आज लाख कोशिशें कीं कि कुछ और पढ़ सकूं. पामुक की किताब शुरू की, छोड़ दी. ओरियाना फ़ल्लाची का अधूरा छूटा उपन्यास भी उबाने लगा. उस के बाद ऊपर वाली रैक में से सीढ़ी लगाकर 'कबीर समग्र' निकाला. 'क्रिकइन्फ़ो' का ताज़ा अंक देखा.
मन न लगा.
बहुत देर तक साउथ अफ़्रीका के कप्तान स्मिथ की पारी देखी. १९६५ के बाद अब जाकर उस का देश इंग्लैंड से उसके घर में कोई सीरीज़ जीता है.
आधे-पौन घंटे लेटे-सोचते अपने 'महान' बल्लेबाज़ों और गंवार वीरू का तुलनात्मक अध्ययन किया.
पीले कवर वाली मोटी किताब सामने थी बाबा की. आज ही तो आपने 'रीछ का बच्चा' पढ़ी थी उनकी.
क्या करता.
फिर वही सतत बसंती रंग में रंगा-पगा माहौल.
अब क्या तो कहते बाबा नज़ीर अकबराबादी.
और उनके पांव के सबसे छोटे नाख़ून की धूल के परमाणु से भी छोटा - क्या मैं कहता.
मगन हो रहिए और पढ़िए:
(रेडियोवाणी वाले अपने यूनुस भाई ने मेरा आग्रह माना और पीनाज़ मसानी की बिल्कुल अलग तरह की आवाज़ में इस कालजयी रचना के कुछ हिस्से भेज दिए. तो पढ़ें भी और सुनें भी)
यारो सुनो! ये दधि के लुटैया का बालपन
और मधुपुरी नगर के बसैया का बालपन
मोहन सरूप निरत, कन्हैया का बालपन
बन बन के ग्वाल गौएं चरैया का बालपन
ऐसा था, बांसुरी के बजैया का बालपन
क्या क्या कहूं मैं कृष्ण कन्हैया का बालपन
और मधुपुरी नगर के बसैया का बालपन
ज़ाहिर में सुत वो नंद जसोदा के आप थे
वरना वो आप ही माई थे और आपी बाप थे
परदे में बालपन के ये उनके मिलाप थे
जोती सरूप कहिए जिन्हें, सो वो आप थे
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन
और मधुपुरी नगर के बसैया का बालपन
क्या क्या कहूं मैं कृष्ण कन्हैया का बालपन
उनको तो बालपन से ना था काम कुछ ज़रा
संसार की जो रीत थी उसको रखा बजा
मालिक थे वो तो आपी, उन्हें बालपन से क्या
वां बालपन, जवानी, बुढ़ापा सब एक था
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन
और मधुपुरी नगर के बसैया का बालपन
क्या क्या कहूं मैं कृष्ण कन्हैया का बालपन
मालिक जो होवे उसको सभी ठाठ यां सरे
चाहे वो नंगे पांव फिरे या मुकुट धरे
सब रूप हैं उसी के वो चाहे सो करे
चाहे जवां हो, चाहे लड़कपन से मन हरे
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन
और मधुपुरी नगर के बसैया का बालपन
क्या क्या कहूं मैं कृष्ण कन्हैया का बालपन
बाले हो ब्रजराज जो दुनिया में आ गये
लीला के लाख रंग तमाशे दिखा गये
इस बालपन के रूप में कितनों को भा गये
एक ये भी लहर थी कि जहां को जता गये
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन
और मधुपुरी नगर के बसैया का बालपन
क्या क्या कहूं मैं कृष्ण कन्हैया का बालपन
यूं बालपन तो होता है हर तिफ़्ल का भला
पर उनके बालपन में तो कुछ और भेद था
इस भेद की भला जी, किसी को ख़बर है क्या
क्या जाने अपने खेलने आए थे क्या कला
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन
और मधुपुरी नगर के बसैया का बालपन
क्या क्या कहूं मैं कृष्ण कन्हैया का बालपन
राधारमन तो यारो अजब जायेगौर थे
लड़कों में वह कहां हैं, जो कुछ उनमें तौर थे
आप ही वो प्रभू नाथ थे और आप दौर थे
उनके तो बालपन ही में तेवर कुछ और थे
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन
और मधुपुरी नगर के बसैया का बालपन
