Wednesday, April 28, 2010

द स्टोरी ऑफ़ स्टफ़


यह पोस्ट दीपा पाठक ने अपने ब्लॉगपर लगाई थी. द स्टोरी ऑफ़ स्टफ़ नाम की फ़क़त इक्कीस मिनट की एक डॉक्यूमेन्ट्री पर लिखी यह पोस्ट दुनिया पर मंडरा रहे एक आसन्न संकट को रेखांकित करती है. मेरा मानना है कि हर किसी जागरूक व्यक्ति ने इस फ़िल्म को देखना चाहिये और जहां तक मुमकिन हो ज़्यादा से ज़्यादा बच्चों को दिखाने की कोशिश करनी चाहिये. पोस्ट के लिए दीपा का आभार

ऐसा कितनी बार होता है जब आप बाजार जाते हैं और किसी आकर्षक चीज पर नजर पड़ते ही उसे खरीद लेते हैं, बिना यह सोचे कि उसकी जरूरत है भी या नहीं? क्या आप भी जानते हैं ऐसे लोगों को जो दुकानों पर सेल यानी कीमतों में तथाकथित छूट की खबर लगते ही लपक लेते हैं खरीददारी करने? त्यौहार के मौकों पर बाजारों और मॉल्स पर उमड़ने वाली उन्मादी भीड़ को देख कर आपको नहीं लगता कि खरीददारी अब एक जरूरत न हो कर शौक बन गई है? बहरहाल, मैं बहुत सारे ऐसे लोगों को जानती हूं जिनके घर अंटे पड़े हैं चीजों से लेकिन उन्हें खरीददारी का ऐसा शौक या कहूं कि रोग है कि वो किसी गलत दुकान में भी घुस जाएं तो भी बिना खरीदे बाहर नहीं निकल सकते। कई लोग हैं जो जब उदास होते हैं तो मन खुश करने के लिए खरीदारी करते हैं और जब खुश होते हैं तो उसे मनाने के लिए खरीदारी करते हैं।


लेकिन क्या आप जानते हैं कि चीजें खरीदने की यह लिप्सा ही हमारे समय की लगभग सारी आर्थिक और सामाजिक समस्याओं की जड़ है? क्या आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि चीजें खरीदने की यह भूख ही हमारी दुनिया से सारी हरियाली खत्म कर रही है, हमारी नदियों को विषैला कर रही हैं? क्या आप सोच भी सकते है कि सामाजिक अन्याय के लिए भी लोगों का यही उपभोक्तावाद जिम्मेदार है। पूंजीपतियों और सर्वहारा के बीच की खाई को और चौड़ा करने, सरकारों को बड़े कॉरपोरेशनों को प्रश्रय देने की प्रवृति के पीछे भी यही कारण है? सुनने में बहुत अतिश्योक्तिपूर्ण और अटपटा सा लग रहा है न? लेकिन अगर आप ऐनी लियोनार्ड की केवल 20 मिनट की फिल्म 'Story of stuff' देखेंगे तो इन सारे असंगत से लगते तथ्यों को आपस में जोड़ कर देख पाना न केवल आसान होगा बल्कि आप सोच में भी पड़ जाते हैं कि इतनी सीधी सी बात आम आदमी के समझ में क्यों नहीं आती।


आज जब मौसमों के रंग-ढंग बदले-बदले से नजर आ रहे हैं तो हर कोई ग्लोबल वॉर्मिंग का रोना रो रहा है लेकिन कोई यह सुनने को तैयार नहीं है कि भाई इसके लिए कहीं न कहीं हम, हमारी जीवन शैली भी जिम्मेदार है। उपभोक्तावाद प्राकृतिक संसाधनों का बुरी तरह से दोहन करता है, इस धरती को प्रदूषित कर रहा है, इंसान में जहर भर रहा है, जीव जातियों को समाप्त कर रहा है, लोगों को गरीबी की ओर धकेल रहा है और इन सबके बीच ग्लोबल वॉर्मिंग का कारण बन रहा है।


उपभोक्ता आज छोटे के बाद बड़ा घर, बड़ी कार, सेलफोन का नया मॉडल या आधुनिकतम फैशन के कपड़े-जूते की भूख से जूझ रहा है। पड़ोसी की समृद्धि की जलन में सारा सुख-चैन भुलाए बैठा यह उपभोक्तावर्ग भला क्यों कर सोचेगा कि ये सारी चीजें दरअसल उसके लिए सुख का नहीं बल्कि दुख का कारण बन रही हैं। शोध के परिणामों पर गौर करें तो पता चलता है कि आज का आदमी भले ही समृद्धि के पैमाने पर बहुत आगे पहुंच गया हो लेकिन सुखी जीवन जीने के मामले में वह अपनी पिछली पीढ़ियों के मुकाबले पीछे होता जा रहा है। The story of stuff का संदेश यही है कि जरूरतों को कम करो और दुनिया को थोड़ा बेहतर बनाने में सहयोग दो।


