मेरे सिर के फोड़े और पिताजी की नई स्थिति के कारण मुझे हल्द्वानी भेज दिया गया, जो उन दिनों नैनीताल ज़िला प्रशासन का शीतकालीन कैम्प हुआ करता है. बाबू की पहली प्राथमिकता थी कि मेरे फोड़े का जल्द इलाज कराएं. एलोपैथी से ज़्यादा फ़ायदा नहीं हुआ और अन्ततः आपरेशन का फ़ैसला किया. बाबू का एक चपरासी था जो बाद के दिनों में मेरा बहुत अंतरंग हो गया. उसने मुझे बाद में बताया कि मैं दर्द और मवाद की वजह से लगातार रोया करता था. आपरेशन के दौरान करीब आधा बेसिन भर मवाद निकला. ऊपर से आपरेशन के वक्त पाया गया कि इन्फ़ेक्शन भीतर कपाल के ऊपरी हिस्से तक फैल गया था. हर तीसरे दिन पट्टी बदली जाती थी और कपाल के उस हिस्से को खुरच कर साफ़ किया जाता था. उस वक्त मैं दर्द से बिलबिलाया करता था और अपनी बोली में डाक्टर को गालियां दिया करता था. घाव भरने में करीब एक माह लगा और धीरे धीरे समुचित देखभाल और खानपान के कारण मेरा स्वास्थ्य धीरे धीरे सुधरने लगा.
मुझे चार साल तक की आयु की कोई याद नहीं है. अलबत्ता जब मैं अपने पांचवें साल में था, अपने पिता के साथ हड़बाड़ गांव जाते हुए मुझे चीड़ से ढंके पहाड़ों, और उनके बीच से बहती धारा की साफ़ साफ़ याद है. यह धारा आगे जाकर बागेश्वर/कपकोट - पिण्डारी ग्लेशियर के मार्ग पर सरयू नदी में मिल जाया करती थी. मुझे धारा पर बनी पनचक्की की भी याद है. तब गांव के सुदूरतम बिन्दु तक की दूरी मेरे नन्हे कदमों को बहुत लम्बी लगी थी. बाद में जब मैं बारह साल बाद वहां गया तो मुझे ज्ञात हुआ कि वह दूरी फ़कत तीन सौ मीटर थी.
मेरे साथ खेलने वाले बमुश्किल ही कोई दोस्त थे. मेरे इकलौते साथियों में एक घरेलू नौकर था और एक चपरासी जिस के बारे में मैं पहले बता चुका हूं. मैं अक्सर इन्हीं से बातें किया करता. नैनीताल में तल्लीताल के प्राइमरी स्कूल में बी स्टैन्डर्ड (आज के हिसाब से यू. के. जी.) में अपने दाखिले की मुझे अच्छे से याद है. उसके बाद ही मैं अपनी उम्र के बच्चों के सम्पर्क में आया और उनके साथ खेलना शुरू कर सका. इसके अलावा शायद शाम को पिताजी के साथ भी मेरी बातचीत हुआ करती थी. अपनी जवानी के दिनों में वे एक मस्तमौला तबीयत के इन्सान थे. उनके दोस्त अक्सर हमारे घर आया करते. लोग बताते हैं कि मैं एक प्यारा सा बच्चा था सो मातृहीन होने की वजह से लोग मुझ पर बहुत दया दिखाया करते थे. मुझे बहुत साफ़ साफ़ याद है कि घर पर और बाद में दूसरी क्लास में एक बहुत कड़ियल किस्म का अध्यापक मुझे पढ़ाया करता था. मुझे उससे बहुत डर लगता था क्योंकि ज़रा सी भी ग़लती होने पर डंडे के इस्तेमाल से उस शख़्स को कोई ग़ुरेज़ नहीं हुआ करता था.
