Sunday, September 26, 2010

कवि लीलाधर जगूड़ी से ओम निश्चल की बातचीत - 6

(पिछली किस्त से जारी)

ओम निश्चल: यथार्थ और आदर्श के बीच सत्य और मिथ्या की भी एक लड़ाई है। मिथ्या इस संसार को बताया गया है (भारतीय दर्शन में) जो कि यथार्थतः मौजूद है और सत्य को पाने की बात की गयी है जो शाश्वत बताया गया है और लगता है कि वह सत्य पार्थिव नही हैं। कुछ कहना चाहेंगे?

लीलाधर जगूड़ी: जितनी बुद्धि और आत्मशक्ति झूठ को सत्य बनाने मे लगानी पडती है, उतनी ही प्रतिभा और हिम्मत सच को सच बनाने में भी लगानी पडती है। मै तो इतना जानता हूँ कि सच और झूठ दोनों के लिये परिश्रम करना पडता है और परिश्रम ही सौन्दर्य है। असल में मृत्यु को शाश्वत सत्य मान लेने से सारी गडबडियां शुरू हुयी हैं। इतने सुदंर संसार को मिथ्या मानना, मरणासन्न या मरे हुये या डरे हुये का बयान लगता है। भारतीय दर्शन में एक व्यक्ति की मृत्यु में सारी चीजें मर जाती है। लेकिन उसकी चेतना का संयत्र ‘आत्मा’ नहीं मरता (आत्मन् शब्द संस्कृत मे पुल्लिंग है)। उनका मानना है कि उस चेतना का किसी दूसरी योनि में पुर्नजन्म नहीं होता चेतना को प्रतीक रूप में इस तरह अनश्वर माना जा सकता है कि जो पैदा होगा वह अपने में अपनी चेतना लिये होगा और भूतपूर्व चेतनाओं द्वारा निर्मित ज्ञान को वह विरासत के रूप मे ग्रहण करेगा। लेकिन इससे नयी पैदा होने वाली चेतना का तिरस्कार तो होता ही है। उसके प्रति अविश्वास भी प्रकट होता है। ज्यादा न कहकर मैं इतना ही कहना चाहूंगा कि सच-झूठ होते नहीं हैं बनाये जाते है। और सिद्ध या असिद्ध करने पडते हैं। इसीलिए हर युग और हर भूगोल का सत्य भी एक नहीं होता । जन्म और मृत्यु की तरह ‘सत्य’ सरल नहीं है क्यों कि इसे सिद्ध करो या न करो उसे होना ही है। असल में हमें भौतिक तरीके से सोचना नहीं आता जबकि प्राकृतिक अपनी भौतिक समझ की वजह से ही हमें भी और अपने को भी जीवित रखे हुए है। इसलिए सत्य को अकेले समझ पाना कठिन और विवादित दोनों ही है क्योंकि वह झूठ से भी खुराक प्राप्त करता है और डामाडोल विश्वास से भी इस तरह सत्य झूठ से भी ज्यादा विवादित हो जाता है। मेरा सत्य, मेरे साथ घटित हुआ मेरा जीवन मेरा समय और मेरा समाज है, दूसरे व्यक्ति का सत्य कुछ दूसरे निष्कर्ष लिए हुए है। वह भी उतना ही सत्य है। सत्य एक जैसा जड़ और स्थापित नहीं है और वह हर बार हर मनुष्य हर पदार्थ के साथ जीवन में कई बार कई रूपों में जन्म लेता है। यह जन्म लेने वाले पर और घटित घटना से प्रभावित परिस्थतियों वाले पर निर्भर करता है कि वह सत्य और झूठ को कैसे कैसे ग्रहण करता है। न सत्य शाश्वत है न झूठ। दोनों परिवर्तनशील हैं कभी-कभी हम अपने सोच संकल्प और इरादे को भी सत्य का दर्जा दे देते हैं किसी का सत्य अपने नजरिए में न्याय बन जाता है। जबकि दूसरे किसी की नजर में अन्याय भी हो सकता है। सत्य ढुल-मुल है। झूठ की शक्ल सत्य से बहुत मिलती जुलती है। इसी तरह न्याय की शक्ल भी अन्याय से मिले बिना नहीं रहती है।

