Friday, June 25, 2010

रोपता हूं उसे बलूत के दरख़्त की मानिन्द

निजार क़ब्बानी की एक और कविता

अपनी कविता के पाठकों के लिए एक स्पष्टीकरण

मूर्ख मेरे बारे में कहा करते हैं -
मैं स्त्रियों के घरों में गया
और वहीं का हो रहा.
वे मांग करते हैं कि मुझे फांसी दी जाए,
क्योंकि मैं अपनी प्रेमिका के बारे में
कविता लिखता हूं.
मैंने कभी नहीं किया
हशीश का धन्धा.
कभी चोरी नहीं की.
हत्या नहीं की.
प्रेम किया मैंने खुले दिन में.
क्या पापी हूं मैं?

और मूर्ख मेरे बारे में कहा करते हैं -
अपनी कविता में
मैंने उल्लंघन किया है स्वर्ग के आदेशों का.
किसने कहा
कि प्रेम
स्वर्ग की इज़्ज़त से खेलता है?
स्वर्ग मेरे भीतर रहता है.
वह मेरे साथ रोता है
और हंसता है मेरे साथ.
और उसके सितारे
ज़्यादा चमकने लगते हैं
जब
मुझे प्यार होता है किसी से.
क्या हुआ
अगर मैं जपता रहता हूम अपनी प्रेमिका का नाम
और रोपता हूं उसे
दुनिया की हर राजधानी में
बलूत के दरख़्त की मानिन्द

तमाम फ़रिश्तों की तरह
मैं करूंग अपनेपन की हिमायत.
और बचपन की, मासूमियत की
और शुद्धता की.
मैं अपनी प्रेमिका के बारे में लिखता जाऊंगा
जब तक कि उसके सुनहरे केशों को
गला नहीं देता आसमान के सोने में
मैं हूं
और मुझे उम्मीद है मैं बदलूंगा नहीं
मैं हूं एक बच्चा
जो मनचाही इबारत लिखता है
सितारों की दीवारों पर
जब तक कि
मेरी मातृभूमि में प्रेम की कीमत
हवा की कीमत जितनी न बन जाए
और प्रेम का स्वप्न देखने वालों के लिए
मैं बन जाता हूं
एक शब्दकोश
और उनके होंठों पर मैं बनता हूं
एक क
और एक ख.

3 comments:

मुनीश ( munish ) said...

दुनिया के सबसे बर्बर,निरंकुश और हत्यारे देशों से उठती ऐसी कविता कई बार हैरान करती है तो कभी राहत भी देती है .

प्रवीण पाण्डेय said...

सुन्दर कविता । अपनेपन की हिमायत करना बहुत हिम्मत का काम है ।

siddheshwar singh said...

ओह !
निज़ार !!!