गुरू के गुरु का आगमन
मैं अच्छी तरह समझ सकता था कि वे एक ऊहापोह की स्थिति में थे कि वापस उस स्थान पर कैसे जाएं जिसे वे अपने मन से छोड़ आए थे. उन्होंने अन्ततः तय किया कि बाबा सदाफल के गुरु से मिलें जिनका आश्रम मध्य प्रदेश में कहीं अवस्थित था. वहां उनका सौहार्दपूर्ण स्वागत हुआ. जब गुरू प्रवचन दे रहे थे तो बाबू ने देखा कि एक चिकित्सक ने गुरू को कोई इंजेक्शन लगाया. फेंक दी गई इंजेक्शन की शीशी को बाबू ने उत्सुकतावश देखा तो पाया कि वह सिफ़लिस नामक यौनरोग की दवा थी. बाबू ने डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के सचिव रहते हुए मेडिकल बोर्ड के साथ होने वाली बैठकों के दौरान यह जानकारी इकठ्ठा की थी. उन्हें भीषण अचरज हुआ कि किस तरह तथाकथित बाबा और गुरू निर्दोष और भोले भाले लोगों को लालच देकर अपने शिकंजे में फंसाया करते हैं और उनकी कथनी और करनी में कितना अन्तर होता है.
कुछ ही दिन बाद बाबू मार्च १९४१ में गढ़वाल अपने आश्रम लौट आए. अपनी पिछली गतिविधियों और अनिश्चित भविष्य के कारण वे काफ़ी असमंजस की स्थिति में रहे होगे. मैंने यह जानने की कोशिश की कि बाबू दोबारा उसी दयनीय ज़िन्दगी में डूबने को क्यों विवश हुए. मैं निम्नलिखित निष्कर्ष पर पहुंचा.
बाबू की आयु ४६ साल की थी और इसके पहले वे पांच साल तक अपने गुरु की और अपनी इच्छा से सन्यासी जीवन बिता रहे थे. इसी दौरान पास के एक गांव की युवा स्त्री जो उनसे उम्र में आधी थी, किसी न किसी बहाने उनसे मिलने आ जाती थी और शायद उनके बीच धीरे धीरे नज़दीकियां बढ़ीं और वे पुनः उसी जाल में फंस गए.
एक और सौतेली मां
उसके बाद में वापस अपने साथियों के साथ अल्मोड़ा आ गया. पन्द्रह दिन बाद मुझे बाबू की चिठ्ठी मिली कि वे दर्शिनी मौसी के साथ हड़बाड़ जाकर गजे सिंह चाचा के साथ रह रहे हैं. इसी दौरान उनका एक पुत्र हुआ - रामपाल. मैंने इस बात को भारी दिल के साथ यह दिलासा देते हुए स्वीकार कर लिया कि जिस चीज़ का इलाज़ न हो सके उसका सामना करना ही होता है.
१९४० में मेरे दादा यानी बाबू के बाबू का देहान्त हो गया था. तब मैं नवीं में पढ़ता था. जब तक वे जीवित थे गांव की ज़मीन का तीन चौथाई उनके पास था जबकि एक चौथाई पर बड़ी का हक था. दादा की मृत्यु के बाद उनकी ज़मीन चाचा गजे सिंह के पास चली गई. दोनों भाई बमुश्किल एक महीना साथ रह सके. मौसी के आने के कारण चाची के भीतर ऐसी भावना आ गई थी कि घर का काम तो उन्हें करना पड़ता है जबकि मौसी उनकी मेहनत पर सुख भोगती है. बाबू भी पैसा नहीं कमाते थे. चाई इस बात को लेकर काफ़ी हल्ला मचाया करती थी. मेरे ख्याल से मौसी ने भी कड़ा प्रतिवाद किया होगा. सामूहिक परिवार की शान्ति का यूं भंग होना बाबू से बरदाश्त नहीं हुआ. बाबू ग्राम प्रधान के पास गए और अपने हिस्से की ज़मीन दिलाने की मांग की. गांव की पंचायत ने उनके पक्ष में फ़ैसला सुना दिया.
अलग गृहस्थी
उन्होंने एक कमरे के अलग घर में रहना शुरू कर दिया जिसके भीतर एक रसोई का इन्तज़ाम किया गया था. नीचे की मंजिल मवेशियों के लिए थी. जनवरी १९४३ की छुट्टियों में मैंने देखा कि उनकी सम्पन्नता के दिनों के हिसाब से वे बेहद गरीबी में रह रहे थे. मैंने इस बारे में बहुत विचार किया और खुद को बताया कि अपने कर्मों का फल आदमी को खुद ही भुगतना होता है. छुट्टियों के बाद मैं अल्मोड़ा लौटा और अप्रैल १९४३ तक अपनी परीक्षाओं तक वहीं रहा. वापस लौटने पर मैंने पाया कि वे गांव के एक कोने पर स्थित खत्ते में (यह ज़मीन दादा ने किसी और व्यक्ति से खरीदी थी) एक दो कमरों का नया घर और बगल में मवेशियों के लिए झोपड़ी बना रहे थे. निर्माण कार्य ज़मीन की सतह तक पहुंच चुका था.
नया घर
जैसी उम्मीद थी, बाबू भीषण गरीबी में थे, सो यह कार्य ऋण लेकर किया जा रहा था. मैंने बाकी मज़दूरों और मिस्त्रियों के साथ एक मज़दूर की तरह पत्थर और छत की पटालें ढोने का काम किया. थोड़ी ऊंचाई पर बना यह नया घर दक्षिण पूर्वोन्मुख था जिससे सीढ़ीदार खेतों और नीचे बह रही लोहारू धारा का विहंगम दृश्य देखा जा सकता था. हमारा घर गांव के बाकी मकानों से अलग था जो एक दूसरे बहुत नज़दीक बने हुए थे.
मकान तकरीबन समाप्त हो चुका था और जून १९४३ के शुरू में हम उसमें आ गए. बाबू और मैंने सब्ज़ियों के खेत तैयार किये और मानसून के मौसम लिए सब्ज़ियों के बीज बोए.
(जारी)
4 comments:
अच्छा ही हुआ कि सत्य खुल गया। ढोंगियों के बीच शेष जीवन पड़े रहने से अच्छा था कि निकल आया जाये।
मौसम बरसात का हो और जब अपनी खिड़की से बाहर देखू तो सामने वाले मकान कि दीवार नहीं सामने वाला पहाड़ नजर आए तो क्या बात हैं. वैसे ऐसा तब होता है जब कम से कम तीन पेग अन्दर जा चुके हों पर आपकी कृपा से मुझे आजकल सुबह सुबह अपनी खिड़की से सामने वाला मकान नहीं बल्कि पहाड़ नजर आते हैं कभी अल्मोड़ा के तो कभी गढ़वाल के किसी सुदूर गाँव के. एक बार फिर से धन्यवाद पूर्वी दिल्ली कि इस बेकार सी भीड़ भरी बस्ती में पहाड़ों के दर्शन करवाने के लिए.
Ashok Sir ji aapki ye aatmkatha padh kar achha laga..
Deepak ji kee tarah main bhee apki 'atmkatha' padh ke khush hoon !
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