Friday, September 3, 2010

उस चश्मे में दिखते हैं नाना, सज्जाद ज़हीर, फ़िराक़ गोरखपुरी, मजाज़, गोर्की, तोलस्तोय, राहुल सांकृत्यायन

कल आपने फ़रीद खां की कविता पढ़ी थी गंगा मस्जिद. आज पढ़िये उनकी एक और ज़बरदस्त कविता:

नानी का चश्मा

आसमान में टिम टिमाती नानी हँसती होंगी हमारे बचपने पर।
हाँ।
नानी का चश्मा मुझे किसी दूरबीन की तरह ही अजूबा लगता था।
मैं अक्सर उससे पढ़ने की कोशिश करता।
पर उसे लगाते ही आँखें चौन्धिया जातीं थीं।
शब्द चढ़ आते थे और आँखों की कोर से फिसल जाते थे।
तस्वीरें बोलती नहीं, दहाड़ती थीं।
आँखों पर ज़ोर पड़ता था, और मैं जल्दी से उतार कर रख देता।

आज मुझे समझ में आता है कि हमारा आकर्षण असल में चश्मा नहीं था।
उनके उस रूप में था, जो चश्मा लगाने के बाद बदल जाता था।
चश्मा लगा कर, नानी अपना शरीर छोड़ कर किसी लम्बी यात्रा पर निकल गईं दीखती थीं।

यही था हमारा वास्तविक आकर्षण।
अपने ममेरे भाई के साथ उन दिनों चश्मे का रहस्य पता करने में जुटा था।
मेरा भाई कहता था कि इसमें कहानियाँ दीखती हैं।
इसीलिए तो दादी घंटों चश्मा लगाए रखती हैं।
अख़बार और किताब तो बहाना है।

चश्मा छूने और देखने के हमारे उतावलेपन से उनका ध्यान भंग होता,
और वे चश्मे के भीतर से ही हमें देखतीं बाघ की तरह। धीर गंभीर और गहरी।
क्या वे हमें बाघ का बच्चा समझती थीं ?

एक बार टूट गया उनका चश्मा और हमने दौड़ कर उसका शीशा उठा लिया।
यह सोच कर कि शायद हमें दिख जाए कोई कहानी बाहर आते हुए।

मैं ही गया था चश्मा बनवाने।
मैंने चश्मे वाले से पूछा
कि नानी के चश्मे से हमें क्यों नहीं दीखता कुछ भी साफ़ साफ़।
चश्मे वाले ने कहा,
“हर किसी का अपना चश्मा होता है। उसकी अपनी आँख के हिसाब से।
नानी की एक उम्र है, इसीलिए इतना मोटा चश्मा लगाती हैं।
तुम अभी बच्चे हो तुम्हारा चश्मा इतना मोटा नहीं होगा”।

हम दोनों भाई सोचते थे कि कब वह दिन आयेगा, जब हम भी लगायेंगे एक मोटा सा चश्मा।

अब, इस उम्र में, नानी के देहावसान के बाद,
उस चश्मे में दिखते हैं नाना,
सज्जाद ज़हीर, फ़िराक़ गोरखपुरी, मजाज़।
गोर्की, तोलस्तोय, राहुल सांकृत्यायन।
आज़ादी की लड़ाई, मज़दूर यूनियन, इमर्जेंसी का दमन, रोटी का संघर्ष।
फ़ौज का उतरना।
रात भर शहीदों के फ़ातिहे पढ़ना।
कमरे तक घुस आए कोहरे में भी खाँस खाँस कर रास्ता बनाता एक बुद्ध।
अपने शावकों के साथ दूर क्षितिज को देखती एक बाघन अशोक राजपथ पर।

और कितने तूफ़ान !!!
कितने तूफ़ान जिसे रोक रखा था नानी ने हम तक पहुँचने से

6 comments:

vandana gupta said...

बेहतरीन, लाजवाब, शानदार ………………आभार्।

प्रवीण पाण्डेय said...

बहुत ही सुन्दर।

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

काश ! वह चश्मा मिल जाए :)

hillwani said...

इसमें कहानियां दिखती हैं. सावित्री राजीवन की चश्मा कविता पढ़ी थी, क़रीब दस साल हुए. गिरधर राठी के संपादन में शब्द सेतु में उनकी इस कविता का हिंदी अनुवाद छपा था. फ़रीद ख़ान ने अपनी कविता के चश्मे से ठीक वही जादू पैदा करने की कोशिश की है जिसके लिए मार्केज़ विश्वविख्यात हैं और अकेले हैं. उनसे पहले सिर्फ़ बुल्गाकोव हैं.
अशोकजी कितनी बड़ी तसल्ली और खु़शी की बात है कि फ़रीद ख़ान कबाड़ख़ाना में प्रकट हुए हैं. और ये कविताएं ऐसे समय में आई हैं जब स्टीफ़न हॉकिंग ने और पुख़्ता कह दिया है कि भाई ब्रह्मांड ईश्वर ने तो कतई नहीं बनाया. कितना संतोष है. और कितनी जिजीविषा. उदास व्यक्ति के लिए कैसी कंपकंपाती हिम्मत का सामान.

शिव

पारुल "पुखराज" said...

दोनों ही कविताएँ बेहद सुरीली

PD said...

वाह.. इतनी रात गए इसे पढने का एक अलग ही आनंद है..