकत नहीं है ; भय ने उसे गतिहीन बना दिया है; खुली आंखों और मुंह के साथ उसके गले से रुक रुक कर आवाजें निकलती हैं. उसका बड़ा सिर जो सूज गया लगता है¸ उसकी अटपटी मुखमुद्राओं के कारण झुरीर्दार हो गया है; उसके चेहरे और हाथों की त्वचा भूरी और जामुनी है जिस पर पीले चकत्ते हैं ...
"या खुदा!" बूढ़ा ने वहुत यकीन के साथ कहा: "किस कदर बदसूरत है ये!"
उसने दीए को मेज पर रख दिया.
लुईसा ने ऐसे बच्चे की तरह मुंह बनाया जिसे डांटा गया हो. अपनी आंख के किनारे से बूढ़े ने उसे देखा और हंसा.
"तुम यह तो नहीं चाहती ना कि मैं इसे खूबसूरत कहूं ? तुम इस बात पर यकीन भी नहीं करोगी. कोई बात नहीं. ये तुम्हारी गलती थोड़े ही है. ये सब एक जैसे होते हैं."
दीए की रोशनी और बूढ़े की आंखों के कारण हक्का बक्का हो गया बच्चा अब सदमे से बाहर आया और उसने रोना चालू किया. शायद उसने मां की आंखों में अपने लिए दुलार देखा और शिकायत करने की अपने लिए संभावना. मां ने अपनी बाहें आगे ले जाते हुए कहा:
"मुझे दो उसे"
बूढ़े ने हमेशा की तरह अपने नियम कानून गिनाते हुए कहा:
"जब बच्चा रो रहा हो उसे बांहों में नहीं लेना चाहिए. उसे रोते देना चाहिए."
लेकिन वह बच्चे के पास आया और शिकायती लहजे में बोला:
"इतना बदसूरत बच्चा मैंने आज तक नहीं देखा"
लुईसा ने झटपट बच्चे को थामा और अपने सीने से लगा लिया. उसने बच्चे पर एक बेजार लेकिन खुश निगाह डाली.
"ओह मेरे बिचारे बेटे" शर्मसार चेहरे के साथ उसने कहा "किस कदर बदसूरत हो तुम. किस कदर बदसूरत और कितना प्यार करती हूं मैं तुम्हें."
बूढ़ा वापस आग के पास चला गया और विरोध जताते हुए आग को कोंचने लगा. लेकिन उसके मनहूसियत भरे गम्भीर चेहरे पर आई मुस्कान उसके विरोध को झुठला रही थी.
"भली लड़की !" वह बोला "इस बारे में चिन्ता करने की जरूरत नहीं है. बदलने के लिए अभी बहुत वक्त है उस के पास. और वह न भी बदला तो क्या हो जाएगा? उसके बारे में सिर्फ एक बात पूछी जानी होगी : बड़ा होकर वह ईमानदार आदमी बनेगा या नहीं."
मां के गर्म शरीर के सम्पर्क में आने पर बच्चे को आराम पहुंचा. उसे दूध पीते हुए और सन्तुष्ट आवाजें निकालते सुना जा सकता था. ज्यां मिशेल अपनी कुर्सी पर थोड़ा सा मुड़ा और एक बार फिर जोर देकर बोला:
"ईमानदार आदमी से बेहतर कुछ नहीं होता."
वह एक क्षण को चुप रहा. वह अपने विचार को विस्तार में बताने की जरूरत के बाबत सोच रहा था लेकिन आगे कहने के लिए उसके पास कुछ नहीं था. कुछ देर खामोश रहने के बाद वह खीझ के साथ बोला:
"तुम्हारा पति यहां क्यों नहीं है?"
"मेरे ख्याल से वह थियेटर में है" निरीह स्वर में लुईसा बोली. "एक रिहर्सल है."
"थियेटर बन्द पड़ा है. मैं जरा देर पहले उसके सामने से गुजरा हूं. यह भी उसका एक झूठ है."
"नहीं. हर समय उस पर ऐसे आरोप मत लगाया करो. शायद मुझसे समझने में कोई भूल हो गई थी. वह अपनी क्लास के लिए रुक गया होगा."
"उसे अब तक वापस आ जाना चाहिए था." बूढ़ा बोला. वह सन्तुष्ट नहीं था. वह एक पल को रुका और अपनी आवाज धीमी बनाकर तनिक शर्म के साथ बोला :
"तो क्या वो ... दुबारा?"
"नहीं पिताजी नहीं नहीं" लुईसा हड़बड़ी में बोली.
बूढ़े ने उस पर निगाह डाली. लुईसा ने उस निगाह से बचते हुए दूसरी तरफ देखना शुरू कर दिया.
"यह सच नहीं है. तुम झूठ बोल रही हो."
वह खामोशी में रोने लगी.
"या ख़ुदा" आग को अपने पैर से लतियाता हुआ बूढ़ा बोला. आग कोंचने वाली छड़ धम से नीचे गिरी. मां और बच्चा सिहर उठे.
"पिताजी प्लीज़. आप बच्चे को रुला देंगे" लुईसा बोली.
बच्चा यह तय करने से पहले कुछ देर को हिचकिचाया कि रोने लगे या अपना भोजन जारी रखे; चूंकि वह दोनों काम एक साथ नहीं कर सकता था सो वह मां की छाती से चिपका रहा.
(जारी)
(फ़ोटो में रोम्यां रोलां और रवीन्द्रनाथ टैगौर)
7 comments:
बहुत अच्छी प्रस्तुति। सादर अभिवादन।
अगर आपको पूरी किताब का अनुवाद देना है तो उसके लिए नया ब्लॉग क्यों बनाएँगे? और कोई माध्यम नहीं है क्या? सीधे एक साइट बनाकर साधारण ऐचटीऐमऐल में दे सकते हैं। नहीं तो पीडीऐफ़ भी चलेगा।
With all due respect to the the altruistic feelings of the author(Ashok Bhai) ,
क्यो दे दी जाये लिन्क html ya pdf format की ?
या .jpeg या .gif या .doc या कोइ भी फ़ोर्मट मे ?
या क्यो नयी website पर इसे upload किया जाये ?
क्यो हर अच्छी चीज़ या तो मुफ़्त बिके या फ़िर कबाड हो जाये ?
क्यो नही इसे एक series के रूप मे कोई अख्बार छापे ?
या क्यो नही ,यहा पर एक trailer हो और बाकी का अनुवाद के लिये e-bay की तर्ज़ पर online payment हो ,जो सीधे अशोक भाई के account को upgrade करे और अपन को अनुवाद प्राप्त हो ?!
या और कोइ बेह्तर तरिका ?!
क्यो नही ?
यदी मै गलत नही हू तो नयी website वाली बात एक जुम्ला थी,बताने को की कित्नी लम्बी कहानी है...blog ,website can be considered as UNITS of internet......
उस्पे भी भाई लोग ने उल्टी ग्यान-वर्शा कर दी....
हद हो गयी है भाई साहब...
कहेंगे कुछ नहीं, बस सिर्फ पढेंगे
abcd has it ! A lot of gray matter i mean .
परिश्रम का कुछ मोल मिले यह जरूरी लगता है। सीधी सी बात है रामपुर के नवाब तो वजीफा दे नहीं रहे हैं गुजर-बसर के लिए, राजकमल का मालिक भी ईमानदारी भरा भुगतान करने से रहा। अगर यह जनता का साहित्य है तो जनता अपने बुद्धिजीवियों के भरण-पोषण की जिम्मेदारी उठाये। मुफ्तखोरों को सुख देने की बात गले नहीं उतरती।
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