सौतेली मां का आना
१९३२ कि एक सुबह मैंने हमारे घर में एक मुटल्ली सी स्त्री को उपस्थित पाया. बाद में पिताजी ने मुझे उन्हें ईजा कह कर पुकारने की हिदायत दी. बाद में मुझे चपरासी के माध्यम से पता चला कि वह कालाढूंगी के चिकित्सा केन्द्र में मिडवाइफ़ की नौकरी किया करती थीं. अब मुझे अहसास होता है कि यह इन्सानी कमज़ोरियां थीं जिनकी वजह से पिताजी को अपने लिए एक जीवनसाथी लाने को विवश होना पड़ा था. उनकी बूढ़ी चाची भी कुछ दिनों बाद हमारे घर आ गईं. मां की बहन की तर्ज़ पर मेरी सौतेली मां को रामी मौसी भी कहा जाता था.
घर की और मेरी साफ़ सफ़ाई को लेकर रामी मौसी काफ़ी सचेत रहा करती थीं. वे कठोर अनुशासन में विश्वास रखती थीं जिसकी वजह से मुझ इकलौते बच्चे के घर और उसके आसपास मस्ती में भागते फिरते रहने पर काफ़ी हद तक रोक लग गई. मेरी शरारतों के लिए वे मुझे थप्पड़ जड़ने और पीटने मे ज़रा भी देरी नहीं किया करतीं. उनकी बूढ़ी चाची जिन्हें बुबू बुआ कहा जाता था, सुबह और शाम का खाना पकाया करती थीं; इस वजह से हमारे घर की भोजन व्यवस्था और व्यंजनों की विविधता में खासा फ़र्क़ आया. पिताजी से सम्बन्ध बनाने के पहले रामी मौसी खासी सामाजिक थीं और वे मुझे अक्सर अपने परिचितों के घर ले जाया करतीं. बमुश्किल आठवीं पास होने के कारण मुझ जैसे बढ़ते बच्चे के लिए वे आदर्श जीवननिर्देशिका तो नहीं ही थीं. पर जीवन ऐसे ही चलता गया जब तक कि मैंने दूसरी कक्षा पास कर गवर्नमेन्ट हाईस्कूल नैनीताल में तीसरी कक्षा में दाखिला पा लिया.
जीवन के प्रति बाबू की सोच में अचानक आया बदलाव
क्रमशः नवम्बर और अप्रैल में डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के दफ़्तर के हल्द्वानी और नैनीताल स्थानान्तरित होने की आधिकारिक व्यवस्था के कारण १९३३ और १९३४ में पढ़ाई के लिए मुझे उन्हीं अध्यापक महोदय के घर शिफ़्ट कर दिया गया जिनका ऊपर ज़िक्र किया गया है. दिसम्बर से फ़रवरी की सर्दियों की छुट्टियों में मैं हल्द्वानी परिवार के साथ आ जाया करता. अप्रैल १९३३ में बाबू ने छुट्टी ली और रामी मौसी के साथ द्वाराहाट के नज़दीक द्रोणागिरि की यात्रा की. वहां वे कैलाश गिरि बाबा नामक एक सिन्धी सन्त की संगत में आए. वहां रहते हुए उन्हें करीब एक घन्टे तक असहनीय पेट दर्द हुआ. निकटतम अस्पताल काफ़ी दूर द्वाराहाट में था. सन्त ने जलती हुई लकड़ियों की धूनी में से एक चुटकी राख उन्हें खिलाई और बाबू का दर्द आश्चर्यजनक रूप से गायब हो गया. बाद में बाबा ने बाबू को देवी उपासना हेतु दीक्षित किया.
उसके बाद से नियमित रूप से हर सुबह शाम एक एक घन्टे के लिए बाबू ध्यान लगाया करते, श्लोक पढ़ा करते और बाकी तमाम अनुष्ठान किया करते. मई १९३४ में जब बाबू अपनी सालाना छुट्टी से वापस लौटे तो उनके भीतर आए आशातीत बदलाव ने मुझे अचरज से भर दिया.
