पिता और दोस्त
जैसे जैसे मैं बड़ा हो रहा था धीरे धीरे किशोरावस्था से ही बाबू और मेरे बीच दोस्ताना सम्बन्ध बनने शुरू हुए क्योंकि दूसरों से मेरा व्यवहार प्रीतिकर होता था, ठीक यही बात बाबू ले लिए कही जा सकती है जो मुझे बेहिचक अपने बीते समय के बारे में बताया करते थे, जिनमें मेरे बचपन के दुखों की दास्तानें छिपी हुई होती थीं.
मैं उन्हें अपने छात्रावास के दिनों के बारे में बताया करता जो मेरे लिए किसी पालने की तरह था. मैं उन्हें बचपन से ही अपनी आज़ादी के बारे में बताया करता था जिसमें "ये मत करो, वो मत करो" के लिए कोई जगह न थी. मैं उन्हें उन परिवारों के बारे में बताता था जिनके साथ मैं रहा था कि किस तरह वे मुझ पर लाड़ जताते थे और अपने बच्चों की तरह मेरा खयाल करते थे.
थोड़े शब्दों में कहूं तो बावजूद तमाम अभावों के वह मेरे जीवन का अविस्मरणीय समय था. बाद में रॉयल इन्डियन एयरफ़ोर्स में एक सामान्य एयरमैन की हैसियत से जब मैं नौकरी कर रहा था बाबू की चिठ्ठियों में लिखा रहता था : "तुम मेरे जीवन की इकलौती चमकीली रेखा हो. अगर तुम न होते तो मैं पागल हो गया होता. तुम अपनी मां के मूल्यों का प्रतिरूप हो." मुझे इस बात से बहुत तसल्ली मिलती है कि कि उनके जीवन के सबसे गहन समय में मैं उन्हें नैतिक सहारा दे सका.
एयरमैन के तौर पर नियुक्ति
हमारे परिवार की निर्धनता के कारण बाबू को विवश होना पड़ा कि दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान मुझे रॉयल इन्डियन एयरफ़ोर्स में भर्ती करें. १८ साल की आयु उत्तर प्रदेश के इन्टरमीडिएट बोर्ड की विज्ञान परीक्षा अंग्रेज़ी में कम्पार्टमेन्ट आने के बाद वे मुझे अल्मोड़ा के भर्ती केन्द्र में लेकर गए.
जीवन का सबसे बड़ा पछतावा
रॉयल इन्डियन एयरफ़ोर्स में ग्राउन्ड टैक्नीशियन के तौर पर नौकरी करने लखनऊ जाने से पहली शाम मैं और बाबू मेरे चचेरे मामा ऑनरेरी लैफ़्टिनेन्ट एस. सी. बूड़ाथोकी से मिलने गए. समय सबसे बड़ा मरहम होता है, सो पिछली कड़वी बातें भुलाकर उन्होंने हमारा स्वागत किया. रात का खाना खाते समय मैंने उनसे अपनी मां की फ़ोटो दिखाने को कहा जो १९२० के दशक में एक दुर्लभ चीज़ होती थी. उन्होंने कहा कि उनके पास कोई फ़ोटो नहीं है अलबत्ता पातालदेवी के राणा परिवार से, जहां मां की पिछली ससुराल थी, इस बारे में निवेदन करने का वादा किया.
मैं जानना चाहता था कि मां कैसी दिखती थी. बाद में मुझे पता लगा कि राणा परिवार के पास भी कोई फ़ोटो नहीं थी या शायद उन्होंने परिवार की इज़्ज़त की खातिर उन्हें नष्ट कर दिया हो. इस तरह मुझे इस तथ्य को स्वीकार करना पड़ा. यह इच्छा आज भी जस की तस बनी हुई है.
बाबू के जीवन के उतार चढ़ाव
बाबू एक गरीब किसान के परिवार में पैदा हुए थे. बाबू के पिताजी यानी मेरे दादा नैनीताल के उत्तरी छोर पर स्थित राजा बलरामपुर की हवेली में माली का काम करते थे. इस लिहाज़ से बाबू किस्मत वाले थे कि उन्हें पढ़ने का मौका मिल गया हालांकि पढ़ाई उन्होंने अपेक्षाकृत देर से शुरू की. बाबू ने वहां से हाईस्कूल पास किया था. मैं उनके जीवन के बारे में मोटी मोटी बातें बता चुका हूं. अब मैं कुछ बारीक बातें बताना चाहूंगा.