कभी-कभी तो दोनों की अनुहार एक हो जाती है। न्याय पलकर खुद अपने ही अन्याय गिनाने लगता है। मानवीय संवेदनाओं में न्याय और अन्याय को समझने, समेटने और संवारने का द्वन्द्व और उलझाव सदियों से चला आ रहा है। विवेक ही अविवेक और अन्याय, शत्रु और मित्र की भूमिका निभाने लगता है। वह परिस्थितियों को देशकाल में बांट कर सच और झूठ, न्याय और अन्याय के स्थापित निष्कर्षों को बदल देता है। इसी लिए शाश्वत सत्य और युग सत्य में भी महाभारत चलता रहता है। यहां कुछ भी निर्णीत नहीं है। न सत्य न न्याय। यह झूठ और अन्याय पर निर्भर करता है कि वह किसको सत्य और किसको न्याय सिद्ध कर दें।

किसी भी जमाने का झूठ पकड़ो तो वह बता देगा कि उस जमाने का सच क्या है। सच पहचानने से पहले झूठ पहचानना सीखना चाहिए। सिद्ध कर पायें तो सच, वरना वह भी झूठ है। झूठ सच के इतने करीब है कि प्रक्रियागत अंतिम निष्पत्ति मे ही सच का पता लग पाता है। सचमुच, हर युग में, सत्य का मुँह स्वर्णपात्र से ढका है, हे पूषन (पुरूष) तुम उसे हटाओ।

ओम निश्चल: आपने ‘खबर का मुँह विज्ञापन से ढका है,’ से कविता कला का जैसे शिखर छू लिया है। संग्रह की नामधारी कविता और फूलों की खेती और उदासी, प्राचीन भारतीय संस्कृति को अंतिम बुके सौ गलियों वाला बाजार, कर्ज के बाद नींद आदि कविताएं अलग अलग प्रविधियों की स्थापना करती दिखती हैं। बारह कविता संग्रह आपके आ चुके है। आपके हर संग्रह में प्रतीतयों का नयापन है। आपने अपने एक साक्षात्कार में कहा भी है कि कुछ लोग सब कुछ को काटकर छवियों का बुरादा बना देने वाले भाषा की एक जैसी किट प्लाई बना देना चाहते है। आप की कविता उसके विरोध में है। इतना महत्वपूर्ण लेखन करने के बाद भी हिन्दी आलोचना आपको नेपथ्य में क्यो रखती आयी है।

लीलाधर जगूड़ी: शायद मैं कविता का अगला दृश्य होऊँ? मै पढ़ा जाता हूं पढ़ाया जाता हूं, बाजार की दृष्टि से देखें तो बिकता भी खूब हूं। मेरे कविता संग्रहो का पंचवा और छठा संस्करण बाजार में है। रचनाकारों के बीच मेरी कविताओं की चर्चा होती है। जैसे आलोचक मुक्तिबोध को मिले वैसे आलोचक मिलना मेरा सौभाग्य कहां? आलोचक मिलना भी किसी लेखक विशेष का सौभाग्य है। और मैं उन सौभाग्यशालियो में नही हूँ। मैं भी भवभूति की तरह यही कहूँगा कि मेरा कोई समान धर्मा अवश्य उत्पन्न होगा जो मेरे रचना संसार को समझेगा। क्योंकि काल निरवधि है और पृथ्वी विशाल है। मेरी कविताओं की भाषा उनके संदर्भ और उनकी अदायगी संभवतः आलोचना की चालू भाषा के अनुकूल नहीं है।

मैने कविता में ऐसे मुहावरे रचे हैं जो आलोचक को भी कल्पनाशील बनने पर मजबूर करेंगे। चालू कविताओं के संघर्ष से बनी आलोचक की चालू समझ के आधार पर मेरी कविताओं को दूर की कौड़ी कहकर अनदेखा ही किया जा सकता है। मैंने यह अनदेखी बहुत झेली है ओैर चुपचाप अपनी कविताओं पर काम करता रहा हूँ। कुछ नया और मौलिक कहने की होड़ से कविता बनती है।