(जारी - अगली क़िस्त का लिंक - http://kabaadkhaana.blogspot.in/2010/07/blog-post_21.html)
मुझे चार साल तक की आयु की कोई याद नहीं है. अलबत्ता जब मैं अपने पांचवें साल में था, अपने पिता के साथ हड़बाड़ गांव जाते हुए मुझे चीड़ से ढंके पहाड़ों, और उनके बीच से बहती धारा की साफ़ साफ़ याद है. यह धारा आगे जाकर बागेश्वर/कपकोट - पिण्डारी ग्लेशियर के मार्ग पर सरयू नदी में मिल जाया करती थी. मुझे धारा पर बनी पनचक्की की भी याद है. तब गांव के सुदूरतम बिन्दु तक की दूरी मेरे नन्हे कदमों को बहुत लम्बी लगी थी. बाद में जब मैं बारह साल बाद वहां गया तो मुझे ज्ञात हुआ कि वह दूरी फ़कत तीन सौ मीटर थी.
मेरे साथ खेलने वाले बमुश्किल ही कोई दोस्त थे. मेरे इकलौते साथियों में एक घरेलू नौकर था और एक चपरासी जिस के बारे में मैं पहले बता चुका हूं. मैं अक्सर इन्हीं से बातें किया करता. नैनीताल में तल्लीताल के प्राइमरी स्कूल में बी स्टैन्डर्ड (आज के हिसाब से यू. के. जी.) में अपने दाखिले की मुझे अच्छे से याद है. उसके बाद ही मैं अपनी उम्र के बच्चों के सम्पर्क में आया और उनके साथ खेलना शुरू कर सका. इसके अलावा शायद शाम को पिताजी के साथ भी मेरी बातचीत हुआ करती थी. अपनी जवानी के दिनों में वे एक मस्तमौला तबीयत के इन्सान थे. उनके दोस्त अक्सर हमारे घर आया करते. लोग बताते हैं कि मैं एक प्यारा सा बच्चा था सो मातृहीन होने की वजह से लोग मुझ पर बहुत दया दिखाया करते थे. मुझे बहुत साफ़ साफ़ याद है कि घर पर और बाद में दूसरी क्लास में एक बहुत कड़ियल किस्म का अध्यापक मुझे पढ़ाया करता था. मुझे उससे बहुत डर लगता था क्योंकि ज़रा सी भी ग़लती होने पर डंडे के इस्तेमाल से उस शख़्स को कोई ग़ुरेज़ नहीं हुआ करता था.
सौतेली मां का आना
१९३२ कि एक सुबह मैंने हमारे घर में एक मुटल्ली सी स्त्री को उपस्थित पाया. बाद में पिताजी ने मुझे उन्हें ईजा कह कर पुकारने की हिदायत दी. बाद में मुझे चपरासी के माध्यम से पता चला कि वह कालाढूंगी के चिकित्सा केन्द्र में मिडवाइफ़ की नौकरी किया करती थीं. अब मुझे अहसास होता है कि यह इन्सानी कमज़ोरियां थीं जिनकी वजह से पिताजी को अपने लिए एक जीवनसाथी लाने को विवश होना पड़ा था. उनकी बूढ़ी चाची भी कुछ दिनों बाद हमारे घर आ गईं. मां की बहन की तर्ज़ पर मेरी सौतेली मां को रामी मौसी भी कहा जाता था.