क्या क्या कहूं मैं कृष्ण कन्हैया का बालपन
वह बालपन में देखते जीधर नज़र उठा
पत्थर भी एक बार तो बन जाता मोम सा
उस रूप को ज्ञानी कोई देखता जो आ
दंडवत ही वो करता था माथा झुका झुका
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन
और मधुपुरी नगर के बसैया का बालपन
क्या क्या कहूं मैं कृष्ण कन्हैया का बालपन
पर्दा न बालपन का वो करते अगर ज़रा
क्या ताब थी जो कोई नज़र भर के देखता
झाड़ और पहाड़ देते सभी अपना सर झुका
पर कौन जानता था जो कुछ उनका भेद था
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन
और मधुपुरी नगर के बसैया का बालपन
क्या क्या कहूं मैं कृष्ण कन्हैया का बालपन
मोहन, मदन, गोपाल, हरी बंस, मन हरन
बलिहारी उनके नाम पै मेरा ये तन बदन
गिरधारी, नन्दलाल, हरिनाथ, गोवरधन
लाखों किए बनाव, हज़ारों किए जतन
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन
और मधुपुरी नगर के बसैया का बालपन
क्या क्या कहूं मैं कृष्ण कन्हैया का बालपन
पैदा तो मधुपुरी में हुए श्याम जी मुरार
गोकुल में आके नन्द के घर में लिया क़रार
नन्द उनको देख होवे था जी जान से निसार
माई जसोदा पीती थी पानी की वार धार
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन
और मधुपुरी नगर के बसैया का बालपन
क्या क्या कहूं मैं कृष्ण कन्हैया का बालपन
जब तक कि दूध पीते रहे ग्वाल ब्रज राज
सबके गले के कठुले थे और सबके सर के ताज
सुन्दर जो नारियां थीं वो करती थीं कामो-काज
रसिया का उन दिनों तो अजब रस का था मिजाज़
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन
और मधुपुरी नगर के बसैया का बालपन
क्या क्या कहूं मैं कृष्ण कन्हैया का बालपन
बदशक्ल से तो रोके सदा दूर हटते थे
और खूबरू को देख के हंस हंस के चिमटते थे
जिन नारियों से उनके ग़मो-दर्द बंटते थे
उनके तो दौड़-दौड़ गले से लिपटते थे
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन
और मधुपुरी नगर के बसैया का बालपन
क्या क्या कहूं मैं कृष्ण कन्हैया का बालपन
अब घुटनियों का उनके मैं चलना बयां करूं
या मीठी बातें मूंह से निकलना बयां करूं
या बालकॊं की तरह से पलना बयां करूं
या गोदियों में उनका मचलना बयां करूं
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन
और मधुपुरी नगर के बसैया का बालपन
क्या क्या कहूं मैं कृष्ण कन्हैया का बालपन
पाटी पकड़ के चलने लगे जब मदन गोपाल
धरती तमाम हो गई एक आन में निहाल
बासुक चरन छूने को चले देख कर पताल
आकास पर भी धूम मची देख उनकी चाल
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन
और मधुपुरी नगर के बसैया का बालपन
क्या क्या कहूं मैं कृष्ण कन्हैया का बालपन
थी उनकी चाल की तो अजब, यारो चाल-ढाल
पांवों में घुंघरू बाजते, सर पर झंडूले बाल
चलते ठुमक-ठुमक के जो वो डगमगाती चाल
थांबें कभी जसोदा कभी नन्द लें संभाल
जब पांवों चलने लागे बिहारी नन्द किशोर
माखन उचक्के ठहरे, मलाई दही के चोर
मुंह हाथ दूध से भरे कप्ड़े भी शोर-बोर
डाला तमाम ब्रज की गलियों में अपना शोर
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन
और मधुपुरी नगर के बसैया का बालपन
क्या क्या कहूं मैं कृष्ण कन्हैया का बालपन
करने लगे यह धूम जो गिरधारी नन्द लाल
इक आप और दूसरे साथ उनके सब ग्वाल बाल
