हिन्दी के वरिष्ठ कवि श्री इब्बार रब्बी की एक कविता पेश है, जिसे पढ़कर मुंह के स्वादतंतु उत्तेजना की चरम अवस्था को प्राप्त होने लगते हैं और जब तक आप अरहर की दाल को रब्बी साहब की तरह नहीं खा लेते, आपका चित्त अशान्त रहेगा:
अरहर की दाल
कितनी स्वादिष्ट है
चावल के साथ खाओ
बासमती हो तो क्या कहना
भर कटोरी
थाली में उड़ेलो
थोड़ा गर्म घी छोड़ो
भुनी हुई प्याज़
लहसन का तड़का
इस दाल के सामने
क्या है पंचतारा व्यंजन
उंगली चाटो
चाकू चम्मच वाले
क्या समझें इसका स्वाद!
मैं गंगा में लहर पर लहर
खाता डूबता
झपक और लोरियां
हल्की-हल्की
एक के बाद एक थाप
नींद जैसे
नरम जल
वाह रे भोजन के आनन्द
अरहर की दाल
और बासमती
और उस पर तैरता थोड़ा सा घी!
(रचनातिथि: अट्ठारह जनवरी १९८२)
5 comments:
........साथ में खरबूजे की फांक चीनी या बूरा के साथ !
वाह...मजा आ गया
यंहा छत्तीसगढ मे दाल-चावल के साथ भाजी,यानी हरी सब्जी और टमाटर-धनिया-हरी मिर्च की पीसी हुई चटनी खाते हैं,सच मे पांच क्या सात सितारा खाना फ़ेल है इसके सामने।वाह लार टपका दी आपने रब्बी जी की कविता पढाकर।
हाय रे वक़्त 2010 में यह कविता आभिजात्य का सुख प्रदर्शन लग रही है!
पाँचों उँगलियों के साथ स्वाद महसूसना. ये भी दुर्लभ बना दिया है, बाजार की संस्कृति ने. दिखावे और सम्पन्नता के आतंक से भयभीत मन कविता की, अरहर और बासमती की इस दुनिया में आकर बेचैन हो जाता है.
इब्बार रब्बी की कविता पढ़वाने के लिए आभार.
पर क्या ये कवितायेँ मरसियों की ही तरह पढ़ी जाएँगी.
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