(कई दिनों से कबाड़खाना पर कोई माल नहीं आया … तो लीजिये पढ़िये अंशु मालवीय की एक कविता उसके संकलन दक्खिन टोला से)
वैष्णव जन
आखेट पर निकले हैं!
उनके एक हाथ में मोबाइल है
दूसरे में देशी कट्टा
तीसरे में बम
और चौथे में है दुश्मनों की लिस्ट.
वैष्णव जन
आखेट पर निकले हैं!
वे अरण्य में अनुशासन लाएंगे
एक वर्दी में मार्च करते
एक किस्म के पेड़ रहेंगे यहां.
वैष्णव जन
आखेट पर निकले हैं!
वैष्णव जन सांप के गद्दे पर लेटे हैं
लक्ष्मी पैर दबा रही हैं उनका
मौक़े पर आंख मूंद लेते हैं ब्रह्मा
कमल पर जो बैठे हैं.
वैष्णव जन
आखेट पर निकले हैं!
जो वैष्णव नहीं होंगे
शिकार हो जाएंगे ...
देखो क्षीरसागर की तलहटी में
नरसी की लाश सड़ रही है.
वैष्णव जन
आखेट पर निकले हैं!
उनके एक हाथ में मोबाइल है
दूसरे में देशी कट्टा
तीसरे में बम
और चौथे में है दुश्मनों की लिस्ट.
वैष्णव जन
आखेट पर निकले हैं!
वे अरण्य में अनुशासन लाएंगे
एक वर्दी में मार्च करते
एक किस्म के पेड़ रहेंगे यहां.
वैष्णव जन
आखेट पर निकले हैं!
वैष्णव जन सांप के गद्दे पर लेटे हैं
लक्ष्मी पैर दबा रही हैं उनका
मौक़े पर आंख मूंद लेते हैं ब्रह्मा
कमल पर जो बैठे हैं.
वैष्णव जन
आखेट पर निकले हैं!
जो वैष्णव नहीं होंगे
शिकार हो जाएंगे ...
देखो क्षीरसागर की तलहटी में
नरसी की लाश सड़ रही है.
5 comments:
आखिरी लाइन में नसरी शायद गलत छप गया है। इसे नरसी होना चाहिए...अंशु का इशारा नरसी मेहता और उनके भजन--वैष्णव जन ते एने कहिए, जे पीर पराई जाणे है...की ओर है।
हां पंकज भाई…सुधारता हूं
sundar aur vichaar karne ko udvelit karne wali rachna...
सुन्दर कविता ।
बहुत सुन्दर !
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