Wednesday, September 1, 2010

कृष्ण का बचपन देखकर लगता है कि अपना तो यूं ही गुज़र गया

परमप्रिय मित्र और शानदार कवि-पत्रकार सुन्दर चन्द ठाकुर की यह कविता उसके दूसरे संग्रह एक दुनिया है असंख्य से ली गई है और ख़ास आज के ही दिन लगाने के वास्ते बचा रखी थी.



कृष्ण और मैं

कृष्ण का बचपन देखकर लगता है कि अपना तो यूं ही गुज़र गया
कुछ भोलेपन कुछ निरीहता में
शैतानियां मैंने भी कम नहीं कीं
घरवालों से छुपकर नदी में तैरने जाता रहा
मां को एक दिन जब मालूम चला
लाल कर डाले उसने मेरे पैर बिच्छू घास से
फिर वह ख़ुद भी लगी रोने
वह जानती थी कि हर साल नदी किसी - न - किसी को लील जाती है
पता नहीं उसने मुझपर ग़ुस्सा निकाला या नदी पर

बचपन में ग़फ़लत में रहा कि मैं इन्सान नहीं भगवान हूं
अपने इस यक़ीन को परखने के वास्ते
मैंने कंचों का निशाना लगाने का खेल कई बार खेला
मन ही मन हर बार यही सर्त लगाकर कि अगर सारे निशाने सही लगे
तो निर्विवाद मैं अपनी नज़र में हूंगा भगवान
मैंने अपनी इसी ख़ब्त में कई दुपहरें बरबाद कर डालीं

मगर असल जीवन में मेरे कृष्ण जैसा ऐश्वर्य नहीं, बहुत थीं दुश्वारियां
बचपन में दही-दूध को मेरा भी जी ललचाता था
मगर दिल्ली की तंग गलियों में जहां
इमली तोड़ते और गन्ने चुराते बचपन के कई बरस
जब पिताजी फ़ौज में सिपाही थे
और मां गांव छोड़कर देश की राजधानी में आई
सहमी और उतनी ही विस्मित एक मृगनयनी
उन दिनों मैं नुक्कड़ की हलवाई की दुकान से महीने में एकाध बार
अपनी फटी नेकर में थिरकता-नाचता हुआ लाने जाता था दही
रसमलाई तो चखी मैंने कई सालों बाद
नौकरी से मिलने वाली तनख़्वाह का भी जब सुरूर ख़त्म हो चुका था

कृष्ण की तरह मैं भी गया गायों के संग बनकर ग्वालबाल
यह उन दिनों की बात है जब मूंछों की झांइयां दिखना शुरू ही हुई थीं
पिता ने मानसिक सन्तुलन खो जब छोड़ दी थी नौकरी
और मां को चूल्हे की लकड़ियों के लिए जंगल में भटकना पड़ता था
उसने तब बेचकर अपने सारे गहने ख़रीद ली थी दो गायें
मगर उनके लिये घास ख़रीदने की हमारी कूव्वत न थी
सो स्कूल से लौट रोज़ ले जाता मैं उन्हें एक हरे पहाड़ पर
लेकिन मेरे पास कोई बांसुरी न थी न उसे बजाने का हुनर
कि उसकी तान सुनकर चली आतीं मेरे पास ग्वालबालाएं
अलबत्ता मेरे साथ पड़ोस में रहने वालि एक हम म्र लड़की ज़रूर होती थी
काम के बोझ से इस क़दर टूटी हुई
कि पेड़ की छांह में हवा के पहले ही झोंके में ग़श खाकर सो जाती थी

यानी लगभग वैसे ही बचपन और किशोर वय से गुज़रते हुए भी
कन्हैया के जीवन जैसा न बन पाया मेरा जीवन
जवानी की तो बात ही क्या की जाए
क्योंकि वहां कृष्ण की हज़ारों रानियों का एक ऐसा वृत्तान्त है
जो उस युग में भी असम्भव प्रतीत होता है, इस युग की क्या बात
और अभी तो बाक़ी है महाभारत की पूरी कथा
जिसमें कृष्ण अर्जुन को दिखाते हैं अपना विश्वरूप
एक गीता का मसौदा तैयार होता है
ये बात दीगर है कि इन दिनों महानगर ही क्या
छोटे क़स्बों, गांवों या कहीं भी आप रहें, जीवन महाभारत से कम नहीं.

