Sunday, September 19, 2010

अनुभव के आकाश में कविता - 3

(पिछली किस्त से जारी)

चालीस में जन्मे जगूड़ी ने अब तक की सुदीर्घ काव्य यात्रा में समय के बदलते हुए चेहरे को नजदीक से देखा है। आजादी उनके पैदा होने के सात साल बाद मिली, पर वयस्क होते होते उन्हें आजादी की निरर्थकता समझ में आने लगी। विकास का नेहरूवियन माडल लोकतंत्र के निस्तेज चेहरों की परवाह नहीं करता था। लिहाजा पंचसाला योजनाएँ बेशक चलाई गईं, उनके उपयुक्त परिणाम नहीं मिले। समय समय पर चलाए गए आार्थिक कार्यव्रमों का भी कोई बड़ा प्रभाव देश के स्वास्थ्य पर नहीं पड़ा। पचहत्तर की इमरजेंसी ने बताया कि सत्ता की निरंकुशता किस हद तक जा सकती है। नकक़्सलवाद का कोई हल आज तक नहीं निकला है। गए वर्षों में गरीबी हटाओ के मुग्धकारी नारे के बावजूद, गरीबी रेखा भले ही थोड़ी ऊपर उठी हो, गरीब हमेशा उस रेखा के नीचे ही रहता आया है। धीरे धीरे गरीबी ही बीमारी का रूप लेती गयी और गरीब को यह लगने लगा कि जिस बीमारी से वह ग्रस्त है, उसका नाम गरीबी है और उसे डाक्टर नहीं मिटा सकते। देश पर लदे कर्ज का हिसाब यह है कि तमाम सामाजिक आार्थिक और शैक्षिक परियोजनाएँ विश्व बैंक के अनुदान से चलायी जा रही हैं। विज्ञापनों ने न केवल सतही लोकरुचि के निर्माण में दिलचस्पी ली बाल्कि एक रणनीति के तहत, कवि के शब्दों में वे चुपचाप हर चीज़ मे घुस गए/ पहाड़ में , रेत में, खेत में और अभिप्रेत में/ वे घास और काई की तरह स्वाभाविक लगने के बजाय जंग की तरह स्वाभाविक लग रहे थे। समाज का हाल यह कि एक अप्रत्याशित सीधा सादा मगर कारगर गुंडा सामाजिक न्याय बाँटने वाले के रूप में दिख सकता है। हम अक्सर सभ्यता-समीक्षा की बात दुहराते हैं। खबर का मुँह विज्ञापन से ढका है---के जरिए लीलाधर जगूड़ी एक बड़े सामाजिक सत्य से पर्दा उठाते हैं। वे जताते हैं कि जैसे स्वर्ण पात्र से सत्य का मुँह बंद हो जाता है उसी तरह खबर का मुँह विज्ञापन ने ढक लिया है। यानी जो खबर है वह खबर नहीं, विज्ञापन है। अर्धसत्य है। जगूड़ी की कविता तमाम अर्धसत्यों का उद्घाटन है। वह मानव सभ्यता का वाच टावर है जहाँ से वे समाज की व्याधियों, विडंबनाओं, व्रूरताओं का सटीक जायज़ा लेते हैं।

भले ही लीलाधर जगूडी का जन्म 1 जुलाई 1940 को हुआ हो लेकिन उनके कवि का जन्म 1960 के आस-पास हुआ। पचास वर्ष की निरंतर काव्य यात्रा में उन्होंने हमें 12 कविता संग्रह और एक साक्षात्कारों का संकलन दिए। उन्होंने समय समय पर कविता, समाज, समय , व्यवस्था, धर्म, राजनीति और पर्यावरण पर जो लेख लिखें हैं उनके संकलन आने बाकी हैं। उनकी डायरियों में उनका पचास वर्ष का जो सोच-विचार अंकित हैं, वह संग्रहाकार प्रतीक्षित है। लीलाधर जगूड़ी के बारह कविता संग्रह हिंदी कविता के बारह पड़ावों की तरह हैं। हर संग्रह में एक नई शुरुआत दिखायी देती है। उन्होंने अपनी तरह की कविताएँ लिखी हैं। बहुत सी तो ऐसी हैं जो अलग तरह की आलोचना दृष्टि पैदा करने की क्षमता रखती हैं और वे भविष्य की कविताएँ लगती हैं। समकालीनता से दीर्घकालीनता में जाने का अद्भुत गुण उनकी कविताओं में मौजूद है।