इन कविताओ के लिए आलोचक को आजादी के बाद का एक अलग समाजशास्त्र और व्यकि चारित्र तथा प्रकृति, परिवार और राजनीति का ताना बाना बनाना पडे.गा। इतनी मेहनत कोई नया आलोचक ही कर सकता है और नये आलोचक की हर किसी का प्रतीक्षा है।

ओम निश्चल: हाल ही में डा नामवर सिहं ने अपनी आलोचना के आत्म संघर्ष को लक्षित करते हुए उसे अज्ञेय की सुपरिचित कविता ‘नाच’ के साथ आइडेंटीफ़ाई किया। क्या यह कविता कवि के आत्म संघर्ष को भी उतने ही प्रामाणिक ढंग से विवेचित नहीं करती?

लीलाधर जगूड़ी: नामवर जी ने भले ही सिल-सिलेवार किसी काव्यशास्त्र और काव्येतिहास का उत्पादन नहीं किया है लेकिन उनकी बात चीत में प्रायः ऐसे सूत्र आ जाते हैं जिन सूत्रों के सहारे एक पद्वति की रचना की जा सकती है। लेकिन यह कौन करे? क्यों कि नामवर जी के विवेचन में सूत्रबद्धता नही बल्कि कुछ लोगो से वचन-बद्धता झलकती है। उन्हे विमर्शक के साथ साथ अन्वेषक की भी भूमिका निभानी चाहिए थी। यह भी विचारणीय है कि नामवर जी ने खुद को मुक्तिबोध के ब्रह्मराक्षस से क्यों नहीं पहचाना? क्या आलोचक भी अभिशप्त नहीं है? नामवर जी स्वयं को ब्रहाराक्षस के सतत अभिशप्त और संघर्षशील व्यक्तित्व के करीब नहीं मानते तो यह उनका ईमानदार आत्म स्वीकर हो सकता है कि वे ‘नाच’ कविता के उस नट की तरह हैं जो एक से दूसरे खंबे के बीच, खतरनाक रस्सी पर संतुलन साधे हुए करतब दिखा रहा है। वह नट राहों का अन्वेषी नहीं है वह जन्म और मृत्यु के दो खंभो के बीच तनी हुई जीवन की रस्सी पर चलने वाला आध्यात्मिक नट ज्यादा लगता है। अज्ञेय ने उस नट की बाजीगरी, लाचारी संतुलन साधे रखने की कुशलता और भीड. जुटाये रखने की जादूगरी पर बडे सूक्ष्म और प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष व्यंग्य किये हैं। रचनाकार को भी उस नाच में शमिल समझा जा सकता है। क्योंकि अपने बहाने वह आलोचक को भी एक रास्ता तभी दिखा पा रहा है। नामवर जी को होना तो कवि ही था लेकिन उन्हे बहा्रराक्षस वाला शाप लग गया। मैं उन्हें शाप स्मरण कराते हुए शाप मुक्ति का एक खतरनाक नट मार्ग बता देता हूँ कि अगर उन्होने इस बीच या तब से लेकर अब तक कहीं कुछ काव्य पंक्तियां रची हों तो उन्हे अब सकारण प्रकाशित करा दें। पापमोचन के लिए यह आवश्यक है। इधर नामवर जी ने कहानी पर ‘लमही’ में एक लेख लिखा है (विलंब से) जिसे पता नहीं कहानीकारों ने समझा है या नहीं । यदि समझा हो तो कहानी एक नयी सांस लेगी। नयी सांस लेने की पूरी प्ररेणा है उस लेख में।

‘नाच’ कविता में कवि की भी वैसी झलक है जैसी नृत्यरत शिव की डमरू जब नृत्य के अंत में ’सम’ पर आता है तो उसमें पाणिनि, व्याकरण के चैदह सूत्रों का निनाद सुनते हैं। इसी तरह नाच कविता से अज्ञेय की भी कविता का एक और प्रारंभ होता है। वे अपनी कविता का व्याकरण बदलते हैं।