(फ़ोटो http://www.travelblog.org से साभार)

14 comments:

आपका अख्तर खान अकेला said...

jnaab hr bchche men bhgvaan bta he yeh apnon pr he ke chaaho to bhgvan bn jaao chahe insan or chaho to shetan bn jaao . rhaa svaal krishn bhgvaan ka to uni hr setaani hr adaa men aek sikh thi or hnste khelte chlte firte unhone logon ko khaskr bchchon ko jivnt sndesh diyen hen jinse hmaari doktr or injiniyron ki fektri ne unhen kaafi dur kr diya he or dharmik shiksha smaapt ho gyi he sirf murti mndir men sjaane ya foto lgane se zyaada unhen ab koi kuch shiksha nhin deta he jo is desh or is desh ki surkshaa snrkshn bhvishy ke liyen khtrnaak he. akhtar khan akela kota rajsthan

ओशो रजनीश said...

श्री कृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक बधाई ।

बहुत ही अच्छी पोस्ट ....शब्दों के यथार्थ प्रस्तुत किया है आपने ....

कृपया एक बार पढ़कर टिपण्णी अवश्य दे
(आकाश से उत्पन्न किया जा सकता है गेहू ?!!)
http://oshotheone.blogspot.com/

प्रीतीश बारहठ said...

सुन्दर !!
ये पछतावा हमको भी है, दूध-मलाई और बालाओं का नहीं, बहुत पीटे जाने और नोटिस नहीं किये जाने का।

राजेश उत्‍साही said...

भारत के आम आदमी के महाभारत का जीवंत चित्रण है।

प्रवीण पाण्डेय said...

सच है, अपना तो यूँ ही गुज़र गया।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

"कर्मण्ये वाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन्!"
--
योगीराज श्री कृष्ण जी के जन्म दिवस की बहुत-बहुत बधाई!

मुनीश ( munish ) said...

उस बचपन में पूतना, अघासुर,बकासुर, केशी,कंस, मुष्टिक, चाणूर जैसे राक्षस और खुद विलेन के पार्ट पे आमादा इन्द्र व ब्रह्मा भी तो थे :), बहरहाल हाथी -घोड़े पालकी ,जय कन्हैया लाल की ! सुन्दर विचार .

वीरेन डंगवाल said...

bahut marmik darawani udas aur darane wali kavita hai sunder!ati sunder.

अमिताभ श्रीवास्तव said...

कृष्ण और मैं।
कविता के लिहाज़ से ठीक है किंतु इसमे वो बात नहीं जो मर्म को छू सके।

Sunder Chand Thakur said...

viren da...kavita me nostalgia ghus gaya thoda..par jo bhi ho Ashok Lalla ne photu behad jaandaar lagaya hai...sachmuch bachpan yaad aa gaya...hamari gai ka rang bhi aisa hi tha...

Unknown said...

bahut khoob, bhai saheb...baal-baal bache krishan banne se!

शैलेन्द्र नेगी said...

शैतानियां मैंने भी कम नहीं कीं
घरवालों से छुपकर नदी में तैरने जाता रहा
मां को एक दिन जब मालूम चला
लाल कर डाले उसने मेरे पैर बिच्छू घास से.....वाह सुंदर पंक्तिया..पढ़ कर अपना बचपन याद आ गया क्योंकि पहाड़ की हर मां शैतानी करने पर बिच्छु घास ही लगाती है

प्रतुल वशिष्ठ said...

आपकी रचना अच्छी लगी.

Shah Nawaz said...

श्री कृष्ण जन्माष्ठमी की बहुत-बहुत बधाई, ढेरों शुभकामनाएं!