माखन मलाई दूध जो पाया सो खा लिया
कुछ खाया, कुछ ख़राब किया कुछ गिरा दिया
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन
और मधुपुरी नगर के बसैया का बालपन
क्या क्या कहूं मैं कृष्ण कन्हैया का बालपन
कोठी में होवे फिर तो उसी को ढंढोरना
गोली में हो तो उस में भी जा मुंह को बोरना
ऊंचा हो तो भी कांधे पै चढ़ के न छोड़ना
पहुंचा न हाथ उसे मुरली से फोड़ना
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन
और मधुपुरी नगर के बसैया का बालपन
क्या क्या कहूं मैं कृष्ण कन्हैया का बालपन
गर चोरी करते आ गई ग्वालिन कोई वहां
और उसने आ पकड़ लिया तो उस से बोले हां
मैं तो तेरे दही की उड़ाता था मक्खियां
खाता नहीं मैं उसकी निकाले था चूंटियां
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन
और मधुपुरी नगर के बसैया का बालपन
क्या क्या कहूं मैं कृष्ण कन्हैया का बालपन
गर मारने को हाथ उठाती कोई ज़रा
तो उसकी अंगिया फाड़ते घूंसे लगा-लगा
चिल्लाते गाली देते मचल जाते जा ब जा
हर तरह वां से भाग निकलते उड़ा छुड़ा
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन
और मधुपुरी नगर के बसैया का बालपन
क्या क्या कहूं मैं कृष्ण कन्हैया का बालपन
ग़ुस्से में कोई हाथ पकड़ती जो आन कर
तो उसको वह सरूप दिखाते थे मुरलीधर
जो आफ लाके धरती वो माखन कटोरी भर
ग़ुस्सा वो उनका आन में जाता वहीं उअतर
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन
और मधुपुरी नगर के बसैया का बालपन
क्या क्या कहूं मैं कृष्ण कन्हैया का बालपन
उनको तो देख ग्वालिनें जी जान पाती थीं
घर में इसी बहाने से उनको बुलाती थीं
जाहिर है उनके हाथ से वो ग़ुल मचाती थीं
पर्दे में सब वह किशन के बलिहारी जाती थीं
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन
और मधुपुरी नगर के बसैया का बालपन
क्या क्या कहूं मैं कृष्ण कन्हैया का बालपन
कहती थीं दिल में दूध जो अब हम छिपाएंगे
श्रीकिशन इअसी बहाने हमें मुंह दिखाएंगे
और जो हमारे घर में यह माखन न पाएंगे
तो उनको क्या ग़रज़ है ये काहे को आएंगे
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन
और मधुपुरी नगर के बसैया का बालपन
क्या क्या कहूं मैं कृष्ण कन्हैया का बालपन
सब मिल जसोदा पास ये कहती थीं आ के बीर
अब तो तुम्हारा कान्ह हुआ है बड़ा शरीर
देता है हमको गालियां फिर फाड़ता है चीर
छोड़े दही न दूध न माखन मही न खीर
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन
और मधुपुरी नगर के बसैया का बालपन
क्या क्या कहूं मैं कृष्ण कन्हैया का बालपन
माता जसोदा उनकी बहुत करती मिनतियां
और कान्ह को डरातीं उठा बन की सांटियां
जब कान्ह जी जसोदा से करते यही बयां
तुम सच न जानो माता, ये सारी हैं झूटियां
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन
और मधुपुरी नगर के बसैया का बालपन
क्या क्या कहूं मैं कृष्ण कन्हैया का बालपन
माता कभी ये राह मेरी छुंगलिया छुपाती है
जाता हूं राह में तो मुझे छॆड़ जाती हैं
आप ही मुझे रुठाती हैं आपी मनाती हैं
मारो इन्हें ये मुझको बहुत सा सताती हैं
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन
और मधुपुरी नगर के बसैया का बालपन
क्या क्या कहूं मैं कृष्ण कन्हैया का बालपन
माता कभी ये मुझको पकड़ कर ले जाती हैं
