(पिछली किस्त से जारी)
ओम निश्चल: आपकी कविताएं भाषा का अनुभव बनते जीवनानुभव की कविताएं कही जा रही हैं। कविता की अभियांत्रिकी में आपने जो परिवर्तन किये हैं वे आपको अपने आप में एक अकेले कवि की परम्परा में खड़ा करते हैं। मै यह जानना चाहता हूं कि कविता को लेकर जो कोमल, शान्त, स्वप्रिल और संवेदी कल्पनाशील छाया, प्रायः मन में बनती है- क्या कविता के मान्य और ज्ञात स्वभाव में तोड़-फोड़ कविता को यांत्रिक नहीं बनाती?
लीलाधर जगूडी: असल में आपने अभियांत्रिकी और यांत्रिक तोड़-फोड़ को कविता के स्वभाव में किसी उग्रवादी तत्व की तरह शामिल किया है। जबकि कविता को आत्मा की इंजीनियरिंग कहा गया है और कविता से पैदा होने वाले आनंद या जो प्राप्य वहां घटित हो रहा हो, को पाकर यांत्रिकता, ऊब और अवसाद में खलल पड़नी चाहिए जोकि पड़ती भी है। कोमल शांत स्वप्निल और संवेदी कल्पनाशील छाया के जो लक्षण आपने उभारे हैं वे प्राचीन रीतिबद्ध कविता ने हमें दिये और सिखाये। कविता में तोड़-फोड़ काव्य संस्कार में भी तोड़-फोड़ का संकेत करती है। स्थापित को अगर एक बार विस्थापन से गुजरना पडे तो संवेदना को भी अपने में नयी आंखे, नयी, हिम्मत, और नये पँख उगाने होंगे । स्थापित की विस्थापित छवि जाहिर है कि पूरे महौल को ही बदल देगी । यह सम्राट को वनवास दे देगी। यह ग्वाले को महाद्वीपीय युद्ध का नायक बना देगी। यह किसी वेश्या को सहृदय वसंतसेना बना देगा। दरिद्र चारूद को धीर ललित नायक बना देना उसी तोड़-पोड़ का नतीजा है । जिसे महज यांत्रिक नहीं कहा जा सकता। बलदेव खटिक, मंदिरलेन और पलटवार कविताओं में अपराध, पुलिस, हत्या और पारिवारिक हालातों को दृष्टिगत रखते हुए एक ही तरह से व्याख्यायित नहीं किया जा सकता । कई बार सारे सामाजिक और असामाजिक तत्व एक ही परिवार से निकलते दिखायी देते हैं। कई बार पूरे विश्व का एक जैसा चेहरा दिखता है लेकिन हम उसको तोड़-पोड़ कर किसी धर्म जाति और संप्रदाय तक ले जाते हैं। उसके नतीजों से हम बेहतर परिचित हैं।
साहित्य में तोड़-फोड़ या ध्वँस और परिवर्तन का वही मतलब नही है जो राजनीति में तोड़-फोड़ का है। साहित्य में अराजकता भी राजनीतिक अराजकता से भिन्न है। राष्ट्रीय चरित्र में बदलाव और साहित्य में बदलाव की संगति कभी-कभी ही बैठ सकती है। कभी कभी ऊँचे आदर्श भी कला को अराजकता से और परम्परा विच्छिन्न होने से बचा नहीं सकते। हमने लोकतंत्र का परिवर्तन कारी और उपजाऊ रूप अभी ठीक से पहचाना ही नहीं है । हमारा लोकतंत्र अभी संगीत, कला, थिएटर, नाटक, कविता और दर्शन के नये रूपाकार को सृजित करने में सपल नहीं हो पाया है। समूची मानवता अभी विश्वास योग्य नहीं बनी है। पर हम एक व्यक्ति के रूप में किसी दूसरे व्यक्ति का भी भरोसा खोते जा रहे हैं। दूसरे को परखने से पहले अपनी विश्वसनीयता परखने का संस्कार हम पैदा नहीं कर पा रहे हैं।
ओम निश्चल: आज हमारी कविता में अपार वैविध्य है अज्ञेय, मुक्तिबोध, केदारनाथ, अग्रवाल, नागार्जुन, त्रिलोचन शमशेर, कुंवरनारायण, केदारनाथ सिंह, धूमिल, रघुवीर सहाय, श्रीकांत वर्मा जैसे कवियों का परम्परा पोषित समृद्ध काव्य संसार है। इस वैविध्य का अवलोकन करते हुए आपको कविता का समकालीन परिदृश्य कैसा लगता है?
