Thursday, September 2, 2010
आज अट्ठारह साल बाद, मैं फिर खड़ा हूँ उसी मीनार पर।
मुझे भाई फ़रीद खां के बारे में ज़्यादा क्या कुछ नहीं पता. अभी कुछ देर पहले फ़ेसबुक पर लखनऊ वाले नवीन दा से बात हो रही थी. उन्होंने इस कविता का लिंक दिया.
तुरन्त फ़ेसबुक पर ही फ़रीद खां साहेब को सम्पर्क किया, इस कविता को छापने की इजाज़त मांगी जो उन्होंने बड़ी सहृदयता के साथ तुरन्त दे दी. भले काम में देर नहीं करनी चाहिये. सो पेश है यह कविता जो नोस्टैल्जिया, समाज, मन, समय, बदलाव, व्यक्ति वग़ैरह कितने कितने आयामों को बड़ी सादगी से छू जाती है. इसे पहली बार पढ़ते हुए मुझे राही मासूम रज़ा की कविता "गंगा और महादेव" याद आती रही.
भाई फ़रीद खां का धन्यवाद. पेश है एक सुन्दर कविता:
गंगा मस्जिद
यह बचपन की बात है, पटना की।
गंगा किनारे वाली ‘गंगा मस्जिद’ की मीनार पर,
खड़े होकर घंटों गंगा को देखा करता था।
गंगा छेड़ते हुए मस्जिद को लात मारती,
कहती, “अबे मुसलमान, कभी मेरे पानी से नहा भी लिया कर”।
और कह कर बहुत तेज़ भागती दूसरी ओर हँसती हँसती।
मस्जिद भी उसे दूसरी छोर तक रगेदती हँसती हँसती।
परिन्दे ख़ूब कलरव करते।
इस हड़बोम में मुअज़्ज़िन की दोपहर की नीन्द टूटती,
और झट से मस्जिद किनारे आ लगती।
गंगा सट से बंगाल की ओर बढ़ जाती।
परिन्दे मुअज़्ज़िन पर मुँह दाब के हँसने लगते।
मीनार से बाल्टी लटका,
मुअज़्ज़िन खींचता रस्सी से गंगा जल।
वुज़ू करता।
आज़ान देता।
लोग भी आते,
खींचते गंगा जल,
वुज़ू करते, नमाज़ पढ़ते,
और चले जाते।
आज अट्ठारह साल बाद,
मैं फिर खड़ा हूँ उसी मीनार पर।
गंगा सहला रही है मस्जिद को आहिस्ते आहिस्ते।
सरकार ने अब वुज़ू के लिए
साफ़ पानी की सप्लाई करवा दी है।
मुअज़्ज़िन की दोपहर,
अब करवटों में गुज़रती है।
गंगा चूम चूम कर भीगो रही है मस्जिद को,
मस्जिद मुँह मोड़े चुपचाप खड़ी है।
गंगा मुझे देखती है,
और मैं गंगा को।
मस्जिद किसी और तरफ़ देख रही है।
06/12/2010
(मुअज़्ज़िन - आज़ान देने वाला)
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फ़रीद खां
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15 comments:
किसी और ही तरफ......
वाह फरीद !
हाय ....बड़ी बेलौस सी कविता है ...जैसे नज़्म की मिलावट हो इसमें .....पढ़कर गुलज़ार की एक नज़्म याद आ गयी .जिसमे कुछ यूँ कहते है वो.....
कोढ़ की मारी हुई बुढ़िया है इक गिरजे के बाहर
भीख का प्याला सजाए हुए, गल्ले की तरह,
माँगती रहती है ख़ैरात 'खुदा नाम' पे सब से।
जब दुआ होती है गिरजे में तो बाहर आकर
बैठ जाता है खुदा गल्ले पे, ये कहते हुए
आज कल मंदा है, इस नाम की बिक्री कम है।
सचमुच !
गंगा और मस्जिद के बीच में भी कुछ लोग खड़े हैं
गज़ब का चिन्तन्………………बेहतरीन रचना पढवाने के लिये आभार्।
behatrin.
मैंने भी कल फेसबुक पर ही फरीद जी की यह कविता पढ़ी आपके ही लिंक के ज़रिए। बहुत बढ़िया कविता। इनकी कुछ और कविताएं भी फेसबुक पर ही पहले पढ़ चुकी हूं जो अद्भुत है।
गज़ब की रचना है। हम भी गंगा किनारे खड़े हो बहुत गाये हैं गंगा बहती है क्यों।
Farid ki ek aur sunder kavita hai-naani ke liye, sachmuch bahut sunder kavita. Ashok bhai use bhee Kabaadkhaana ke pathakon ko zaroor padhaein.
yaad ke saath
आदरणीय नवीन जी और अशोक जी का आभार। मेरी हौसला अफ़ज़ाई के लिए आप सभी सुधी जनों का बहुत बहुत धन्यवाद।
बहुत अच्छी कविता…देर से आने की माफ़ी
इस दौर की बेहतरीन कविता.... गंगा सब की है..शाश्वत है.. मस्जिद और मन्दिर तो हम बनाते है...इतनी अच्छी कविता सिर्फ फरीद खान लिखते हैं ..बधाई...नानी के लिए कब पढवा रहे हैं ?
Farid bhai.. Rauntay khade ho gaye.
SubhaanAllah :)
Farid bhai. Rauntay khaday ho gaye.. behtareen. SubhanAllah :)
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