गाने में अपने साथ मुझे भी गवाती हैं
सब नाचती हैं आप मुझे भी नचाती हैं
आप ही तुम्हारे पास ये फ़रियादी आती हैं
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन
और मधुपुरी नगर के बसैया का बालपन
क्या क्या कहूं मैं कृष्ण कन्हैया का बालपन
एक रोज़ मुंह में कान्ह ने माखन झुका दिया
पूछा जसोदा ने तो वहीं मुंह बना दिया
मुंह खोल तीन लोक का आलम दिखा दिया
एक आन में दिखा दिखा दिया और फिर भुला दिया
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन
और मधुपुरी नगर के बसैया का बालपन
क्या क्या कहूं मैं कृष्ण कन्हैया का बालपन
थे कान्ह जी तो नन्द जसोदा के घर के माह
मोहन नवल किशोर की थी सबके दिल में चाह
उनको जो देखता था सो कहता था वाह वाह
ऐसा तो बालपन न हुआ है किसी का आह
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन
और मधुपुरी नगर के बसैया का बालपन
क्या क्या कहूं मैं कृष्ण कन्हैया का बालपन
सब मिल के यारो किशन मुरारी की बोलो जै
गोबिन्द छैल कुंज बिहारी की बोलो जै
दधिचोर गोपीनाथ, बिहारी की बोलो जै
तुम भी नज़ीर किशन बिहारी की बोलो जै
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन
और मधुपुरी नगर के बसैया का बालपन
क्या क्या कहूं मैं कृष्ण कन्हैया का बालपन
10 comments:
नज़ीर की बात अलग है.
बहुत दिनों पहले नज़ीर के ऊपर हबीब तनवीर का नाटक देखा था, उसमें नज़ीर की रचनाओं की अद्भुत रेन्ज देखी
शायरी कम ही पढ़ी है, लेकिन नज़ीर के हमनाम डा. नज़ीर की नज़ीर अकबराबादी पर लिखी किताब में संकलित शायरी शौक से पढ़ी.
क्या बात है कि नज़ीर कि रचनाओं में इतनी लय और ताल होने के बावजूद उनके गाने नहीं मिलते?
सुन्दर। वैसे, मैं तो इस ख़ूबसूरत रचना के सुरीले गायन की उम्मीद से यहाँ आया था...दरअसल, अशोक जी, आपने हमारी उम्मीदें बहुत अधिक बढ़ाकर रख छोड़ी हैं।
अशोक भाई ये गीत मैंने रेडियोवाणी पर चढ़ाया था । इसे पीनाज़ मसानी ने गाया है । पर इसकी जानकारी ज्यादा लोगों को नहीं है ।
ये रहा लिंक
http://radiovani.blogspot.com/2007/12/yaro-suno-written-by-nazeer-akbarabai.html
यूनुस भाई, किन शब्दों में आपका शुक्रिया कहूं. अद्भुत है आपकी वह पोस्ट. क्या कोई जुगत हो सकती है इस गीत को प्लेयर समेत यहां इस पोस्ट पर लगा पाने की? मैं आभारी रहूंगा.
घनी खिचडी दाढी, घने लंबे बाल, हाथ में आबनूस का छोटा सा बेंत और कुहनी तक लोहे के कडों से भरी कलाई. लोहे के उन कडों पर छन-छन बजता बेंत और गले की फूली हुई नसों से फूटते बोल: क्या क्या कहूं में कृष्ण कन्हैया का बालपन !!
हम उन्हें मुल्लाजी कहते थे और वो महीने में एक बार ज़रूर ताई के हल्द्वानी वाले घर में आते थे. दर्जा चार में पढने वाले बच्चे को जितना समझ आ सकता था वो तो यही था की मुल्लाजी भगवन कृष्ण का भजन गा रहे हैं. लिखने वाला भी मुल्लाजी ही है -- यह बात तब मालूम नही थी.
हमारे कथित सांस्कृतिक राष्ट्रवादी भी और इस्लाम का झंडा उठाने वाले भी आगरे के उस मुल्लाजी की कब्र पर मिटटी डाल चुके हैं.
हमारे हल्द्वानी वाले मुल्लाजी को -- उम्रदराज़ हों वो -- प्रणाम.
राजेश जोशी जी, माफ करिये आपके हल्द्वानी वाले मुल्लाजी नज़ीर नहीं हो सकते. नज़ीर कोई फ़कीर नहीं थे. उन्हें तो ग़ालिब ने भी अपना उस्ताद माना है.
