आज एक बार फिर पढ़िए हिन्दी के वरिष्ठ कवि केदारनाथ सिंह की दो कवितायें......
दिशा
हिमालय किधर है ?
मैंने उस बच्चे से पूछा जो स्कूल के बाहर
पतंग उड़ा रहा था।
उधर - उधर ------- उसने कहा
जिधर उसकी पतंग भागी जा रही थी
मैं स्वीकार करूं
मैंने पहली बार जाना
हिमालय किधर है !
ऊँचाई
मैंने पहली बार जाना
हिमालय किधर है !
ऊँचाई
और डर गया।
मेरे शहर के लोगो
यह कितना भयानक है
कि शहर की सारी सीढ़ियाँ मिलकर
जिस महान ऊँचाई तक जाती हैं
वहाँ कोई नहीं रहता !
4 comments:
"ऊंचाई" ..... अद्भुत !!
behatreen he, unchaai vakai insaan ke liye kabhi kabhi ghaatak ho jaati he...ise aap yu bhi kah sakte he ki yah esa ant he jnhaa se safar kathin he, shaayad mrutyu ki tarah?????
arey ham rahate hain na vahaan.....! yah kavi yaa to theek se dekh nahi pata hoga, ya hame "koi" nahi maanata hoga......dono hi baaten adbhut hai ! .
इन कविताओ को केदारजी के मुख से सुनने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ है । बहुत अच्छी कविताये है यह ।
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