Friday, October 8, 2010

लालटेन की तरह जलना

कबाड़ख़ाने के लिये यह एक्सक्लूसिव आलेख ताज़ातरीन कबाड़ी जनाब शिवप्रसाद जोशी ने लिख कर भेजा है. असद ज़ैदी के सम्पादन में निकले ’जलसा’ के पहले अंक में वरिष्ठ कवि मंगलेश डबराल के काव्यकर्म को लेकर छपी कृष्ण कल्पित की लंबी टिप्पणी पर आधारित इस ज़रूरी आलेख के लिए शिवप्रसाद जोशी का धन्यवाद.

संदर्भः मंगलेश डबराल की कविता और जीवन पर कृष्ण कल्पित

- शिवप्रसाद जोशी

महत्त्वपूर्ण रचनाकार पर लिखने का आखिर क्या तरीक़ा हो. वे औजार कौन से होंगे जिनसे एक रचनाकर्मी के व्यक्तित्व और कृतित्व की घुली मिली छानबीन की जा सके और उसमें ऐसी पारदर्शिता हो कि व्यक्तित्व अलग चमकता दिखे और कृतित्व की रोशनियां अलग झिलमिलाती रहें. इस तरह का गुंथा हुआ विश्लेषण जिसमें आकलनकर्ता की अपनी नज़दीकियां भी शामिल हो जाएं तो क्या कहने.



जलसा पत्रिका के पहले अंक में हिंदी कवि मंगलेश डबराल पर कृष्ण कल्पित की लंबी टिप्पणी इन संभावनाओं का परीक्षण करती है. कवि लेखक के बारे में लिखते हुए जो रुटीनी रवैया है वो उसकी कृतियों और रचनाओं को एक पांडित्यपूर्ण अंदाज़ में जांचने से शुरू होती है और कुछ भारी भरकम तुलनात्मक अध्ययनों के साथ पूरी हो जाती है. कृष्ण कल्पित ने आलोचना के क़िले में सेंध लगाई है. फिर किले की दीवारें खुरची हैं फिर ज़रा तोड़फोड़ मचाई है. लेखक के अध्ययन के उनके औजार ज़रा अटपटे और अभूतपूर्व हैं. आलोचना वहां सजी संवरी बनी ठनी नहीं है और कुछ भी सुनियोजित नहीं है. लेखक का जैसा जीवन वैसा उसका चित्रण.



आपको ध्यान होगा कुछ साल पहले कोलंबिया के महान उपन्यासकार ग्राबिएल गार्सिया मार्केज़ ने वहीं की पॉप स्टार शकीरा पर एक अद्भुत लेख गार्जियन के लिए लिखा था. हिंदी की दुनिया में इसका अनुवाद युवा कवि अनुवादक और कबाड़ख़ाना ब्लॉग के निर्माता अशोक पांडे ने पेश किया था. कल्पित ने लिखा है कि मंगलेश की कविता को समझने और उसकी तुलना के लिए विद्वान लोग लातिन कविता तक चले जाते हैं और कुछ कंकाल हड्डियां वहां ढूंढते हैं. लेकिन कृष्ण कल्पित के मंगलेश डबराल पर लिखे आलेख में मार्केज़ के जादू की कुछ छवियां दिख जाएं तो हैरानी की बात नहीं.

एक अनुशासन बरतना अलग बात है और खुद को वर्जनाओं से मुक्त कर लिखना दूसरी बात. ये दोनों साधने पड़ते हैं. शकीरा पर मार्केज़ के विवरण बहाव भरे रोमानी और शकीरा के व्यक्तित्व को बारीकी से समझने में मदद करने वाले हैं.
वहां एक बड़ा लेखक एक प्रसिद्ध पॉप स्टार पर लिख रहा है. यहां एक वरिष्ठ कवि के रचना जीवन के किनारे किनारे चल रहा बनता हुआ कवि है, उसे टुकुरटुकुर सावधानी से नोट करता हुआ. उसे कवि पर भी नज़र रखनी है और अपने रास्ते पर भी. वरना वो लड़खड़ा कर गिर सकता है.

कृष्ण कल्पित ने बड़ी ख़ूबी से ये संतुलन साधा है. वे खुद तो दौड़ते भागते चपल फ़ुर्तीले रहे हैं और उनके लेख में आए विवरणों में भी वही ऊर्जा और प्रवाह है और ऐसी रोमानी गतिशीलता है जैसे आप कोई संस्मरण या कोई आलोचनापरक लेख नहीं बल्कि किसी उपन्यास का एक प्रमुख अंश पढ़ रहे हैं. और काश कि वो ख़त्म न होता.

यहां कुछ ग्लानि है कुछ धिक्कार हैं कुछ याचना और कुछ लोभ हैं. उसमें सुंदर सजीले वाक्य और घटनाएं नहीं है. वो
बहुत ठेठ है एकदम सीधी बात. वहां तुलनाएं भी जैसे दबी छिपी नहीं रहतीं. कृष्ण कल्पित मंगलेश को रघुबीर सहाय के समांतर परखते हैं, श्रीकांत वर्मा के बरक्स, मुक्तिबोध, शमशेर के बरक्स. और भी कई कवि कल्पित के लेखन की कसौटी में मंगलेश के साथ परखे जाते हैं. फिर कल्पित अपन निर्णय करते हैं.

