Thursday, September 9, 2010

यानी है मांझा खूब मंझा उनकी डोर का

‘कनकौए और पतंग’ शीर्षक अपनी एक रचना में नज़ीर अक़बराबादी साहेब ने पतंगबाज़ी को लेकर लिखा था:

गर पेच पड़ गए तो यह कहते हैं देखियो
रह रह इसी तरह से न अब दीजै ढील को
“पहले तो यूं कदम के तईं ओ मियां रखो”
फिर एक रगड़ा दे के अभी इसको काट दो।

हैगा इसी में फ़तह का पाना पतंग का।।

और जो किसी से अपनी तुक्कल को लें बचा
यानी है मांझा खूब मंझा उनकी डोर का
करता है वाह वाह कोई शोर गुल मचा
कोई पुकारता है कि ए जां कहूं मैं क्या

अच्छा है तुमको याद बचाना पतंग का …


पतंगबाज़ी दुनिया भर में अलग अलग तरीकों से की जाती रही है और इसका एक ख़ासा लम्बा इतिहास भी रहा है.

वह दिन दूर नहीं जब कम्प्यूटर और मोबाइल फ़ोनों से अभिशप्त हो चुके शहरी-क़स्बाई बचपन से पतंगबाज़ी पूरी तरह से ग़ायब हो चुकी होगी. और आश्चर्य मत कीजिएगा कि आने वाले किसी दिन आपको "सेव आ’र काइट्स" नाम के किसी टीवी अभियान का विज्ञापन करता नकली लम्बू बघीरा नज़र आ गया (अल्लाहताला उसकी नकली आवाज़ को लम्बी उम्र बख़्शें लेकिन तब तक वह ज़िन्दा बचा रहा तो).

शुक्र है भारत अभी वैसा नहीं बना है जैसा अतिविज्ञापित किया जाने का सिलसिला चल निकला है मीडियाग्रस्त सनसनीपसन्द शहरी समाज में. पतंगें अब भी ख़ूब बनती हैं. पतंगबाज़ियां अब भी ख़ूब होती हैं. बाक़ायदा शर्तें लगा करती हैं. कटी हुई पतंगों के पीछे भागते बच्चों के हुजूम अब भी कम नहीं हुए हैं अलबत्ता वे इस क़दर हाशिये में फेंके जा चुके हैं कि अब शहरी और सम्भ्रान्त बन चुके या बनने को आतुर अति-मध्यवर्ग के बड़े-बुज़ुर्गों तक को उस की याद शायद ही कभी रक्षाबन्धन के दिन आ जाती हो (अगर आती हो तो).

नज़ीर की ऊपर लिखी पंक्तियों में इस वाली पर ग़ौर फ़रमाइये:

यानी है मांझा खूब मंझा उनकी डोर का

पतंगबाज़ी में अपने बचपन के सुनहरे दिन काट चुकों को मांझे का महात्म्य पता ही होगा. जिसका मांझा जितना कर्रा उतना बड़ा वो ख़लीफ़ा.

मांझा अब भी बनता है. बाक़ायदा. और खूब बनता बिकता है. बरेली में रहने वाले रोहित उमराव ने आपको कुछ दिन पहले सारस के एक जोड़े के दुर्लभ चित्रों से परिचित करवाया था. इस दफ़ा वे ले कर आ रहे हैं आपके वास्ते मांझे की कहानी - बरेली के बाकरगंज का मांझा आज भी हमारे इलाक़े में बेजोड़ माना जाता है. अब देखिये शुरू से कि कैसे बनता है मांझा. यह सीरीज़ कुछेक दिन खिंच जाए, सम्भव है.

इन तस्वीरों में बाज़ार से ख़रीदे गए कांच को पहले तोड़ा और कूटा जा रहा है. बाद में चक्की पर उसका पाउडर तैयार किया जा रहा है.











(जारी)

9 comments:

पश्यंती शुक्ला. said...

परिवर्तन नियम है...इसे स्वीकारनें में कोई बुराई नहीं

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

नज़ीर अकबराबादी ने आम आदमी के जीवन को लेकर ही लिखा था। कहते है कि कोई नारंगी या खोमचा बेचने वाले के लिए भी फ़िक़रे लिख कर देते थे ॥

विजय गौड़ said...

कटी हुई पतंग के पीछे भागते हुए दांये पांव के घुटने पर लगा निशान तौ जिन्दगी भर का साथ है अपने। सुंदर पोस्ट है भाई। बधाई।

डॉ .अनुराग said...

bookmark this post.....wow......

sanjay vyas said...

अपना बचपन आखा तीज पर पतंग बाज़ी की यादें लिए है. वैसे जयपुर में मकर संक्रांति को पतंगे लड़ाने का रिवाज़ है.कबाडी भाषा में - बोफ्फाइन पोस्ट.

प्रवीण पाण्डेय said...

हम भी बचपन में मंझा बनाने का प्रयास किये हैं।

अजेय said...

तस्वीरें बहुत पसन्द आईं. समझ मे आया कुछ उत्पादन की बात हो रही है. भीतर कुछ पिघल गया.

काम की जगह
सब कचरा बिखरा
बस काम चमक रहा
आग सा!

दीपशिखा वर्मा / DEEPSHIKHA VERMA said...

वाह, खूब मिलवाया आज मांझे से ! पता नहीं था इस तरह बनता है मांझा ..साहित्य और जानकारी दोनों साथ मिले तो अलग रंग बनता है :)

Unknown said...

Nice capturing Rohit Bhaisaheb....