पहले मैं उनके व्यक्तित्व के सकारात्मक पहलुओं के बारे में बताऊंगा. जैसा मैंने बताया पं. गोविन्द बल्लभ पन्त की इच्छा के विपरीत उन्हें डिस्ट्रिक्ट बोर्ड का सचिव चुना गया. दोनों हॊ बोर्ड के महत्वपूर्ण अधिकारी थे लेकिन छः महीनों तक दोनों में बात नहीं हुई थी. वे फ़ाइलों के माध्यम से एक दूसरे से वार्तालाप बनाए रहते थे. जैसा बाबू ने बताया एक दोपहर माल रोड में टहलते हुए दोनों एक दूसरे के सामने थे. पं. पंत ने कुमाऊंनी में बात शुरू करते हुए बाबू को नाम से पुकारा - दौलत सिंह! और उन्हें बताया कि उन्होंने बोर्ड को गर्त से उठाकर काफ़ी बेहतर बना दिया है और यह कि वे इस बात से बहुत खुश हैं. पं. पंत ने इस बात का ज़िक्र १९२८ की बोर्ड रिपोर्ट में भी किया कि ठाकुर दौलत सिंह ने बोर्ड के सारे विभागों की कार्यप्रणाली का अकेले दम पर बहुत सक्षमता के साथ निरीक्षण किया है.
१९४६ के दौरान जब बाबू सार्वजनिक जीवन में अपने को पुनर्स्थापित करने का प्रयास कर रहे थे, वे एक बार फिर पं. पंत से मिले. तब पंत जी यूनाइटेड प्रोविन्स के मुख्यमन्त्री बन चुके थे. उन्होंने तब ५० साल के हो चुके बाबू के लिए आयु सीमा को दरकिनार करते हुए उन्हें सार्वजनिक आपूर्ति विभाग में एरिया राशनिंग ऑफ़िसर के पद पर नियुक्त कर दिया. बाबू उस नौकरी में नहीं गए क्योंकि उसी साल उन्होंने जंगलात में ठेकेदारी का काम शुरू कर दिया.
राष्ट्रीय स्तर के एक नेता की निगाहों में इतनी ऊंची जगह रखने वाले बाबू को ऐसे ही खारिज नहीं किया जा सकता.
सिक्के का दूसरा पहलू
अब बाबू की कमज़ोरियों के बारे में कुछ. बाबू के साफ़ साफ़ दो चेहरे थे, एक अनुशासनप्रिय अधिकारी का और दूसरा एक पारिवारिक व्यक्ति का. वे दोनों इस कदर अलग अलग थे कि मुझे निश्चित नहीं मालूम कि मैं उनका बेटा होने के नाते इस बात को कितना सही सही व्यक्त कर सकूंगा.
स्त्रियों के साथ बाबू के सम्बन्धों में रूमानियत हुआ करती थी जो कि पहले बताई गई घटनाओं और परिस्थितियों के कारण बाबू के बुरी तरह टूट जाने का कारण हुआ करता था. उनकी सबसे बड़ी कमी यह नहीं थी कि वे ’दूध का जला छांछ भी फूंक फूंक कर पीता है" वाली कहावत से कोई सबक नहीं लेते थे और बार-बार वही गलती करते जाते थे.
देवी उपासना से अध्यात्म की दिशा में बढ़ने के अपने उत्साह के अतिरेक और पारिवारिक मामलों में सन्तुलन न बना सकने के कारण ही बाबू को सन्यास लेना पड़ा और परिवार के सदस्य छिन्न भिन्न हो गए.
अन्त में यह भी कि वे कमज़ोर इच्छाशक्ति वाले व्यक्ति थे जिन्हें नकली या असली बाबाओं का चमत्कारिक व्यक्तित्व प्रभावित कर देता था. इस में कोई शक नहीं कि बाबा लोग पिछले सन्यासियों का साहित्य पढ़कर ज्ञान हासिल करते हैं. वे अपनी वाकपटुता के कारण प्रभावशाली वक्ता भी बन जाते हैं. इसके अलावा दुग्ध उत्पादों, मौसमी फलों, सब्ज़ियों और मावों के नियमित सेवन से वे अपने व्यक्तित्व को आकर्षक बनाए रखते हैं. बाबू की यही कमज़ोरी आकर्षक स्त्रिरों के सामने भी आ जाया करती थी.
हमारे देश के ईश्वरीय व्यक्ति
मैं शुरू में ही कह देना चाहता हूं कि इस विषय पर अपनी बात रखने से पहले मुझे क्षमा किया जाएगा, क्योंकि दो तथाकथित ईश्वरीय व्यक्तियों का शिकार बना मैं थोड़ा बहुत पक्षपातपूर्ण भी हो सकता हूं.
अपने पुराने अध्ययन के आधार पर मैं कह सकता हूं कि ईश्वरीय व्यक्तियों की बाढ़, खास तौर पर हिन्दू धर्म में, १९२० के दशक से आना शुरू हुई. इसका एक कारण यातायात और संचार के साधनों की उपलब्धता हो सकता है. इनमें से कुछ ईश्वरीय व्यक्तियों ने अपने नाम के आगे भगवान शब्द भी जोड़ा. मेरे खयाल से उनके चेले इन गुरुओं के प्रभाव की बढ़ोत्तरी में बड़ी भूमिका निभाते हैं. चेलों की संख्या बढ़ती जाती है. और अपने चुम्बकीय व्यक्तित्व से वे बहुत सारे भले लोगों को आकर्षित करने में सफल हो जाते हैं.