मज़े की बात है कि अपने निर्णयों और अपनी स्थापनाओं में कल्पित इतने विश्वस्त और मज़बूत हैं कि आप उनसे असहमत होने के लिए अगर किसी तर्क का सहारा लेंगे तो वो शायद कमतर ही ठहरेगा. ऐसा प्रामाणिक आकलन है ये. क्योंकि कृष्ण कल्पित ने लेखन और विचार की ऐसी प्रामाणिकता विकसित की है कि कोई गुंजायश ही नहीं छोड़ी है. वो कवि की कवि के साथ कोई संगत बैठा रहे होते हैं लेकिन इससे पहले वो कवि के जीवन की एक घटना का ब्यौरा ले आते हैं. फिर उस संगत को दोबारा देखते हैं. इस तरह मंगलेश डबराल एक एक कर अपने अग्रजों और अपने समकालीनों से अलग जा खड़े होते हैं.

कृष्ण कल्पित का ये टच एंड गो बड़े काम का है. आप घटना के आगे मूल्यांकन फिर मूल्यांकन के आगे घटना रखते जाते हैं और ऐसे दिलचस्प हतप्रभ करने वाले नतीजे निकलते रहते हैं कि आपको हैरानी होती है कि अरे इस कवि को भला इस ढंग से पहले क्यों नहीं देखा गया.

लेकिन ये निर्विवाद रूप से स्पष्ट है कि ऐसा लिखने के लिए कवि से आत्मीयता का कोई पड़ाव लेखक के पास हो. कृष्ण कल्पित के पास मंगलेश डबराल के बारे में लिखने की विश्वस्त सूचनाएं हैं. इसलिए भी उनके काम में चमक है. इसी से जुड़ा सवाल ये है कि क्या ऐसा लिखना के लिए इन्हीं शर्तों पर खरा उतरना ज़रूरी है.

क्या कृष्ण कल्पित मिसाल के लिए मार्केज़ पर लिखेंगे तो वो ऐसा जीवंत आलेख नहीं होगा. ऐसा मानने की वजह इसलिए नहीं दिखती क्योंकि कृष्ण कल्पित भले ही मंगलेश को नज़दीक से जानते देखते रहे होंगे लेकिन उस देखे जाने को इस तरह अभिव्यक्त करने के लिए पैनी लेखन निगाह भी चाहिए. न सिर्फ़ पैनी, वो गहरी, संवेदनापूर्ण, विस्तारयुक्त खुली और शोधयुक्त भी होगी.

कृष्ण कल्पित का लेखन हिंदी गद्य में लालटेन की ठीक वैसी ही उपस्थिति के साथ प्रकट हुई है जैसा कि ख़ुद कल्पित ने अपने लेख में मंगलेश डबराल की कविता पहाड़ पर लालटेन के संदर्भ में एक जगह लिखा है.

मज़े की बात ये है कि ये लालटेन वहीं थी. हिंदी रचना संसार के बीहड़ों और घुमावदार चढ़ाइयों में जिन्हें गढ़वाल में उकाल कहा जाता है. उन उकालों की नोक पर ये लालटेन जलती रहती आई थी. हमेशा दीप्त. अपना ईंधन जुटाती हुई चुपचाप. उसका कांच नहीं चटखा. वो काला नहीं पड़ा बत्ती भस्म नहीं हुई और तेल भरा रहा. लौ कांपती डगमगाती रही और हिंदी में ऐसी लौ का क्या दिखना क्या न दिखना.

संस्मरणों का जो पुरानापन कृष्ण कल्पित लेकर आए हैं उनकी भाषा में और उनकी स्मृतियों और उनके नटखट अंदाज़ों में जो
कांपता लहराता आवेग है चंचलता है और ख़ुशी और मुश्किलें हैं वो उनके लेखन की लौ की तरह हैं.

वो मुश्किल वक़्तों में कवि बन रहे थे. लेखन और समझ की दीक्षा लेने की ज़िद में भटक रहे थे और ये इस संस्मरण की ख़ूबी है कि इसमें वो सरलता ईमानदारी और बेलागपन छूटा नहीं है. कृष्ण कल्पित ने मनमौजी तबीयत के साथ इसे लिखा है ऐसा जान पड़ता है लेकिन जैसा कि शुरू में कहा जा चुका है इसमें एक लालटेन की कांपती हुई लौ का धैर्य और हिम्मत और कष्ट भी हैं. इसमें वो रोशनी है और रिसता हुआ ख़ून भी है जो संस्मरण के चुटीले प्रसंगो से होता हुआ सफ़दर हाशमी की हत्या तक भी आता गुज़रता रहा है. ऐसा लेखन करने के लिए कृष्ण कल्पित को मुहावरे में ही कहें तो ख़ून की कीमत चुकानी पड़ी होगी.