लीलाधर जगूडी: आपने परम्परा का नाम तो लिया लेकिन भारतेन्दु, प्रसाद, पंत, महादेवी, मैथिली शरण गुप्त, बच्चन, दिनकर, भवानी प्रसाद मिश्र, विजयदेव नारायण साही जैसे नामों को केवल परम्परा कहकर ही किनारे नहीं किया जा सकता । क्योंकि इन्होने बहुत से परम्परा भंजक कार्य अपनी रचनात्मकता में किये हैं।
समकाल भी दीर्घकाल का ही हिस्सा होता है और आगे चलकर उसे दीर्घकालीनता से होड़ भी लेनी होती है। इसलिए काल को प्रवृत्ति के अनुसार ही सुविधा पूर्वक विभाजित किया जा सकता है। कवियों की काव्य प्रवृति पर न समीक्षको ने अलग से ध्यान दिया न अलोचकों ने । वे केवल युग की प्रवृत्तियों के आस पास रहकर कवियों का और साहित्य का परीक्षण करने के आदी हैं। कुछ कभी ऐसा भी घटित होता है जो पारम्परिक और लिखित होते हुए भी अत्याधुनिक हो जाता है। जैसे कि धूमिल का ‘मोचीराम’ और रघुवीर सहाय का ‘रामदास’। दोनों कविताओं के रचनाकाल में बडा फ़र्क है लेकिन दोनों की होड़ उसी दीर्घकालीनता से है जिसे शमशेर की भाषा में कहें तो ‘काल तुमसे होड़ है मेरी। समसामयिक परिदृश्य में उल्लेखनीय कवि पचास तो होंगे ही और रचनारत एक सौ भी कहूं तो अधिक नही हैं। किसी-किसी की तो एक भी कविता स्मरणीय नहीं है पिर भी वह विख्यात बना दिया गया है ।
कविता के क्षेत्र में पूर्वकृत कविकर्म की बहुलता या विपुल कवि समुदाय की उपस्थिति अर्थपूर्ण नहीं होती। कविता के क्षेत्र में अपूर्व कृतित्व जिसका जितना है वही जीवित रहेगा। बाकी समकालीन कूड़े की तरह विस्मृति के गर्त में चला जायेगा। सहित्य का सारा कूड़ा, महाकाल का भोजन है। अच्छी रचनाओं को महाकाल भी कुतर नहीं पाता। सहित्य में और खासकर कविता के क्षेत्र में यह मान्यता रही है कि सहसा जिन कवियों के नाम आ जायें और उनकी गिनती से हाथ की सबसे छोटी उंगली अनामिका के चार घेरे पहले सार्थक हो जायें। हिन्दी की पिछली अर्धशती में श्रेष्ठ कहे जा सकने वाले कवियों में से चुने हुए कवियो का चुना हुआ कविता संसार यदि सामने लाया जाय तो एक अदभुत, अपूर्व लय विन्यास और जीवन कथा के साथ भाषिक वैभव की अलग अलग दुनिया सामने आ सकती है । कवियों को चाहिए कि वे दूसरे कवियो की अपनी पसंदीदा कविताओ का एक-एक चयन जरूर प्रस्तुत करें। वह खुद अपने चयन से कही बेहतर होगा। इससे निरर्थक गुटबाजी खत्म हो जायेगी और सहिष्णुता का वातावरण बनेगा।
