मुझे तीसेक साल पहले अपने मकान की चार दीवारों के भीतर अपने पिताजी के साथ बैठकर बातचीत करना याद आता है. ठीक जैसा मैं अब हूं वे भी अपने जीवन की गोधूलि में थे. उन्होंने ऐसे ही एक दिन कहा: "त्रिलोक, बढ़ती उम्र के साथ साथ जीवन के महत्वपूर्ण घटनाएं चाहे वे प्रीतिकर हों या कड़वी किसी फ़िल्म की तरह स्क्रीन पर नज़र आने जैसी लगती हैं मानो वे अभी हाल में ही घटी हों." इधर पिछले तीन सालों से मैं तकरीबन यही अनुभव कर रहा हूं. मुझे लगता है कि कुछ अपवादों को छोड़कर इसमें हर व्यक्ति के लिए कुछ न कुछ अच्छी चीज़ें निहित रहती हैं. मैं काफ़ी समय से लगातार इस सम्बन्ध में विचार करता रहा हूं. आखिरकार मैं उन्हें मोटे मोटे विवरणों में याद करने की कोशिश कर रहा हूं. ये सब मेरी नौकरी के समय से सम्बन्धित हैं.
१९४३ में मैंने अल्मोड़ा के सरकारी इन्टरमीडियेट कॉलेज से इन्टरमीडियेट साइंस और प्री बोर्ड का इम्तहान दिया था. मैं इसमें उत्तीर्ण न हो सका अलबत्ता मुझे अंग्रेज़ी की सप्लीमेन्ट्री परीक्षा के लिए योग्य घोषित कर दिया गया. आज़ादी से पहले इस तरह के अभ्यर्थियों को उस एक विषय की परीक्षा में बैठने का अवसर अगले साल मिलता था, जबकि आज के समय में सप्लीमेन्ट्री की परीक्षा दो महीनों में हो जाया करती है. मेरे मामले में यह परीक्षा १९४४ में होती. उन दिनों हमारा परिवार भीषण दारिद्र्य से रूबरू था और मैं एक साल रुक कर और उसके बाद नौकरी तलाशने की बात सोच भी नहीं सकता था.
चूंकि वह दूसरे विश्वयुद्ध का दौर था, सार्वजनिक विभागों की नौकरियां युद्ध से लौटकर आने वालों के लिए खाली रखी जाती थीं. इसलिए मेरे पिता जी ने मुझे राय दी कि मैं सशस्त्र सेना में भर्ती हो जाऊं. वे मेरे साथ सेना भर्ती कार्यालय तक भी आए. हमने ३५ किलोमीटर की यात्रा दो दिनो में तय की क्योंकि उन दिनों अल्मोड़ा और बागेश्वर के बीच कोई मोटर मार्ग नहीं था. वहां मुझे रॉयल इन्डियन एयर फ़ोर्स में ग्राउन्ड टैक्नीशियन (पहले वायरलैस फिर राडार ऑपरेटर) के तौर पर भर्ती कर लिया गया. मेरी उम्र तब कुल साढ़े सोलह थी. १९४३ और १९४६ के बीच मैंने वायुसेना में दो साल और सात महीने काम किया.
युद्ध के समाप्त हो जाने पर १९४५ के अन्त में मैंने दो कारणों से वायुसेना से स्वैच्छिक सेवामुक्ति के लिए आवेदन किया. पहला तो यह कि १९४५ के मध्य में १८ की आयु में मेरा विवाह होने वाला था. दूसरा यह कि मेरे सामने दो विकल्प रख दिए गए थे - या तो मैं सेवामुक्ति स्वीकार कर लूं या एक लोअर ग्रेड लिपिक का पद ग्रहण करूं. मैंने पहला विकल्प चुन लिया. तीन माह का सवेतन अवकाश लेकर मैंने अप्रैल १९४६ में अल्मोड़ा के क्षेत्रीय रोजगार कार्यालय में फ़ॉरेस्टर के पद के लिए अपने को पंजीकृत करवा लिया, जैसा कि सैन्य सेवाओं से लौटने वालों के लिए निर्देशित था.
2 comments:
जीवन में मोड़ और भी हैं। क्रम बनाये रखें।
अच्छा लग रहा है,पढना ....इंतज़ार है, अगली कड़ी का...
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