Tuesday, March 30, 2010

एक सुबह मैं उठूंगा पृथ्वी-समेत

वरिष्ठ कवि केदारनाथ सिंह की एक कविता:



यह पृथ्वी रहेगी

मुझे विश्वास है
यह पृथ्वी रहेगी
यदि और कहीं नहीं तो मेरी हड्डियों में
यह रहेगी जैसे पेड़ के तने में
रहते हैं दीमक
जैसे दाने में रह लेता है घुन
यह रहेगी प्रलय के बाद भी मेरे अन्दर
यदि और कहीं नहीं तो मेरी ज़बान
और मेरी नश्वरता में
यह रहेगी

और एक सुबह मैं उठूंगा
मैं उठूंगा पृथ्वी-समेत
जल और कच्छप-समेत मैं उठूंगा
मैं उठूंगा और चल दूंगा उससे मिलने
जिससे वादा है
कि मिलूंगा.

3 comments:

मनोरमा said...

बहुत दिनों बाद केदारनाथ जी की कविता पढ़ने को मिली!

सुशीला पुरी said...

आनंद मिला ....केदार जी को पढ़कर ,thanx.

Udan Tashtari said...

आभार इस प्रस्तुति का..आनन्द आया केदारनाथ जी को पढ़कर!