इस समय वैविध्य की बात क्या की जाय क्योंकि वैविध्य के उन्मूलन के नाम पर भेद-भाव की सिंचाई चल रही है । जंगल और बाग में तो लोग वैविध्य चाहते हैं, ज्ञान के क्षेत्र में उसे पता नहीं क्यों कमाऊ विधाओं तक ही सीमित कर देना चाहते हैं। अकमाऊ को कमाऊ कैसे बनाया जाय इस ओर ध्यान होना चाहिए न कि अकमाऊ की कमाई पर। समकालीनता को कुछ लोग कलेण्डर में ढूंढने लगते हैं। जबकि समय, कलेण्डर और घड़ी दोनों से बाहर चल रहा है। जीव वैविध्य की तरह प्रतिभा वैविध्य भी समाप्ति की ओर जाता दिख रहा है। क्योंकि एकरसता के वितान में जाना सरल और सुगम है । जबकि हर नयी चीज अपने दीर्धकालीन समकालीनों के पुण्य से प्रज्वलित है।
ओम निश्चल: लगभग 1960 से आप लिख रहे है। बीस साल की उम्र में 1964 में लीलाधर शर्मा के नाम से आपका पहला संग्रह आया- ‘‘शंखमुखी शिखरों पर’’। पहाडों का यह बिम्ब पहली बार सामने आया। लगता है जैसे कोई शिखरों में पूंक भर कर उन्हें बजा डालेगा, शिखरों से समुद्र तक यह पृथ्वी ध्वनित हो उठेगी। उसके बाद आपने अपना नाम भी बदल दिया और तेवर भी। यह बनारस का प्रभाव था या धूमिल की मैत्री का? ‘नाटक जारी है’ के बाद ‘इस यात्रा में’ लगता ही नहीं कि यह उसी कवि का संग्रह है। संग्रहों में इतनी भिन्नता? इस चेतना की पलश्रुति कैसे हुई?
लीलाधर जगूडी: अब महसूस होता है कि किसी भी कवि को अपनी काव्य परम्पराओं के स्कूलों से होकर जरूर आना चहिए। तब यह बोध नही था। ‘शर्मा’ को इसलिए हटाया था कि लोग मुझे ब्राह्मण समझकर गलत न समझ लें। ‘जगूड़ी’ एक ग्रामवाची शब्द है जैसे अम्बेदकर। लेकिन ‘जोगथ’ गांव में केवल ब्राह्मण रहते है यह भी कालांतर में ढूंढ लिया गया। यह अच्छी बात थी कि प्राचीन नामों से जाति का बोध नहीं होता था। आज मैं जाति लाभार्थी नहीं हूँ। लाभ वंचित जातियां भी विपन्नता और विचारणीयता को प्राप्त होती जा रही है। खैर, धूमिल ने अपना नाम जाति छिपाने के लिए ही धूमिल रखा था लेकिन लोग सुदाम प्रसाद पांडे को ढूंढ लाये। बनारस खुद पक्कड़ और फ़कीर प्रवृति को पोषण देने वाला ऐतिहासिक शहर है। 1947 में भारत का आजाद होना सन् 60 के बाद मेरा बनारस पहुंच जाना जैसे दो आजादियों का संगम हुआ। मेरे जैसे घर से भागे हुए सर्वहारा को बनारस ने क्षेत्रभोजी बनाकर जीवित रखा। संस्कृत विद्यालयों की कतार की कतार देखी। शिक्षा और अक्षर प्राप्ति में बनारस की कृपा से गरीबी बाधक नहीं बनी। इससे पहले लगभग ग्यारह वर्ष मैं राजस्थान के कांसली, पिलानी, बगड़, पुष्कर आदि स्थानों पर रहा।
‘शंखमुखी शिखरों पर’ की काव्य भाषा से ‘नाटक जारी है’, की काव्य भाषा में छलांग दो वजहों से घटित हुई। आजादी के बाद के युवा जीवन का माहौल जिस तरह की शब्दावली से भरता जा रहा था वह भविष्य की अनिश्चितता को ज्यादा बढा दे रहा था । ऊपर से अज्ञेय की कविता पुस्तक ‘हरी घास पर क्षण भर’, 1963-64 में और कल्पना में मुक्तिबोध की कविता ‘अंधेरे में ’का प्रकाशन और धूमिल की मैत्री, राजकमल और गिन्सवर्ग का बनारस । अकविता की भाषा का बढ़ता अतिरेक। आजादी के बाद के मनुष्यों के भविष्य की तरह हिन्दी कविता का चेहरा भी चकनाचूर हो गया था।