ओम निश्चल: प्रेम कविताएं आपने भी लिखी हैं पर उनका संदर्भ किसी अवधारणा की स्पष्ठता चाहता है। वहां प्रेम की नयी अवधारणाएं बनती दिखती है।

लीलाधर जगूड़ी: प्रेम भी हमारे यहां बेहद वांछित उपजाऊ और काफ़ी भ्रामक तत्व बना हुआ है कुछ लोग इसे प्रथमिक स्तर पर स्त्री पुरूष सबंधो के लिये इस्तेमाल करते हैं। कुछ लोग इसे इस अर्थ में भी इस्तेमाल करते हैं कि पुरूष कई स्त्रियों के साथ एक समय में एक ही जगह या अलग-अलग जगहों पर प्रेम करते रह सकते हैं। क्योंकि कुछ स्त्रियां भी ऐसा ही करना चाहती हैं। प्रेम विराट है लेकिन कुछ के लिए प्रेम क्षणे-क्षणे मैथुन है। कुछ लोग अपने द्वारा किये जाने वाले उत्पीड़न और अपने साथ किये जाने वाले प्रतिक्रिया स्वरूप अभद्र व्यवहार को भी प्रेम की मार की परिधि में रखते हैं। कुछ लोग प्रेम को शुद्धरूप से एक व्यक्तिगत जिम्मेदारी समझते हैं और वे उसे कभी कहीं बांटते हुए, कभी कहीं बटोरते हुए दिखते हैं। जितने प्रकार के लोग होते है असल में उतने प्रकार के और कभी-कभी अनसे भी ज्यादा प्रकार के प्रेम होते हैं। कुछ के लिए प्रेम आजादी है तो कुछ के लिए पे्रम जन्म-जन्मांतरों का बंधन है। पारिवारिक प्रेम और देश प्रेम ये सब, कुछ के लिए तुच्छ श्रेणी के प्रेम हैं? ईश्वर जैसा अमूर्त प्रेम कुछ के लिए श्रेष्ठ और स्मरणीय हैं। कुछ लोग प्रेम-प्रेम कहते हुए बहुत सी कटुता फैलाते रहते हैं। और उन्हीं के बरक्स कुछ लोग प्रेम के नाम पर निष्क्रियता और नाकारापन फैलाते रहते है। प्रेम एक सार्वभौम तत्व तभी है जब उसकी पालिटिक्स स्पष्ट हो। यहां न व्यक्ति का प्रेम स्पष्ट है न मंतव्य तो पिर प्रेम केवल स्त्री-पुरूष के बीच का मामला अथवा कभी-कभी केवल सैक्स संबंध बनकर रह जाता है।

पिर भी प्रेम का एक रूप और है वह है व्यक्ति की निजी चाह। यह निजी चाह वाला प्रेम कुछ ‘हॉबी’ नुमा दिखायी देता है। कामनाओं वाला प्रेम जीवन में उत्कृष्ट और निकृष्ट किस्म की कामायनी खड़ी कर देता है। कभी ऐसा भी होता है कि आजाद प्रेम व्यक्ति को गुलाम बना देता है। कभी ऐसा भी होता है कि प्रेम का गुलाम सारी गुलामियों का अंत करते हुए अपने लिए एक निश्चित मालिक को चुन लेता है। इसलिए संस्कृत में प्रेम से भी बड़ा एक शब्द प्रतिष्ठित किया गया था ‘सौहार्द’। यह सहृदयता से बना था। एक जैसा वैचारिक अनुबंध। इसलिए जीवन और सहित्य में पाठकों से ज्यादा ‘सौहृदों’ अथवा सुहृदों की जरूरत थी। वे ‘सुहृद’ आज कहां हैं?

