Monday, December 6, 2010

अपराजेय अजेय का कबाड़ख़ाने में स्वागत

बहुत दिनों से मैं चाहता था कि लाहौल के केलोंग में रहनेवाले भाई अजेय कबाड़खाने से जुड़ें. मैं प्रसन्न हूँ कि उन्होंने मेरी विनती सुनी और हमारे कबाड़-मंडल का हिस्सा बनने को अपनी सहमति दे दी. इस आदमी के भीतर पहाड़ की ठोस आत्मा बसती है. एक मीठी लेकिन पौरुष से भरपूर जिद और हिमालय जैसा ऊंचा हौसला. व्यक्तिगत पहचान यह है कि हमारे बीच चार-पांच दफा टेलीफोन पर बातचीत हुई है और कभी यह अहसास नहीं हुआ कि वे मुझसे या हमारे साझा कबाड़ीपन से ज़रा भी जुदा हैं.

हमारे बहुसंख्य कबाड़ी आजकल हाईबर्नेशन में गए दीखते हैं. होंगी उनकी भी मजबूरियां, जो होती ही हैं. मेरी भी हैं लेकिन मैं चाहता हूँ यह सिलसिला जारी रह सके.

अजेय भाई, आप का स्वागत है.

उनकी कविता यह तक कह सकने का माद्दा रखती है कि -

सुनो,
आज ईश्वर काम पर है
तुम भी लग जाओ
आज प्रार्थना नहीं सुनी जाएगी।


उनके ब्लॉग से एक कविता प्रस्तुत है:

पैरों तक उतर आता है आकाश
यहां इस ऊँचाई पर
लहराने लगते हैं चारों ओर
मौसम के धुंधराले मिजाज़
उदासीन
अनाविष्ट
कड़कते हैं न बरसते
पी जाते हैं हवा की नमी
सोख लेते हैं बिजली की आग।

कलकल शब्द झरते हैं केवल
बर्फीली तहों के नीचे ठंडी खोहों में
यदा-कदा
अपने ही लय में टपकता रहता है राग।

परत-दर-परत खुलते हैं
अनगिनत अनछुए बिम्बों के रहस्य
जिनमें सोई रहती है ज़िद
छोटी सी
कविता लिख डालने की।

ऐसे कितने ही
धुर वीरान प्रदेशों में
निरंतर लिखी जा रही होगी
कविता खत्म नही होती,
दोस्त ...
संचित होती रहती है वह तो
जैसे बरफ
विशाल हिमनदों में
शिखरों की ओट में
जहाँ कोई नही पहुँच पाता
सिवा कुछ दुस्साहसी कवियों के
सूरज भी नहीं।

सुविधाएं फुसला नही सकती
इन कवियों को
जो बहुत गहरे में नरम और खरे
लेकिन हैं अड़े
संवेदना के पक्ष में
गलत मौसम के बावजूद
छोटे-छोटे अर्द्धसुरक्षित तम्बुओं में
करते प्रेमिका का स्मरण
नाचते-गाते
घुटन और विद्रूप से दूर

दुरूस्त करते तमाम उपकरण
लेटे रहते हैं अगली सुबह तक स्लीपिंग बैग में
ताज़ी कविताओं के ख्वाब संजोए
जो अभी रची जानी हैं।


(एक और नया कबाड़ी बस आया ही चाहता है कल. इंतज़ार कीजिये.)

8 comments:

sanjay vyas said...

स्वागत अजेय जी का.इनके ब्लॉग का तो मैं लगभग प्रारम्भ से ही पाठक हूँ.अब यहाँ भी उनसे मिलना होता रहेगा.

Ashok Kumar pandey said...

अजेय भाई का स्वागत!

केवल राम said...

लेकिन हैं अड़े
संवेदना के पक्ष में
गलत मौसम के बावजूद
छोटे-छोटे अर्द्धसुरक्षित तम्बुओं में
करते प्रेमिका का स्मरण
नाचते-गाते
घुटन और विद्रूप से दूर
xxxx
वाकिफ हूँ इन सारी भावनाओं से ... बखूबी से उतारा है जिनको ...शुक्रिया
कभी चलते -चलते पर भी दर्शन देना ..

कडुवासच said...

... prabhaavashaalee prastuti !!!

अरुण चन्द्र रॉय said...

स्वागत अजेय जी का

siddheshwar singh said...

स्वागत है अजेय भाई !
यूँ ही आते रहें कबाड़ी
चलती रहे कबाड़ख़ाने की गाड़ी
जय हो !
बोफ़्फ़ाइन!

प्रवीण पाण्डेय said...

अजेय जी की कविता बहुत ही सुन्दर लगी।

अजेय said...

यहाँ इस ऊँचाई पर कबाड् इतना कम है कि कहाँ से सब इकट्ठा करूँ ? फिर भी अशोक भाई ने इस क़ाबिल समझा है तो कुछ तो जमा करना ही पड़ेगा . आभार आप सब का. मेरा कम्प्यूटर काम नही कर रहा था. अभी ठीक हुआ. सोचा था कुछ पोस्ट करूँ, लेकिन एक सुन्दर गद्य को देख कर मन नही हुआ कि उसे ओवर्लेप करूँ. तो फिल हाल इस टिप्पणी को ही पोस्ट समझिए.... फक़त आपका, केलंग का कबाड़ी.