वैसी सच्चाई और वैसा दृश्य और वैसी बेचैनियां अन्यथा नहीं आते. नहीं आ सकते.

अगर मार्केज़ के लेखन में अमरूदों की गंध है और मंगलेश के लेखन में सिगरेट की गंध बसी है तो कृष्ण कल्पित के मंगलेश संस्मरण में मिली जुली गंध हैं. सिगरेट अमरूद शराब पसीना अचार खिचड़ी की गंध.

कृष्ण कल्पित के इस लेख की ख़ूबी ये है कि इसी के भीतर वे भागते दौड़ते सांस फुलाते दम साधते रहते हैं वहीं उनका चश्मा गिर जाता है वहीं वो उसे उठाए फिर से भागने लगते हैं देखते रहते हैं देखते रहते हैं. ये एक विलक्षण करामात है कि एक कवि के सान्निध्य में कोई व्यक्ति उसे ऐसी बारीक़ी से नोट कर रहा है जो उसे नहीं मालूम की अगली सदी के एक दशक के आखिरी दिनों में एक किताब दिल्ली के पास एक कोने से निकलने वाली है और उसमें वो स्मृतियां जाने वाली हैं और हिंदी की दुनिया में लेखन की दुनिया में और लेखकों की दुनिया में एक ऐसी निराली खलबली आने वाली है जिसमें सब गोल गोल घूम रहे हैं और बस मज़ा आ रहा है. मज़ा भी कैसा विडंबना वाला है. एक साथ हंसिए एक साथ रोइए. चार्ली चैप्लिन की फ़िल्मों जैसा अनुभव. ये कल्पित की क़ामयाबी है. उन्होंने लगता है चैप्लिन के सिनेमाई मुहावरे को अपना एक प्रमुख औजार बनाया होगा इस संस्मरण पर काम शुरू करने से पहले.

कृष्ण कल्पित ने मंगलेश पर लिखते हुए अपने बनने के सवाल पर भी लिखा है. संगतकार तो वो रहे ही लेकिन संगतों की ऐसी असाधारण स्मृतियों का इस अंदाज़ में पुनर्प्रस्तुतिकरण तो विकट है. इस धैर्य के लिए इस श्रम के लिए इस निगाह के लिए तो कृष्ण कल्पित का भी अध्ययन होना चाहिए.

हिंदी में विवादप्रियता के माहौल के बीच क्या ये जोखिम नहीं है कि कृष्ण कल्पित ने इसी राइटिंग का सहारा लिया है और समकालीन हिंदी के संभवतः सबसे महत्वपूर्ण कवि और हिंदी कविता की अंतरराष्ट्रीयता की शिखर पहचान वाले व्यक्तित्व पर लिख डाला है.

और विश्लेषण. कृष्ण कल्पित ने बेबाकी से बताया है कि मंगलेश डबराल की कविता में आख़िर ऐसी कौनसी चीज़ है जो उन्हें सबसे अलग करती है. अपने समकालीनों से भी अपने अग्रजों से भी और दुनिया के राइटरों से भी. उनके लेखन का ऐसा महत्त्व पहली बार बताया गया है और उसमें पूजा पाठ और यज्ञ अनुष्ठानी भाव नहीं है.

इस संस्मरण को एक ढोल की तरह देखें और उन नौबतों को देखें जो कृष्ण कल्पित ने अपनी स्मृतियों से रची हैं और फिर इस ढोल का बजना देखे. क्या किसी संस्मरण की किसी स्मृति की ऐसी गूंज आपने सुनी है.

कृष्ण कल्पित ने एक नई विधा इजाद कर दी है. अब इसे तोड़कर ही आगे बढ़ा जा सकता है. यानी इतनी तोड़फोड़ के बाद कृष्ण कल्पित ने नया यूं तो कुछ नहीं छोड़ा है लेकिन कौन जानता है आने वाले वक़्तों में कोई और किसी और नायाब तरीके से टूटे और चमके. ब्रह्मांड तो ये लगातार फैलता ही जाता है और कभी पकड़ में नहीं आता है.

3 comments:

सागर said...

कल्पित सर के कहने का तरीका वाकई अलहदा है, वे अपने निजी जीवन में भी बहुत अववस्थित हैं जो उन्हें आकर्षक बनता है... चेहरा हर वक़्त गुस्से से लाल तमतमाया हुआ लगता है जबकि वे कतई गुस्सा नहीं होते... मेरी बहुत सारी यादें उनसे पटना दूरदर्शन से जुडी हैं... खुद उनकी कविता संग्रह बढई का बेटा और एक शराबी की सूक्तियां बेहतरीन हैं... मैं अक्सर उनको पढता रहता हूँ.

http://krishnakalpit.blogspot.com/

प्रवीण पाण्डेय said...

सुन्दर आलेख।

rabi bhushan pathak said...

सुंदर