यह बातचीत
जगूड़ी से बरसों का संग-साथ रहा है। लखनऊ के सूचना विभाग से संबद्ध रहते हुए अक़्सर हम रू-ब रू होते, गोष्ठियाँ जमतीं और उनकी नई कविताओं का स्वाद भी चखते। उनकी कविताएँ तब भी अपने समय की निर्ममता से व्याख्या करती थीं और आज भी वे सबसे पहले एक क्रिटीक की भूमिका में ही दिखती हैं। कविता को वे आत्मा की इंजीनियारिंग मानते हैं। उनकी कविता कितनी भी गद्यात्मक और नैरेटिव क्यों न हो, उसमें कविता की आत्मा बोलती है। वे कहते भी तो हैं कि कविता भी आत्मा का कार्बन है। हिंदी आलोचना भले ही उन्हें नेपथ्य में रखती आई है पिर भी वे आज की आलोचना को चुनौती और सीख देने वाले कवियों में हैं। वे अपनी कविता से पाठकों को कविता-विरक्त नहीं करना चाहते जैसा आज के कुछ कवि कर रहे हैं। बाल्कि वे हर पाठक को नया कुछ देना चाहते हैं। उनकी कविता में समाजशास्त्रीय बहसें हैं, उसके राजनीतिक निहितार्थ हैं। जगूड़ी ने अपने संग्रह का नाम रखा था, अनुभव के आकाश में चाँद। अनुभव के निरभ्र आकाश में केवल चाँद ही नहीं, उनकी कविता भी उड़ान भरती है---उन्मुक्त और निर्भार। यह बातचीत भी उनके साथ निरन्तर संसर्ग के सत्साहस से संभव हुई है।
-ओम निश्चल
हर नया कवि पुराने कवि से जन्म लेता है
(हिंदी कविता के वरिष्ठ कवि लीलाधर जगूड़ी गत 1 जुलाई को सत्तर वर्ष के हो गए। अपने लेखन की शुरुआत उन्होंने सन् साठ से की थी। अनियमित शिक्षा क्रम से गुजरते हुए वे वर्षों तक तालीम के लिए कई जगहों पर भटके। पौज में भी रहे पर जल्दी ही उससे छुटकारा लेकर कविता में रमे तो आज तक उसी जुनून में रहते आ रहे हैं। कुछ वर्षों शिक्षण एवं सूचना विभाग,लखनऊ से सम्बद्ध रहे लीलाधर जगूड़ी जैसा कवि हिंदी में कोई दूसरा नही है, जिसने भाषा और अनुभव के रसायन से कविता की इतनी विरल निर्मितियाँ संभव की हैं।
इस मौके पर लीलाधर जगूड़ी से ओम निश्चल की बातचीत के संपादित अंश:)
ओम निश्चल: सहित्य के सभी क्षेत्रों में अब यह माना जा रहा है कि आपकी हर कविता का संदर्भ और भाषिक संसार एकदम अलग किस्म का है। कवि होने के लिए कोई कम से कम योग्यता आप निर्धारित करना चाहेंगे? आजकल कवियों की बाढ़ के बावजूद कहा जा रहा है कि कविता खत्म हो गयी है या हो रही है।
लीलाधर जगूड़ीः सृष्टि के कारक तत्व की तरह कवि को भी ‘स्वयंभू’ कहा गया है अर्थात अपने आप अपनी प्रतिभा, अपने विवेक, अपने अनुभव से निजि दृष्टि के अभिव्यक्ति कौशल में स्वयं जन्म लेना। ‘कविर्मनीषी’ तक तो समझ में आता है, ‘परिभू’ भी चलेगा लेकिन ‘स्वयंभू’- यह बहुत कठिन है। क्यों कि भाषा समाज देता है और कवि उसका बेहतर इस्तेमाल करता है। सार्वजनिक भाषा में से स्वोपार्जित भाषा प्राप्त करना फिर उस भाषा में एक नये कथ्य का सृजन करना दूसरे स्वरचित शरीर की तरह है। अपने शरीर का स्वयं सृजन अत्यन्त कठिन प्रक्रिया है। कवि को कविता के अवयव बनाते समय यह याद रखना चाहिए कि वह ऐसा कुछ बनाने जा रहा है जो सिर्फ़ वही बना सकता है, इसलिए वही उसे बना रहा। दूसरा कोई उस अनुभूति की सहभागिता तो कर सकता है लेकिन उस कविता का प्रथम रचियता उस कवि के अलावा कोई दूसरा नहीं है। क्या आज के कवि को संवेदना का इतना अकेला, अद्भुत और स्वनिर्मित दृष्टिपूर्ण, आत्मचेतन संयंत्र समझा जा सकता है? आज की अधिकांश कविताओं में भाषा का पुनर्प्रयोग हो रहा है पुनरूत्पादन नहीं। नवसृजन तो दूर की बात है।
