यह क़ैफ़ी आज़मी साहब की शायरी के संकलन में उनकी लिखी भूमिका का एक टुकड़ा है
... मैंने एक शे’र पढ़ा -
वह सबकी सुन रहे हैं सबको दाद-ए-शौक़ देते हैं
कहीं ऐसे में मेरा क़िस्सः-ए-ग़म भी बयां होता
मानी साहब को न जाने शे’र इतना क्यों पसन्द आया कि उन्होंने ख़ुश होकर पीठ ठोंकने के लिए मेरी पीठ प एक हाथ मारा. मैं चकी से ज़मीन पर आ रहा. मानी साहब का मुंह घुटनों में छिपा हुआ था इसलिए उन्होंने देखा नहीं कि क्या हुआ., झूम झूम कर दाद देते और शेर दुबारा पढ़वाते रहे और मैं ज़मीन पर पड़ा-पड़ा शेर दोहराता रहा. यह पहला मुशायरा था जिसमें शायर की हैसियत से मैं शरीक हुआ. इस मुशायरे में मुझे जितनी दाद मिली उसकी याद से अब तक परेशान रहता हूं. बुज़ुगों ने इस तरह मेरा दिल बढ़ाया कि वाह मियां वाह, माशा अल्लाह आपकी याददाश्त बहुत अच्छी है; किसी ने कहा - ज़िन्दा रहो मियां, किस एतिमाद से ग़ज़ल सुनाई है! हर कोई यह समझ रहा था और किसी-न-किसी तरह यह दिखा रहा था कि मुझे मेरे किसी भाई ने ग़ज़ल लिख कर दे दी है, जो मैंने अपने नाम से पढ़ी है.
ख़ैर इन वुज़ुर्गों के इन अन्देशों की मैंने ज़्यादा परवाह नहीं की. लेकिन जब अब्बा ने भी इस तरह की बात की तो मेरा दिल टूट गया और मैं रोने लगा.मेरे बड़े भाई शब्बीर हुसैन ’वफ़ा’- अब्बा बेटों में जिनको सबसे ज़्यादा चाहते थे - उन्होंने अब्बा से कहा - इन्होंने जो ग़ज़ल पढ़ी है इन्हीं की है क्यों नहीं यह शक दूर करने के लिए क्यों न इम्तहान ले लिया जाए. उस वक़्त अब्बा के मुंशी हज़रत शौक़ बहराइची थे जो मज़ाहिया (व्यंग्य) शायर थे. उन्होंने इस प्रस्ताव का समर्थन किया. मुझ से पूछा गया - इम्तहान देने के लिए तैयार हो? मैं खु़शी से इसके लिए तैयार हो गया. शौक़ साहब ने मिसरा दिया - इतना हंसो कि आंख से आंसू निकल पड़े. भाई साहब ने कहा - ये ज़मीन इनके लिए बंजर साबित होगी, कोई अच्छा प्रस्ताव दीजिये. लेकिन मेरा उस वक़्त का ईगो, आज जिसे अक्सर तलाश करता हूं, मैंने कहा - अगर मैं ग़ज़ल कहूंगा तो इसी ज़मीन में वर्ना इम्तहान नहीं दूंगा. तय पाया कि इस ’तरह’ में ’तबा’ आज़माई करूं.
मैं उसी जगह लोगों से ज़रा हटकर दीवार की ओर मुंह करके बैठ गया और थोड़ी ही देर में तीन-चार शेर हो गए. आज इन शेरों को देखता हूं तो समझ में नहीं आता कि इसमें मेरा क्या है. पूरी ग़ज़ल में वही बातें जो असातिज़ः कह चुके थे. उस ज़माने का ज़्यादा क़लाम नष्ट हो गया, लेकिन यह पहली ग़ज़ल इसलिए ज़िन्दा रह गई कि न जाने कहां से वह बेग़म अख़्तर के पास पहुंच गई और उसमें उन्होंने अपनी आवाज़ के पंख लगा दिए और सारे हिन्दुस्तान और पाकिस्तान में मशहूर हो गई. लीजिये यह ग़ज़ल आप भी सुन लीजिये यह मेरी ज़िन्दगी की पहली ग़ज़ल है, जो मैंने ग्यारह साल की उम्र में कही थी.
इतना तो ज़िन्दगी में किसी की खलल पड़े
हँसने से हो सुकून न रोने से कल पड़े
जिस तरह हँस रहा हूँ मैं पी पी के गर्म अश्क
यूँ दूसरा हँसे तो कलेजा निकल पड़े
इक तुम कि तुम को फ़िक्रे-नशेबो-फ़राज़ है
इक हम कि चल पड़े तो बहरहाल चल पड़े
साकी सभी को है गम-ए-तिश्न: लबी मगर
मय है उसी की नाम पे जिसके उबल पड़े
मुद्दत के बाद उसने की तो लुत्फ़ की निगाह
जी खुश तो हो गया मगर आँसू निकल पड़े
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यही ग़ज़ल पेश है बेग़म अख़्तर की आवाज़ में:
2 comments:
दमदार शेर, पढ़कर अच्छा लगना स्वाभाविक है।
वाह !!
कि आंसू निकल पड़े :-)
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