मैं अपने बच्चॊं से कहना चाहता हूं कि किसी भी दिशा में छलांग लगाने से पहले उस तरफ़ देख लेना चाहिए. किसी भी गुरु के पैरों पर अपना सर्वस्व रख देने से पहले उन्होंने थोड़ा परिपक्व तरीके से सोचना चाहिये. सबसे पहले काफ़ी समय तक गुरु को हर कोण से परख लेना चाहिये और इस बात को अच्छी तरह नापतौल लेना चाहिये कि क्या वे सन्यास का जीवन बिता सकेंगे.
गलतियां मनुष्य ही करते हैं. यह बात सब पर लागू होती है - गुरु पर भी और उसे मानने वाले चेले पर भी. मैं ऐसे अनेक मामले देख चुका हूं जहां इन गुरुओं का असली रूप दुनिया के सामने उजागर हुआ है.
मैं किसी ऐसे व्यक्ति को हतोत्साहित नहीं करना चाहता जो एक समर्थ गुरु के सान्निध्य में शान्ति पाता हो.
मेरा विवाह
इस आख्यान को मैं एक सुखद बात के साथ समाप्त कर रहा हूं. मेरी मंगेतर के नाम पर बाबू ने १९४४ के आसपास डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के अपने एक मातहत की सलाह पर सहमति की मोहर लगा दी थी. उनके कहने पर १९४४ के नवम्बर में मैं उससे मिला. हालांकि वह प्राइमरि स्कूल तक पढ़ी थी, मैंने उसे एक सादगीभरी और सन्तुलित लड़की पाया. हमारा विवाह १५ जून १९४५ को हुआ जब मैं अर्न्ड लीव पर बीरभट्टी, नैनीताल में था. बीस साल का होने में मुझे अभी ढाई महीने बाकी थे.
12 comments:
bahut rachak laga .. pahale ke panne padhana behad jaruri lag raha hai ..
पूरी कथा रोचक रही ...
गुरु बनाने के सम्बन्ध में आपकी सलाह गौर करने योग्य है ...जिस तरह से बाबाओं की पोल खुलती जा रही है ....किसी को गुरु बनाने से पहले सौ बार सोचना चाहिए ...!
यदि सायं घर वापस आना हो जाये तो सुखान्त ही कहलायेगा। मानवीय कमजोरियाँ को कुछ लोग जी लेते हैं, कुछ विजय पाते हैं और कुछ जीवन पर्यन्त लड़ते रहते हैं।
इस तरह अधूरे में न छोड़ो. अपने दोस्त से कहो, आगे की कथा भी लिखे. अगर लिखी गई है तो पेश करते रहें. यह व्यक्ति नहीं जीवन की कथा है. पाठक को इससे बहुत ताकत मिलती है.
मजेदार।
bahut jaldi khatm ker de kuch din or chlne dete..
kahani se ek judav mahsus hone laga tha.
thanks for this lovely post.
looking for same in future.
''पानी पीजे छान के , यारी कीजे जान के '' आपकी दोस्ती को सलाम अशोक भाई !
रोचक जीवन.
सभी कियत एक साथ पढ़ा ...
आगे भी जानने की इच्छा बलवती हो गई.
जय हो - आख़री हिस्सा जल्दी आ गया ! - बड़े गल्प का रिसर्च कैसा है ?
पता नही कितने इतवारो को याद आ जाया करेगी अब से.....
की धरती पर कही दो बोतले बीयर की कम हो रही होन्गी ...
दुआ करता हु की इन्डियन एक्सप्रेस के इतवार की क्रॉसवर्ड--रोज़ाना छ्पे !!
कुंवर साहब ने बहुत ही बढ़िया ढंग से आपने बचपन कि कथा कही है. अपने बताया था कि ये कथा अंग्रेजी भाषा में लिखी गयी है अतः अशोक जी आपका हिंदी अनुवाद कार्य भी सराहनीय है. इस कथा के साथ मैंने भी तीस और चालीस के दशक के pahad कि यात्रा की . अच्छा लगा. मैं भी उत्तराखंड का ही हूँ अतः वहां से जुडी हर चीज एक अपनेपन का अहसास देती है. बार बार अपने ईजा बाबु कि याद आती रही. अशोक जी आपका शुक्रिया.
कुंवर साहब ने बहुत ही बढ़िया ढंग से आपने बचपन कि कथा कही है. अपने बताया था कि ये कथा अंग्रेजी भाषा में लिखी गयी है अतः अशोक जी आपका हिंदी अनुवाद कार्य भी सराहनीय है. इस कथा के साथ मैंने भी तीस और चालीस के दशक के pahad कि यात्रा की . अच्छा लगा. मैं भी उत्तराखंड का ही हूँ अतः वहां से जुडी हर चीज एक अपनेपन का अहसास देती है. बार बार अपने ईजा बाबु कि याद आती रही. अशोक जी आपका शुक्रिया.
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