ओम निश्चल: आप के कविता संसार का एक हिस्सा प्रेम कविताओं का भी है, पर उनमें वैसी मासूमियत नहीं है जैसी प्रेम कविताओं के प्रचलित विन्यास और संवेदना में पायी जाती है। मुझे अनायास- वह शतरूपा, अमृत, प्रेमांतरण, आषाढ़, न ययौ तस्थौ जैसी कविताएं याद आ रही हैं। आपने शुरूआत में गीत भी लिखे हैं लेकिन अलग तरह के। आपके गीतों की अलग चर्चा होनी चाहिए। प्रणय की वांछित अनिंद्य मुद्राएं भी आपने उकेरी हैं। एक कविता में आपने कहा कि ‘प्यार में प्रत्येक प्रश्न अनिवार्य है’ कुछ उत्तर मिले है आपको?

लीलाधर जगूड़ी: प्रश्न मेरे नहीं है उस व्यक्ति के हैं जो प्यार की उस परिस्थिति में है कि स्वयं उसका प्यार ही इस पंक्ति को कहता है। आपके जो भी कम्पल्शन हों, प्यार के प्रश्नो कें उत्तर देना कम्पलसरी है। प्यार भी प्रश्नज्ञान है। यहां यह निष्ठा और समर्पण की चीज नहीं है बल्कि मामला व्याहारिक स्पष्टता का है। प्रेम अधिक जिम्मेदारी का काम है प्रेम एक मनोनयन के साथ सार्वजनिक अर्हता की भी मांग करता है। प्रेम सिर्प एकांत का विषय नहीं बल्कि वह सार्वभौम उपस्थिति की भी मांग करता है। प्रेम अकेले होने से इन्कार करता है। प्रेम इस संसार का सुखद विस्तार है। इसलिए उसके प्रश्नों में ‘ताप और शाप’ दोनों होते हैं।

इन प्रेम कविताओं में रूमानियत का घोर अभाव है लेकिन भावनाओं के आवेग में यथार्थ से जबर्दस्त मुठभेड़ है। असल में प्रेम भी अब का्फ़ी विवेकी हो गया है। प्रेम भी नहीं चाहता कि व मजबूरी के डंडे से हांक जाये।

ओम निश्चल: श्रीलाल शुक्ल और कुंवर नारायण जैसे साहित्यकारों के करीबियों में आप माने जाते हैं। इनकी किन खूबियों को आप आज भी याद करते है।

लीलाधर जगूड़ी: पता नहीं वे मुझे अपने करीबियों में कितना मानते है ... फिर भी उनसे कई चीजें सीखने को मिली हैं। जैसे किसी को यह अहसास मत होने दो कि वह बहुत करीबी है। श्रीलाल जी से सीखा कि अपने दुःखों और गरीबी की नुमाइश न लगाओं। कुंवर जी से सीखा कि घर के हो तो बिना बोले बैठे रहने में जो आनंद है उसे बोलकर भंग क्यों किया जाय। जो लिखा जाय उसे तुरंत न छपाया जाय। लिखे हुए को कुछ दिन अपने साथ रहने का मौका दिया जाय जैसे एक दूसरे को सुधार रहे हों।

ओम निश्चल: अगला जीवन मिला तो क्या कवि जीवन ही चुनेंगे?
लीलाधर जगूड़ी: चुनने का मौका तो न इस जीवन में मिला था न अगले में मिलेगा। लेकिन अगर किसी हाइपोथीसिस के तहत यह मान लिया जाय कि अगले जन्म में चुनाव का मौका मिलेगा तो मैं जरूर उस समय का एक अच्छा कवि होना चाहूंगा। साथ ही अगले जन्म में अपनी इस जन्म में लिखी अपनी कविताओं की आलोचना से परिचित होना चाहूंगा। हो सकता है अपनी बेवकूफ़ियों के बारें में कुछ और भी लिखूं.

(समाप्त)


कवि और साक्षात्कारकर्ता से नीचे लिखे पतों या टेलीफ़ोन नम्बरों पर सम्पर्क किया जा सकता है:

लीलाधर जगूड़ी, सीता कुटी, सरस्वती इन्क्लेव, बदरीपुर रोड, जोगीवाला, देहरादून- 248005
फ़ोन-09411733588

डॉ. ओम निश्चल, जी -1/506 ए उत्तम नगर, नई दिल्लीः110059
फ़ोन-09955774115,

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