नज़ीर ने यकीनन किसी के घर जाकर कुछ नहीं मांगा होगा.
एहसान करें, नज़ीर को फ़कीर न समझें. हां उनकी शायरी जरूर फ़कीरों ने गाई है. एक बानगी देखिये
जब आदमी के पेट में आती हैं रोटियां
फूली नहीं बदन में समाती है रोटियां
आखें परीरुखों से लड़ाती है रोटियां
सीने उपर भी हाथ चलाती है रोटियां
जितने मजे है सब यह दिखाती है रोटियां
रोटी में जिनका नाक तलक पेट है भरा
करता फिरे है क्या वह उछल-कूद जा बजा
दीवार फांद कर कोई कोठा उछ्ल गया
ठ्ट्टा हंसी शराब, सनम साकी, उस सिवा
सौ सौ तरह की धूम मचाती है रोटियां
जिस जा पे हांडी, चूल्हा तवा और तनूर है
ख़ालिक की कुदरतों का उसी जा जहूर है
चूल्हे के आगे आंच जो जलती हूज़ूर है
जितने है नूर सब में यही ख़ास नूर है
इस नूर से सबब नज़र आती है रोटियां
.
.
.
रोटी न पेट में हो तो फिर कुछ जतन न हो
मेले की सैर ख़्वाहिशे बागो चमन न हो
भूखे ग़रीब दिल कि ख़ुदा से लगन न हो
सच है कहा किसी ने कि भूखे भजन न हो
अल्लाह की भी याद दिलाती है रोटियां
.
.
.
दुनियां में अब बदी न कहीं औ निकोई (अच्छाई) है
ना दुश्मनी न दोस्ती ना तुन्दखोई (बदमिजाज़ी) है
कोई किसी का, और किसी का न कोई है
सब कोई है, उसी का कि जिस हाथ डोई है
नौकर नफ़र (ग़ुलाम) बनाती है रोटियां
नज़ीर अकबराबादी की इतनी अच्छी नज़्म पढ़वाने और पीनाज़ मसानी की आवाज़ में इतना मधुर सुनवाने को आपका किन शब्दों में आभार कहूं. सुन्दर प्रस्तुति.
गुप्ता जी ... कुछ ग़लत फहमी हो गयी आपको मेरी टिपण्णी पढ़ कर -- ऐसा लगता है .
हम उस फकीर को प्यार से मुल्लाजी कहते थे ... और उतने ही प्यार से मैंने नजीर साहेब को भी मुल्ला जी पुकारा .
बस इतनी से बात है . ऐसी कहाँ किस्मत की नजीर साहेब के मुख से उन्ही का कलाम हम सुन पाते . हाँ ख़ुद को उसी युग से जुड़ा पाता हूँ कभी कभी . धन्यवाद .
राजेश जोशीजी की टिप्पणी को सिरिल जी ने अभिधा में ले लिया! हा हा हा):. वैसे राजेश की टिप्पणी से यह साफ समझ में आता है कि वह एक अलामत की बात कर रहे थे एक जीते-जागते चरित्र द्वारा. उसमें कोई गफलत नहीं है.
बहरहाल, सिरिलजी ने यह कविता 'जब आदमी के पेट में आती हैं रोटियाँ...' पढ़वाकर मेरे साथ बड़ा भला किया. यह कविता मेरी चौथी कक्षा में थी. शायद पाठ्यक्रम में लगाने वाले लोग तब भाजपा की सरकार के नहीं थे. तब मुझे नहीं पता था कि यह कविता अशोक पांडे की लगाई फोटो वाले अपने आगरे के नजीर भाई की है जिन्होंने लिखा था ..... तब देख बहारें होली की. लोग आज उनका कम्पिटीशन पूरी गंभीरता के साथ गालिब के साथ करते हैं. वही जनकवि और महाकवि वाली बहस.
हाय शीलजी!
TAB BHI SUNA ,AB BHI SUNA . ABHI KAI DIN BAJEGA YE GEET MERE GHAR.MAIN KAHAIYA KO HI ALLAH MIYAN MANTA HOON.
Post a Comment