आज कवि का जन्म भूतपूर्व कवियों और भूवपूर्व कविता से होता है। कोई भी लोकशैली और संदर्भ कवि और कविता के जन्म का कारण बन सकते हैं। कविता असल में प्राथमिक या प्रथम कवि के लिए भी अभिव्यक्ति के उपाय के रूप में हठात् उपलब्ध नहीं हुई होगी। लयात्मक श्वास-क्रम या एक सांस को छोड़ते समय लम्बे और छोटे, झटकेदार भाषिक प्रयोगों के परिणामों से वह पहला कवि (व्यक्ति) न केवल परिचित रहा होगा बल्कि उसके छांदिक प्रभाव से प्रभावित भी रहा होगा। हो सकता है इस कौशल से पहले कोई स्मरणीय भाषिक अथवा शाब्दिक अभिव्यक्ति ऐसी न बन पायी हो जो नितान्त कलात्मक और अविस्मरणीय हो जाय। जो स्मृति के लिए एक फ़ैंटेसी हो जाय। प्रथम कवि के प्रथम भाषिक उच्छ्वास का वह क्षण अन्तःकरण को सदियों लंबी पीड़ा से भर गया। इसलिए सारे अध्ययनों और अनुभवों के बाद भी कवि की बुनियादी योग्यता है दूसरों के दुःख की अनुभूति में विरल संवेदनशील अन्तःकरण का वैचारिक उद्रेक और तुरन्त न्याय के सौन्दर्य की ऐच्छिक स्थापना । वह शाप भी दे रहा है तो असह्य क्रोध और अपार करूणा के साथ, दैहिकता को नश्वर न बताते हुए दे रहा है यही कारण है कि नश्वर दैहिकता नहीं बल्कि व हत्याकांड (क्रौंचवध) मानव जाति की स्मृति में आज भी गूंज रहा है। यह कवि दृष्टि से बनी हुई विचार शक्ति की अनुगूंज है जिसे हम अपने करूणापूर्ण क्षणों को न्यायपूर्ण बनाने के लिए बार-बार पाना चाहते है। अमानवीयताओं से भरी व्यवस्थाओं का विरोध भी किसी को शापित करने जैसी ही प्रक्रिया है। बुराइयों को कवियों ने बहुत शाप दिये हैं, यहीं से मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा और ह्रास का पता चलता है।
कवि की योग्यता में पहली योग्यता संवेदनशील अंतःकरण, दूसरी योग्यता स्वाध्याय से बाहर जाने की कल्पनाशक्ति, तीसरी योग्यता अपनी भाषा के कर्म कौशल का अथाह ज्ञान और अपनी भाषा की काव्ययुक्ति और नयी काव्ययुक्ति के प्रति सजगता। आदि-आदि।
श्वास-प्रश्वास की जो मैंने अभी बात कि उसके बारे में यह स्पष्ट करना चाहता हूँ कि श्वास जब भीतर से लौटकर आती है तो उसी का उपयोग शब्दों के उच्चारण में हो पाता है। अन्यथा भीतर जाती सांस के साथ आप एक भी शब्द नहीं बोल सकते। यानी कि भाषा भी कार्बन से पैदा हुई है। कविता भी आत्मा का कार्बन है।
अंदर सांस लेते हुए एक भी शब्द नहीं बोला जा सकता। भाषा तो छोडी जाती हुई सांस का कमाल है । इसलिए कविता में अधिक बोलने का त्याग संभवतः शामिल है। गद्य का अर्थ ही बोलना है इसलिए गद्य में मितभाषी होने का उतना प्रतिबंध नही है। कविता में मितभाषी होना भी कवि की एक योग्यता आप ठहरा सकते हैं। एक और भी योग्यता मैं कवि के लिए निर्धारित करना चाहूंगा कि वह जानता हो कि उसकी कविता में कहां और कितनी कविता बनी। बनी भी या नहीं? सामान्य गद्य से तभी कविता का गद्य अलग हो पायेगा। अन्यथा कविता भी निरागद्य बनकर रह जायेगी। उपमाएं और बिम्ब आज भी कविता के प्राण है बशर्ते कि वे इतने नये, अप्रयुक्त और अश्रुत हों कि आश्चर्य का भी एक और बिम्ब बना डालें। अतियथार्थ ही हमें यथार्थ की निकटता अथवा भयावहता का अनुभव करा सकता है । अपने समय के यथार्थ की तरह अपने समय की उपमाएं और बिम्ब भी सृजित करना कवियों का ही काम है। हर युग की कविता अपने समय की भाषा से अपनी आत्मा का निर्माण करती है ।