1960 से हर दशक में उनकी कविता ने हिंदी में एक काव्यांतर पैदा किया है। जगूड़ी एक ट्रेंड सेटर कवि के रूप में अग्रगामी रहे हैं। चाहे आजादी के बाद का अकाल, भुखमरी , अव्यवस्था और बेराजगारी हो, चाहे आपातकाल का समय हो, उन्होंने हर बार एक नई काव्यभाषा आर्जित करके हिंदी कविता के अभिव्यक्ति कौशल को अत्यधिक सामयिक रखते हुए भी अपने समय को लाँघने की मार्मिकता के साथ रचा है। उनकी कविताओं से नए शब्दों, मुहावरों का चयन किया जाए तो एक अलग कोश बनाने लायक सम्पदा वहाँ है। उनकी कविताओं में सूक्तिपरकता और उद्धरणीयता इतनी अधिक है कि सूक्तियों का भी एक अलग कोश तैयार किया जा सकता है। आपातकाल में रात अब भी मौजूद है, बची हुई पॄथ्वी और घबराए हुए शब्द के माध्यम से उन्होंने चिडिया, माँ, पूल, चाँद, बच्चे और बलदेव खटिक जैसी रचनाएँ देकर एक बार हिंदी में इन शब्दों को ही मुहावरे में बदल दिया था। प्रकृति के बिम्ब उन दिनों कविता से विदा हो चुके थे, लेकिन उनको, अपनी कविता की भट्ठी में डाल कर उन्होंने नया धात्विक रूप प्रस्तुत किया। याद आती है इमरजेंसी के दिनों में भेद कविता में उस पुलिस वाले की जिसे खेल ही खेल में कुछ बच्चे रस्सी से बांध देते हैं और पुलिस लाइन में पुलिस पर पुलिस हँसती है। ऐसी ही एक अविस्मरणीय कविता अंतर्देशीय है, जो इमरजेंसी के आतंक को एकदम अलग ढंग से व्यक्त करती है। इस पत्र के भीतर कुछ न रखिए--इस सरकारी छपित वाक्य से कविता शुरू होती है और पूरी तत्कालीन भारत सरकार, बिना नाम लिए उस कविता के घेरे में आ जाती है। लीलाधर जगूडी की कविता में बच्चे और पुलिस बिल्कुल अलग ढंग से आते हौ। इमरजेंसी में चिड़िया उनकी कविता और आजादी दोनो का प्रतीक बन गयी थी। बाद में सारी हिंदी कविता मां, बच्चे और चिड़ियों से भर गयी। जगूड़ी की इस देन को अलग से रेखांकित किया जाना चाहिए कि हर दशक में उन्हांने कविता को नई भाषा और नए संदर्भों की कमी से उबारा है। उनके कविता संग्रहों के नाम ही एक कथा का आख्यान करने लगते हैं। उनकी कविता में कथा उस तरह चलती है जैसी वह किसी नाटक में घटित हो रही हो।

अगर किसी आलोचक ने अपने समय में उनकी कविताओं को अपनी पत्रिका में सबसे ज्यादा जगह दी तो वे हैं डॉ.नामवर सिंह। लेकिन यह भी आश्चर्यजनक तथ्य है कि वे ही जगूड़ी कविता के बारे में सर्वाधिक मौन दिखायी देते हैं। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अपने समय के किसी महत्वपूर्ण कवि और उसके अवदान के प्रति आलोचक का मौन रहना भी आगे चलकर उसकी संवेदना और गुट-निरपेक्ष दृाष्टि को कटघरे में खड़ कर देता है। वैसे भी हिंदी के बड़े आलोचकों ने जगूड़ी के जमाने से प्रारंभ करने वाले किसी भी कवि पर अलग से कोई काम किया ही नहीं है। अब समय आ गया है कि कवियों और आलोचकों के पिछले पचास वर्षों के अवदान पर खुल कर बात की जाए।

