Tuesday, May 11, 2010

अरे ओ सांभा




मैकमोहन को लोग उनके असली नाम से कम सांभा के नाम से ज़्यादा जाना करते हैं. और उनका असली नाम तो मैकमोहन भी नहीं था. मैकमोहन कल नहीं रहे. कैंसर से लड़ते हुए उन्होंने बम्बई के एक अस्पताल में अपने प्राण त्याग दिए. कुल इकहत्तर साल के मैकमोहन का फ़िल्मी कैरियर छियालीस साल तक चला. १९६४ में आई फ़िल्म हक़ीक़त से अपने कैरियर के आग़ाज़ के बाद उन्होंने कोई पौने दो सौ फ़िल्मों में अभिनय किया.

आज जब फ़िल्मों में नायक-खलनायक अजीबोग़रीब गेटअप्स के साथ आने लगे हैं, मैकमोहन ने काली-सफ़ेद दाढ़ी वाले अपने नैसर्गिक गेटअप के साथ कोई प्रयोग नहीं किये और सालों तक डटे रहे.

मैकमोहन को करीब से जानने वालों के मुताबिक वे एक परफ़ैक्ट जैन्टलमैन थे और एक ज़िंदादिल इन्सान. जीवन के आखिरी सालों में वे बच्चों को पढ़ाने वाले शिक्षकों को प्रशिक्षित करने हेतु एक संस्थान बनवाना चाहते थे.

एक पूरी पीढ़ी के बचपन, कैशोर्य और युवावस्था पर छाई रही फ़िल्म शोले के सांभा का जाना किसी नॉस्टैल्जिया के तिड़क जाने जैसा है. यह दिलचस्प और अचरजकारी बात है कि पूरी फ़िल्म में मैकमोहन को कुल तीन शब्द बोलने को मिले - "पूरे पचास हज़ार". इस के अलावा कुछ नहीं. लेकिन गब्बर फ़िल्म में सांभा का नाम इतनी दफ़ा लेता है कि अब गब्बर को सांभा से अलग कर के सोचने की कल्पना तक नहीं की जा सकती.

कबाड़ख़ाने की मैकमोहन को श्रद्धांजलि. बाई द वे, उनका असली नाम मोहन माखीजानी था.

फ़िलहाल शोले से एक क्लिप देखिये:

5 comments:

प्रीतीश बारहठ said...

साँभा को श्रद्धांजली !

सागर said...

मेरी ओर से भी मैकमोहन जी को श्रद्धांजली

kunwarji's said...

मेरी ओर से भी मैकमोहन जी को श्रद्धांजली

कविता रावत said...

ईश्वर मैकमोहन जी की आत्मा को शांति प्रदान कर उनके परिवार वालों का यह दुःख सहने की शक्ति प्रदान करें...

मुनीश ( munish ) said...

सुना है वो रहने वाले जयपुर के थे और उनकी बीयर की दुकान भी थी . ये सूचना मुझे सन ८५ में मिली थी. बहरहाल , आपने उन्हें याद करके बड़ी बात की है . आपको धन्यवाद और मैक को मेरी श्रद्धांजली .