(पिछली किस्त से जारी)
वे जीवन से ही नहीं, पौराणिक संदर्भों तक से आधुनिक चेतना को खँगालते हैं और राजनीति, धर्म, साहित्य, अर्थतंत्र और बाज़ार के जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों को एक कवि की तरह आँकते हैं। लंबी कविताओं के तो वे जैसे बेहद लोकप्रिय कवि माने जाते हैं। बलदेव खटीक के अनेक मंचन हुए---कविता के रंगमंच को विकसित करने में इस या इन जैसी तमाम कविताओं की अपनी भूमिका है। महाकाव्य के बिना में संकलित तमाम लंबी कविताएँ इस बात का परिचायक हैं कि ये कविताएँ रचनात्मक आपद्धर्म का परिणाम हैं। लंबी कविताओं की थियरी रचने के बजाय उन्होंने कविताओं में ही उसकी सैद्धांतिकी और निर्मिति के बीज बोए हैं। यों तो वे लंबी कविताओं के विस्तार में जितनी बौद्धिकता और तार्किकता के साथ कथ्य के विराट फलक पर खेलते हैं, उनकी छोटी कविताएँ भी उतनी ही प्राणवान और संवेदना-सिक्त लगती हैं। इसका एक उदाहरण तो शीर्षक कविता है---
जब उसने कहा कि अब सोना नहीं मिलेगा
तो मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ा
पर अगर वह यह कहता कि अब नमक नहीं मिलेगा
तो शायद मैं रो पड़ता।
यह कवि के सरोकारों को जताने वाली कविता है।
भय भी शक्ति देता है की दर्जनों कविताएँ आधुनिक अर्थतंत्र, बाजारवाद और भूमंडलीकरण की आगत आहट को लेकर लिखी गयी थीं, जब उदारीकरण और भूमंडलीकरण की चर्चाएँ भी शुरू नहीं हुई थीं। और अब उनके नवीनतम संग्रह खबर का मुँह विज्ञापन से ढका है---को देखें तो यह संग्रह न तो पुराने संग्रहों की जूठन से रचा गया है न पुराने अनुभवों का नवीन विस्तार है। यहां पुरानी सारी प्रविधियों को अलग रखते हुए सर्वथा नए ढंग से बात कहने की कोशिश है। फूलों की खेती और उदासी, प्राचीन भारतीय संस्कॄति को अंतिम बुके, सौ गालियों वाला बाज़ार, खबर का मुँह विज्ञापन से ढका है तथा कर्ज के बाद नींद ऐसी कविताएँ हैं जो जगूड़ी जैसे कवि के भीतर बसे समाजशास्त्री, अर्थचिंतक और मनोविश्लेषक से रूबरू कराती है। कवि आज केवल कल्पना जगत का प्राणी नहीं रहा, उसे भी जगत गति व्यापती है। बिना सांसारिक हुए जीवन की विविधताओं, विशिष्टताओं और व्याधियों से परिचित नहीं हुआ जा सकता। कवि यथातथ्य के गान के लिए नहीं बना है। वह तुकें और अन्त्यानुप्रास भिड़ाने वाला प्राणी नहीं है। सूखे समाज में लहरें पैदा करने वाली विज्ञापन टीम पर उसकी पैनी नज़र है। विज्ञापन जैसा समाज बना रहे हैं, जैसी आक्रामकता और मोहक शब्दजाल से वे हमारी जीवन-शैली में घुसपैठ कर रहे हैं, जगूड़ी की उस पर पैनी नज़र है। शुद्ध कविता की खोज का यह समय नहीं रहा। कविता में आज का समय बोलना चाहिए। आज का वैश्विक परिदृश्य बोलना चाहिए। कविता में आज के बदलाव को लक्षित किया जाना चाहिए। कविता से जिन्दगी का खमीर गायब हो रहा है, जगूड़ी को चिंता इस बात की