कविता यदि सचमुच खत्म हो रही है तो यह चिंता की बात है, खुशी की नहीं। लेकिन मेरा सोचना है कि कविता इतनी जल्दी अभी खत्म नहीं होगी। बल्कि अत्यधिक गद्यात्यकता और भाषिक विस्तार के प्रति अभी अस्वीकृति का माहौल पैदा होगा। भाषा का बीजीकरण ही ज्यादा ग्राहय होगा। बिना भाषिक बीज के कविता के नाम पर जो टेढी-मेढी पंक्तियों वाला अनुभवहीन, अगंभीर गद्य लिखा जा रहा है वह ज्यादा दिन प्रशंसा नहीं बटोर पायेगा। कविता जब जब लोकप्रिय कम हुई है तब तब उस पर प्रश्न चिन्ह लगाये गये हैं।
थी खबर गर्म कि गालिब के उड़ेंगे पुर्जे
देखने हम भी गये थे पै तमाशा न हुआ
कुल मिला कर सुबोध और जिज्ञासु होने के अलावा कवि होने के लिए उन बहुत सी योग्यताओं की जरूरत होती है जो किसी संस्थाबद्ध शिाक्षण संस्था के अलावा अर्जित करनी होती हैं। जैसे बहुश्रुत और बहुज्ञ होना। कवि होने की योग्यता को किसी पाठ्य क्रम की तरह स्पष्टतः लक्षित नहीं किया जा सकता समस्त अवधारणाओं को तर्क पूर्वक अपने जेहन का हिस्सा बनाने की आकुलता से उसे लबरेज होना चाहिए। उसकी जानकारियां को उसकी बातचीत में अलग से झलकना चाहिए। केवल मौन रहने से काम नही चलेगा। मौन से एक दो कवि ही काम चला सकते थे और उन्होने बीसवीं सदी तक चला लिया । अब तो कवि को बोल बोलकर दुनिया में फंसना पडेगा। एक खास तरह की खानाबदोशी भी कवि में होनी चाहिए । जैसे किसी दूसरी दुनिया का होते हुए भी किसी तीसरी दुनियां में खुशी खुशी रह रहे हों। ज्ञात अज्ञात के प्रति प्रश्नशीलता कवि में हो जो संगियों तक को हमेशा परेशान करती हो। वह व्यंग्य के साथ आत्मव्यंग्य में भी सहज हो। ज्ञान की कोई शाखा ऐसी न हो जिसके आधारभूत तत्वों की सही जानकारी उसको न हो। उसे लय और श्रुति की अच्छी समझ आवश्यक है। वह चित्रकार या मूर्ति शिल्पी चाहे न हो लेकिन उसे मूर्त, अमूर्त और रंग-अरंग की भाषा आती हो। उसकी स्मरण शक्ति एक परीक्षा देने जाने वाले अच्छे विधार्थी जैसे तेज होने चाहिए। आर्थिक रूप से भले ही गरीब हो लेकिन सोच का अमीर हो। कल्पना और सोच का गरीब व्यक्ति कवि नही हो सकता। वह दुनिया का सबसे बेचैन और संवेदनशील इन्सान हो उसे अपना काम वैज्ञानिक की तरह करना आना चाहिए। वैज्ञानिक दृष्टि आवश्यक है। अपनी भाषा की, अपने देश की भाषाओं की, दुनियां के साहित्य की, कमोवेश उसे जानकारी होनी चाहिए। उसे परस्पराओं और सामाजिक क्रान्तियों की सकारण जानकारी हो, उसे धार्मिक पाखंड पैलाने वालो से नफ़रत हो। वह सामाजिक राजनीतिक रूप मे भी अत्यंत सजग व्यक्ति हो फिर भी वह एक बच्चे जैसा मासूम और दार्शनिक जैसा दूरदर्शी हो। व्यक्ति कवि से न सही, कम से कम उसकी कविता से ये अहसास मिलने जरूरी हैं। इन सारी अवधारणाओ से बाहर भी कोई व्यक्ति अगर अच्छा कवि हो सकता हो तो मनाही नही हैं।
(जारी)
1 comment:
दिलचस्प .....लोक सभा चैनल पर एक बहस में उन्हें सुन रहा था .वे केवल कवि नहीं है ..समाज की अन्य घटनाओं पर उनकी नजर ओर सोच काबिले तारीफ़ है .
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