घर की और मेरी साफ़ सफ़ाई को लेकर रामी मौसी काफ़ी सचेत रहा करती थीं. वे कठोर अनुशासन में विश्वास रखती थीं जिसकी वजह से मुझ इकलौते बच्चे के घर और उसके आसपास मस्ती में भागते फिरते रहने पर काफ़ी हद तक रोक लग गई. मेरी शरारतों के लिए वे मुझे थप्पड़ जड़ने और पीटने मे ज़रा भी देरी नहीं किया करतीं. उनकी बूढ़ी चाची जिन्हें बुबू बुआ कहा जाता था, सुबह और शाम का खाना पकाया करती थीं; इस वजह से हमारे घर की भोजन व्यवस्था और व्यंजनों की विविधता में खासा फ़र्क़ आया. पिताजी से सम्बन्ध बनाने के पहले रामी मौसी खासी सामाजिक थीं और वे मुझे अक्सर अपने परिचितों के घर ले जाया करतीं. बमुश्किल आठवीं पास होने के कारण मुझ जैसे बढ़ते बच्चे के लिए वे आदर्श जीवननिर्देशिका तो नहीं ही थीं. पर जीवन ऐसे ही चलता गया जब तक कि मैंने दूसरी कक्षा पास कर गवर्नमेन्ट हाईस्कूल नैनीताल में तीसरी कक्षा में दाखिला पा लिया.
जीवन के प्रति बाबू की सोच में अचानक आया बदलाव
क्रमशः नवम्बर और अप्रैल में डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के दफ़्तर के हल्द्वानी और नैनीताल स्थानान्तरित होने की आधिकारिक व्यवस्था के कारण १९३३ और १९३४ में पढ़ाई के लिए मुझे उन्हीं अध्यापक महोदय के घर शिफ़्ट कर दिया गया जिनका ऊपर ज़िक्र किया गया है. दिसम्बर से फ़रवरी की सर्दियों की छुट्टियों में मैं हल्द्वानी परिवार के साथ आ जाया करता. अप्रैल १९३३ में बाबू ने छुट्टी ली और रामी मौसी के साथ द्वाराहाट के नज़दीक द्रोणागिरि की यात्रा की. वहां वे कैलाश गिरि बाबा नामक एक सिन्धी सन्त की संगत में आए. वहां रहते हुए उन्हें करीब एक घन्टे तक असहनीय पेट दर्द हुआ. निकटतम अस्पताल काफ़ी दूर द्वाराहाट में था. सन्त ने जलती हुई लकड़ियों की धूनी में से एक चुटकी राख उन्हें खिलाई और बाबू का दर्द आश्चर्यजनक रूप से गायब हो गया. बाद में बाबा ने बाबू को देवी उपासना हेतु दीक्षित किया.
उसके बाद से नियमित रूप से हर सुबह शाम एक एक घन्टे के लिए बाबू ध्यान लगाया करते, श्लोक पढ़ा करते और बाकी तमाम अनुष्ठान किया करते. मई १९३४ में जब बाबू अपनी सालाना छुट्टी से वापस लौटे तो उनके भीतर आए आशातीत बदलाव ने मुझे अचरज से भर दिया.
(जारी - अगली क़िस्त का लिंक - http://kabaadkhaana.blogspot.in/2010/07/blog-post_21.html)
11 comments:
हूँ.. फिर क्या हुआ........
रोचक, आगे!
कुंवर सैप सुनाते रहिए। आम हिन्दुस्तानी पाखंड से फ्री आत्मकथा की शानदार शुरूआत के लिए बधाई स्वीकार करें।
वैसे आजकल अपन भी ध्यान लगा रहे हैं।
ये हमारे बीच लगा हुआ आपका दुभाषिया भी बड़ा करामाती है। शानदार काम के लिए उसे अलग से बधाई पहुंचे।
आत्म कथा सच के सिवा कुछ नहीं होती , भोला मन इतनी तकलीफें और दुनिया की नई नई डगर ...सच्चाई को पढ़ना अच्छा लग रहा है ।
ठीक कहा अनिल भाई, न चाहते हुए ससुरे की तारीफ करने का जी कर रिया है....और कुंवर सैप का कथा भी कमाल की है...
Kabaadkhana ka email dijiye...kuch bhejna-poochnaa hai.
रोचक ..!
हम भी पढ़ रहे हैं। हिसालू डॉट कॉम ने यहाँ पहुंचाया औए दोनों ही भाग पढ़ डाले।
कुंवर सैप और पांडे ज्यू को धन्यवाद।
theek... !
Pallav,
You can mail at ashokpande29@gmail.com
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