हालांकि सामाजिक कार्यकर्ता ऐनी लियोनार्ड की 2007 में बनी यह ऐनीमेशन फिल्म पूरी तरह से अमेरिकी उपभोक्तावाद पर कटाक्ष करती है। इसमें दिए गए सारे आंकड़े भी अमेरिकी व्यवस्था पर आधारित हैं लेकिन तथ्य के दृष्टिकोण से यह लगातार बाजारोन्मुख हो रही दुनिया की सारी अर्थव्यवस्थाओं की सच्चाई है। आखिरकार अगर वह कहती हैं कि दुनिया के 80% जंगल खत्म हो चुके हैं या अमेजन में हर मिनट में 2000 पेड़ कट रहे हैं तो यह सारी दुनिया की साझी चिंता है।

इस फिल्म की सबसे दिलचस्प बात यह है कि केवल 20 मिनट में यह बहुत खूबसूरती से और तर्कसंगत तरीके से उपभोक्तावाद का पूरा अर्थशास्त्र समझा देती है। इस फिल्म के लिए ऐनी ने काफी देशों की यात्राएं की, प्रामाणिक तथ्य जुटाने के लिए शोध किए और बहुत गंभीर मुद्दे को बिल्कुल भी बोझिल बनाए बिना एक दिलचस्प ऐनीमेशन फिल्म बना डाली। छोटी फिल्म होने के कारण इसे बच्चों के लिए काफी प्रभावशाली माना गया। हालांकि अमेरिका में इस फिल्म का विरोध भी काफी हुआ, कई स्कूलों में इस फिल्म को प्रतिबंधित भी किया गया।

पूंजीवाद समर्थक लोगों के पास ऐनी की फिल्म का विरोध करने के अपने तर्क हैं जो आंकड़ों के स्तर कर एकाध जगह अगर उन्हें गलत साबित कर भी देते हैं तो उससे पूरी फिल्म की सार्थकता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। 20 मिनट की यह फिल्म सात छोटे-छोटे हिस्सों में बंटी हैं जिसमें दिखाया गया है कि हमारी भौतिक जरूरतों को पूरा करने के लिए किस तरह से प्राकृतिक संसाधनों का दोहन होता है, कैसे चीजों का उत्पादन होता है, कैसे उनका वितरण होता है, कैसे उत्पादों की खपत होती है, और कैसे चीजों से पैदा होने वाले कचरे का निस्तारण होता है। इस ऐनीमेशन फिल्म के जरिए वह बहुत प्रभावशाली ढंग से समझाती हैं कि इस उत्पाद के बनने से ले कर उसके कचरे में तब्दील होने की प्रक्रिया के बीच कितना कुछ नकारात्मक पैदा होता है जो इस दुनिया को बद से बदतर बना रहा है। नई चीजें खरीदने के बाद पुरानी चीज को कचरे में डाल कर हम इस दुनिया को कूड़ाघर में बदलते जा रहे हैं।


इतनी छोटी सी फिल्म का बहुत बड़ी सी समीक्षा करने का कोई औचित्य नहीं है क्योंकि यह फिल्म और उससे जुड़ी तमाम बातें www.storyofstuff.com पर मौजूद है। फिल्म देखिए और अगली बार जब कोई चीज खरीदने लगें तो सोचिएगा जरूर कि उसकी जरूरत सचमुच है क्या

4 comments:

iqbal abhimanyu said...

पूरी तरह सहमत हूँ... इस पोस्ट को ज्यादा से ज्यादा लोगों को पढने और फिल्म को देखने की जरूरत है, बधाई स्वीकार करें..

ZEAL said...

quite informative !

Syed Ali Hamid said...

The dangers of capitalism and consumerism are many, but I feel that the most deadly one is its focus on the physical, to the extent that it even sells manufactured emotions and packaged spiritualism.When some people of the West became disillusioned with materialism, they came to India to find themselves; where will we go to shed our illusions now that our country is suffering from the same malaise?

As Ghalib said:

हम कहाँ क़िस्मत आज़मानें जाएँ
तू ही जब खंजर आज़मा न हुआ

Any suggestions, Ashok?

लोकेन्द्र बनकोटी said...

Aisa hi kuch ek aur documentry "The Corporation" bhi batati hai magar thode vistar. Adhik jankari http://www.thecorporation.com/ se mil jaayegi. Saath hi TED.com par ek lecture suna tha jo paradox of choices ke baare mein baat karta hai.

Badiya Lekh