Monday, December 6, 2010

अब का कहैं , कहो नहीं जात है..


मुझसे कहा गया है अपना मर्सिया खुद पढने के लिए, इसलिए सबसे पहले तो मैं 'मर्सिये' का मतलब विकिपीडिया पर तलाश आया...(हालाँकि कुछ अंदाज़ा था, लेकिन अब और बेहतर अंदाज़ा हो गया है)
मैं हूँ सबसे नया कबाड़ी, और अब जब कि मैं उज्जैन के एक साइबर कैफे में भिनभिनाते मच्छरों, आते जाते ट्रैफिक की आवाज़ों और हलकी हलकी ठण्ड के बीच कबाड़खाने के लिए अपनी पहली पोस्ट लिख रहा हूँ, तो मुझे कई तरह के ख्याल आ रहे हैं, पहला तो यही कि शायद मेरी उम्र ही मेरा सबसे बड़ी काबिलियत है और सबसे बड़ा अधूरापन भी। बचपन से 'बड़े' होने की जबरदस्त चाह ने हमेशा ही उकसाया, लेकिन जब थोडा भी बड़ा हुआ तो अचानक लगने लगा कि पालना ही सबसे जोरदार वैंतेज पॉइंट होता है, जहाँ से आप अंगूठा चूसते हुए दुनिया को लानत भेज सकते हैं।
जब गाँव में था तो "अहा ग्राम्य जीवन" में भी हमेशा किताबों में घुसा रहा या फिर पड़ोसी के घर टीवी पर शक्तिमान और मेजर साब देखता रहा, कुछ और बड़ा हुआ तो स्कूल और घर से तंग आकर भी कोई यादगार विद्रोह न कर सका... आखिरकार जब उनिवर्सिटी पहुंचा तो देखता क्या हूँ कि यहाँ भी सब पीट सीगर वाले बक्सों में ही घुसे हुए हैं... तो अपन का भी वही रूटीन बन गया, जम कर खाना, जम कर सोना और बीच बीच में "बुर्जुआ" "सर्वहारा", "प्रतिक्रांतिकारी" आदि आदि डकारें लेते रहना।
साहित्य में अपन ने जो भी पढ़ा, उसका कुल जमा असर ये पड़ा कि दोस्तों की गालियाँ खाते खाते भी खड़ी बोली में दो-चार उदगार बीच बीच में बगरा देते हैं और मन में संतोष कर लेते हैं। वैसे परसाई, भवानी दद्दा, और दुष्यंत तीनों को पढ़कर ऐसा लगता है मानों दिल से लाउडस्पीकर जोड़कर सीधे प्रसारण हो, याने अपने से ही लगते हैं ये सब। और कहानियों का बड़ा चस्का है... मुझे कोई संकोच नहीं कहने में कि हैरी पोटर काफी समय तक मेरी सबसे पसंदीदा किताबों में रही। ( अब भूत थोडा उतर रहा है)
खैर मुद्दे की बात यह है कि मैं स्पैनिश साहित्य का विद्यार्थी हूँ, इसलिए कोशिश रहेगी कि आप लोगों के बहाने मेरी पढाई कुछ आगे बढ़ती रहे, साथ ही जो भी मेरे मन में चलता रहता है उसमे से कुछ चुनिन्दा यहाँ पेश कर दिया करूंगा। मेरी काबिलियत पर मुझे भरोसा नहीं है, लेकिन शायद इस जिम्मेदारी से कुछ सुधर जाऊं... (आखिर सुधारने के लिए शादी तक कर देते हैं लोग.)
पिछले कुछ दिनों से खुद को यही समझाने की कोशिश कर रहा हूँ कि सिनिकल होना बहुत आसान है और आशावान होना बहुत कठिन...
वीरेन डंगवाल जी को मैंने, या उन्होंने मुझे कबाडखाना के माध्यम से ही खोज निकाला था..उन्हीं की दो पंक्तियाँ....
तू यही सोचना शुरू करे तो बात बने
पीडा की कठिन अर्गला को तोडें कैसे!

आपका
इकबाल अभिमन्यु

5 comments:

शोभा said...

महाशय मच्छरों से बचने के लिए आप हमारा घर का उपयोग कर लेते, वेसे अच्छी पोस्ट थी

siddheshwar singh said...

स्वागत है भाई इकबाल!
स्वागत है इस ठिकाने पर!!!!

Unknown said...

Like ur analysis of JNU...What i like even more is the pursuit of hope...

अजित वडनेरकर said...

आपका इस्तक़बाल है और इक्बाल भी बुलंद हो।
स्पैनिश वाले माल का इंतज़ार रहेगा।

जैजै

Unknown said...

हमें तुम्हारी रचनाओं का इंतज़ार रहेगा, तुम्हारे जरिये स्पनिश साहित्य से रुबरु होने का हमें मौका मिलेगा...