है। वे बदलाव, विकास, आधुनिकता, तकनीक, आविष्कार और किसी भी वैचारिक नवाचार का विरोध नहीं करते, उसकी पूरी नोटिस लेते हैं। चार्वाक ने भले ही इसकी संस्तुति की हो, पहले कर्ज लेना बुरा माना जाता था। अभावग्रस्तता चल सकती थी, ऋणग्रस्तता नहीं। आज कर्ज तरक़्की का, आार्थिक विकास का परिचायक है। इसलिए हर जगह कर्ज और कमाई ढूढते अत्याधुनिक मनुष्य तक के मिजाज की पड़ताल जगूड़ी करते हैं। कर्ज के बाद नींद कविता में आधुनिक अर्थतंत्र की आवाज सुन पड़ती है। सरस्वती पर उनकी कुछ बेहतरीन कविताएँ ईश्वर की अध्यक्षता में और खबर का मुँह विज्ञापन से ढंका है संग्रह में हैं। आज जिस तरह लोगों ने अपने हितों के लिए सरस्वती का दुरुपयोग किया है, जगूड़ी उसे एक सुव्यवास्थित रूपक में बदलते हुए इस प्रवॄत्ति की पड़ताल करते हैं।
जगूड़ी की कविता न तो पारंपरिक कविता की लीक और लय पर चलती है न आजमाए हुए बिम्ब-प्रतीकों का अवलंब ग्रहण करती है। यह कवित-विवेक के अपने खोजे-रचे प्रतिमानों और सौंदर्यधायी मानदंडों पर टिकी है। रीति, रस,छंद और अलंकरण के दिखावटी सौष्ठव से परे यह आधुनिक जन-जीवन में खिलती प्रवॄत्तियों, उदारताओं, मिथ्या मान्यताओं, व्याधियों, किंवदान्तियों, क्रूरताओं का खाका खीचती है। इसमें बरते गए शब्द आधुनिकता के स्वप्न और संघर्ष की पारस्परिक रगड़ से उपजे हैं। पर्यावरण को ये कविताएँ चिंताओं और सरोकारों के नए धरातल से देखती हैं। इनमें सब कुछ के लुट जाने का और लुटते हुए को बचा लेने का हाहाकारी शोर और रोर नहीं है। क्रूरताओं और हिंसा के चितेरों को ये कविताएँ चेतावनियाँ नहीं देतीं क्योंकि ये जानती हैं--यह काम कवि का नहीं, व्यवस्था और प्रशासन का है। जिस तरह प्रशासन और कानून के जिम्मे एक स्वच्छ नागरिक पर्यावरण का निर्माण है, इन कविताओं का काम नागरिकता के विरुद्ध होते पर्यावरण की शिनाख्त है और जगूड़ी यह काम संजीदगी से अंजाम देते हैं। मानवीय क्रूरताओं का रंगमंच बनती हुई दुनिया की शिनाख्त केवल कवि ही कर सकता है। यदि पूछा जाए कि जगूड़ी ने हिंदी कविता को क्या दिया है तो यह सहज ही कहा जा सकता है कि उन्होंने कविता को भाषा और अनुभव के जितने झटके दिए हैं ( ऐसा वे खुद भी कहते हैं), उतने ही अर्थपूर्ण मुहावरे और सुभाषित भी। बात बात पर ऐसी उद्धरणीयता जो मायकोएस्की जैसे क्रांतिकारी कवियों की कविताओं में देखने को मिलती है। समकालीनता का शोर इन दिनों हिंदी कविता में सबसे ज्यादा है पर सच्ची समकालीनता जगूड़ी जैसे कवियों के यहाँ ही पायी जाती है। वे समकालीन कवि ही नहीं, समकालीनता के कवि हैं। जगूड़ी ने लिखा है, एक अच्छी कविता कर्म, विचार शैली और सौंदर्य का संपूर्ण विलयन अपने में लिए होती है। कविता का लक्ष्य किसी अनुभव की तत्काल अदायगी नहीं है। वह जीवनानुभवों का उपार्जन है।
(जारी)
No comments:
Post a Comment