इस में कोई संदेह नहीं कि उस समय मैं प्रभाव ग्रहण क्षेत्र में था। जिस तरह छोटी नदी बड़ी नदी की ओर जाती है और बडी नदी समुद्र की और, उसर तरह मैं निरंतर बडे़ कवियों की कविताओं की ओर जा रहा था और उनके प्रभाव में अपने को विलुप्त होने से बचाने की जद्दो जेहद में लग हुआ था। बडे़ के प्रभाव में उसका सोच और प्रवाह आपको हांकता है। इससे बचने के लिए अपनी नाव और अपने चप्पू होने जरूरी हैं। यह भी जरूरी है कि साइकिल की तरह आपको नाव चलानी भी आती हो। बनारस में उस समय चवन्नी में एक धंटे के लिए साइकिल और एक घंटे के लिए नाव चलाने को मिल जाती थी। माझी सीनियर कवि की तरह आपके साथ बैठा हो और आप लहरों से टकराते हुए अपना रास्ता बना रहे हों यह बनारस में ही संभव है। जहां विष्णुचंद्र शर्मा, त्रिलोचन शास्त्री और धूमिल तीन ध्रुवों की तरह एक साथ मौजूद हों। गीतकारों में समय की शिला पर चित्र उकरने वाले डॉ. शंभुनाथ सिहं मौजूद थे। नजीर बनारसी, बेढब बनारसी और बेधड़क बनारसी जैसे श्रृंगार और व्यंग्य से ओत प्रोत कवियों का गली गली में जमावड़ा था। भारतेन्दु बाबू आचार्य रामचंद्र शुक्ल, प्रसाद और प्रेमचंद की कहानी कही जाती थी। नामवर जी ने तब ताजा ताज बनारस छोड़ा था । बनारस के लिए वे तब आज जैसे परदेसी नहीं थे । डा शिव प्रसाद सिंह, डा॰ बच्चन सिंह और डा॰ विद्यानिवास मिश्र तब स्थापित थे और डा काशीनाथ सिंह ने विलंब से लिखना शुरू किया था (जैसे कोई देरी से शादी करे) इसलिए नवोदित थे । नौकरी पाने के संघर्ष से गुजर रहे थे और बाल बच्चेदार थे।
बनारस खुद एक इतिहास की तरह वर्तमान में जीता हुआ दिखता है । प्रसाद जी के शब्दो में कहें तो वह झंझा झकोर और गर्जन का शहर है। जुलाहों और जोगियों की नगरी बनारस के कई रंग हैं। गंगा तट के विस्तार से ज्यादा बनारस तंग गलियों में धड़कता है। ‘निराला निवेश’ में जो गोष्ठियां होती थीं उन में डा बच्चन सिंह कुछ हिदायतनामे नये रचनाकारो के लिए जारी करते थे। एक दिन, जिसे मै भूलता नही हूं उन्होने कहा धूमिल तुम जगूड़ी के प्रभाव से बचो । उस दिन नागानंद मुक्तिकंठ ने मद्रस कैफ़े में उधार मसाला डोसा और कॉफ़ी की दावत ली थी। मैं, धूमिल और नागानंद। तीनो जोगी उस दिन बहुत रम्यमाण हुए। अर्थात हम लोगों ने ओल्ड मौंक भी पी थी।
(जारी)
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