(पिछली किस्त से जारी)
इसी समय लोहण्डीगुड़ा की बर्बर घटनाओं की भनक पाकर कलेक्टर राव, नरोना की अगवानी लोहण्डीगुड़ा और रायपुर के बीच में ही कर लेने के लिए जबलपुर से तत्काल दौड़ पड़ा. डॉ. कैलाशनाथ काटजू प्रान्तीय सरकार का मुख्यमन्त्री, इस घटना के बाद जबलपुर से दिल्ली के लिए उड़ चला. जबलपुर में कुछ प्रशासनिक अधिकारियों ने उस से आशंका व्यक्त कर दी थी कि न्यायिक जांच की यह प्रक्रिया कहीं प्रान्तीय सरकार के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह न लगा दे. इस मुख्यमन्त्री ने न तो घटनास्थल ही देखा था और न ही सहानुभूति के नाम पर किसी घायल को देखने अस्पताल या कहीं और गया था. मध्य प्रदेश विधान सभा में विपक्षी सदस्यों का दल इस पर एक कड़े विरोध की योजना बना चुका था जिसे सरकार द्वारा किसी तरह दबा दिया गया. बस्तर प्रशासन तथा सूर्यपाल तिवारी के साथ आदिम समुदाय द्वारा किये गए विरोध की न्यायिक जांच के आदेश यद्यपि मध्यप्रदेश शासन के मुख्यमन्त्री द्वारा दे दिये गए थे, किन्तु ऐसा प्रतीत होता था कि बस्तर ज़िले में न्यायपालिका तथा कार्यपालिका का अलग अलग अस्तित्व नहीं रह गया है.न्यायिक जांच का यह परिणाम निकला कि बस्तर के आदिम समुदाय के विरुद्ध कोई सदोष अपराध सिद्ध नहीं हो सका. लोहण्डीगुड़ा गोलीकाण्ड प्रकरण पर घोषित फ़ैसले में स्पष्ट बता दिया गया था कि इन आदिवासी समुदाय के लोगों के द्वारा कोई गलती नहीं की गई थी. इसका विरोध करने के लिए मध्यप्रदेश की सरकार उच्च न्यायालय तक गई थी जबकि इसमें सफलता की आशा स्वप्न थी.
राजा नरेशचन्द्र ने इसी समय एक उद्घोषणा की थी. इस उद्घोषणा में बस्तर के आदिवासी समुदाय के प्रति भारत के प्रधानमन्त्री की सहानुभूति व्यक्त की गई थी और उन्हें आश्वस्त किया गया था कि उनकी संस्कृति और परम्पराओं पर किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं किया जावेगा. किन्तु मैं समझता हूं कि यह मात्र उनका एक राजनैतिक हथकंडा है क्योंकि ठीक दशहरा पर्व के समय ही कलेक्टर राव ने इन पर भारतीय दण्ड विधान की धारा १४४ केवल उन्हें प्रताड़ित करने के लिए थोप दी जबकि मुझे नरसिंहगढ़ जेल से विमुक्त कर छुट्टी दे दी गई थी. यहां यह उल्लेखनीय है कि भारतीय दण्डविधान की यह धारा जगदलपुर में लगातार ३३ दिनों तक प्रभावशील रही थी. दशहरा पर्व जब आरम्भ हुआ तो कलेक्टर राव ने मुझे एक पत्र भेजा था जिसमें उसने लिखा था कि यदि इसमें कोई गड़बड़ी हुई तो वह मेरी व्यक्तिगत ज़िम्मेदारी होगी. किन्तु उसके साथ ही दूसरी ओर मुझे गोपनीय तरीके से सलाह दी थी कि मैं दन्तेवाड़ा जाकर वहां आयोजित पूजा अर्चना में भाग लूं तथा विजयचन्द्र को जगदलपुर के रथ पर बैठने की स्वीकृति दे दूं. इसके लिए उसने मुझे पांच हज़ार रुपये देने की पेशकश की थी तथा यह भी कि यह तत्कालीन मुख्यमन्त्री डॉ. काटजू की इच्छा है कि यह सब किया जाए. आदिवासी समुदाय बिल्कुल नहीं चाहता था कि विजयचन्द्र रथ पर बैठे. यह समुदाय चाहता था कि मेरी सभी सम्पत्ति कोर्ट ऑफ़ वार्ड्स से विमुक्त कर दी जाए किन्तु शासन ने इस पर यह बहाना कि यह विधिक प्रक्रिया तथा प्रान्तीय सरकार की प्रतिष्ठा का प्रश्न है. आदिवासी समुदाय को बहलाने के लिए एक कहानी गढ़कर इन्हें कहा गया कि जब तक मैं अपनी विवाहित पत्नी को बस्तर नहीं ले आता इस विषय पर किसी भी प्रकार की कार्रवाई करना उनके लिए असम्भव है. सच्च्चाई तो यह है कि ये सरकारी अधिकारी प्रान्तीय सरकार के निर्देशों पर इस प्रकार की मनगढ़न्त कहानियों से आदिवासी समुदाय को बहला कर फंसाए रहना चाहते थे जिसमें वे सफल नहीं हो सके. मुझे सत्ताच्युत कर मेरी बस्तर के महाराजा के रूप में सरकारी मान्यता समाप्त करने का आधार भी वही था जो मेरी गिरफ़्तारी के लिए आरोप लगाए गए थे और सलाहकार मण्डल के सामने प्रान्तीय सरकार सिद्ध करने में बुरी तरह असफल हो गई थी. किन्ति इन सब के बावजूद केन्द्र सरकार ने मुझे विमुक्त कर दिए जाने के बाद भी बस्तर के महाराजा के रूप में मेरी सरकारी मान्यता वापस देना कभी ज़रूरी नहीं समझा.
(जारी)
1 comment:
इसकी पिछली किस्त नहीं पढ़ पाया हूं इसलिए इस पर कुछ भी टिप्पणी नहीं कर पाऊंगा। पढ़ने के बाद ही टिप्पणी संभव है। बिना पिछली किस्त पढ़े इस पोस्ट को समझ पाना कठिन है।
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