लीलाधर जगूड़ी जैसे कुछ और कवियों को भी अलग तरह का होने का दंड उनकी उपेक्षा करके देने का प्रयास इन कवियों की प्रचंड प्रतिभा से ध्वस्त हो गया है और होकर रहेगा। आखिर रचना ही है जो हर काल में कवि को पुनर्जन्म देगी। जगूड़ी का बॄहद रचना संसार आज विशद विवेचन की माँग करता है और उसी में से कविता के अगले सूत्र भी निकलेंगे। खबर का मुँह विज्ञापन से ढका है--यह संग्रह इकक़्कीसवीं सदी की काव्यप्रवॄत्तियों का जनक संग्रह लगता है। बाजार और अर्थशास्त्र, बाजार और समाजशास्त्र के बीच लीलाधर जगूड़ी कविताओं की सीधी और कहीं कहीं सांकेतिक आवाजाही, सब कवियों से भिन्न तरह की है। प्रेम में प्रवेश को वे प्रेम में निवेश मानते हैं। जगूड़ी की आज की कविताओं को मुक्तिबोध,धूमिल अथवा अज्ञेय और रघुवीर सहाय की कविताओं जैसा नहीं समझा और व्याख्यायित किया जा सकता। उनकी कविताओं का संसार और उस संसार की चिंताएँ बिल्कुल अलग तरह की हैं। उनकी कविताओं से ही उनके अंतरराष्ट्रीय बाजार की व्याख्या के सूत्र निकाले जा सकते हैं। आज उन्हीं के यहां अपनी सरस्वती की अंदरूनी खबर ली जा रही है। लीलाधर जगूड़ी इकक़्कीसवीं सदी की हिंदी कविता का एक आधुनिक मोड़ हैं। उनमें हर बार एक नई छलांग, एक नया आत्मोल्लंघन दिखायी देता है।

भारतीय कविता की जड़ों से जगूड़ी का गहरा परिचय है। यही कारण है कि वे अतीत की अभिव्यक्ति संपदा और भविष्य के तकनीकी गूँगेपन को एक साथ रख पाते हैं। आधुनिक विकासवादी और परिवार्तित होते मनुष्य समाज को उनकी कविताओं में बिल्कुल अलग ढंग से देखा जा सकता है। एक समय था, जब कर्ज के बाद मनुष्य का सारा चैन नष्ट हो जाता था, लेकिन उनकी कविता के चित्रित पात्र को कर्ज के बाद नींद आती है। सामाजिक अनुभूतियां किस तरह बदल रही हैं। बैंकों द्वारा दिए जाने वाले ऋण से जो आत्मनिर्भर खुशहाली लोगों के जीवन में आ रही है---इस तरह के विषयों को हिंदी कविता प्रतिरोध या प्रसन्नता के लिए कहीं भी छूती हुई नहीं दिखायी देती। टेक्नॉलॉजी वाले समाज के जो सुख-दुख हैं, उनकी आहट सबसे पहले और सबसे ज्यादा जगूड़ी की कविताओं में सुनाई देती है। उनकी कविताओं की स्त्री का अलग ही रंग ढंग है। पूरी हिंदी कविता में वैसी स्त्री या स्त्रियाँ नहीं मिलेंगी। जगूड़ी सत्तर वर्ष के होने जा रहे हैं। वे अब ऊर्ध्वरेता हो गए हैं। उनकी कविता साठ पार करते हुए एक विचित्र इतिहास से गुजरने का मौका देती है जिसे लगता है कि समय ने बनाया है लेकिन जब हम उनकी काव्य भाषा से गुजरते हैं तो लीलाधर जगूड़ी के अनुभव के कायान्तरण को देख और समझ पाते हैं। तब उनके सॄजन
का नवोन्मेष और कलावंत रूप सामने आता है।

(जारी)

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