कवि -चित्रकार विजेन्द्र की लम्बी कविता मेग्मा पर कुछ लिखने का मन था. इस की रचना प्रक्रिया की पृष्टभूमि खोजते खोजते मुझे उन की एक अद्भुत किताब पढ़्ने को मिली . यह इतनी प्रेरक किताब थी कि मुझे मेग्मा से पहले इस किताब पर कुछ कहना ज़रूरी लगा. किश्तों में प्रस्तुत कर रहा हूँ. अंत मे मेग्मा की बात भी होगी.
अभिव्यक्ति के तमाम माध्यमों में सबसे सशक्त है- कविता। सम्भवत: सबसे जटिल भी। हर उस कवि को बार बार काव्येतर विधाओं की ओर मुड़ना पड़ा है जिसने बहुत गहराई से चीज़ों को पकड़ने की जुर्रत की है । एक अन्तराल लेते हुए ठहरने की गरज़ से कहिए या एक तरह से रियाज़ करते हुए भी। कि आगे की काव्य यात्रा की तैयारी हो सके।
कवि विजेन्द्र के चित्रों एवं कविताओं का संकलन ‘आधी रात के रंग’ (Midnight Colours) इसी प्रक्रिया का परिणाम है। कला माध्यमों का परस्पर आदान प्रदान सर्वस्वीकृत है। पूर्व में अनेक प्रयोग साहित्य और विजुअल आर्ट्स में होते रहे हैं। टैगोर , अज्ञेय की चित्रकला और साहित्य में निरन्तर आवाजाही रही। जगदीश स्वामीनाथन जैसे लोगों ने दोनों विधाओं को समान रूप से साधा था। हुसैन ने अनेक कविताओं का चित्रान्तरण किया है। पौराणिक से लेकर आधुनिक तक। लेकिन ऐसा शायद पहली बार हुआ है कि कलाकार ने स्वयं ही चित्र बनाए, फिर उनका शब्दान्तरण किया और फिर इतने में ही चुप न रहकर स्वयं अपने उन शब्दों का भाषान्तरण भी कर दिया हो। कला और साहित्य की दुनिया में यह एक अभूतपूर्व प्रयोग है।
विधाओं की इस आवाजाही को लेकर मेरे मन में भी कुछ उत्सुकता कुछ आकांक्षाएं थी आरम्भ से ही। कुछ यादें सांझा करना ज़रूरी है। आठवें दशक के आरम्भ में जब पंजाब उग्रवाद की गिरफ्त में था, मैंने चण्डीगढ़ के रोज़ गार्डन में एक विचलित करने वाली प्रदर्शनी देखी। शहर के कुछ मेधावी कला छात्रों ने कुमार विकल की कविताओं पर आधारित प्रभावशाली पोस्टर पॉयम बनाए थे -
‘तुम मेरे शब्दों को रंग दो
मैं तुम्हारे रंगो को शब्द दूंगा’
वह एक पोस्टर अभी भी स्पष्ट याद आ रहा है – ‘सड़क पर बहता हुआ यह खून किस का है.....’ । काली पृष्टभूमि पर सफेद चौड़े ब्रश स्ट्रोक्स की ‘ज़ेबरा क्रॉसिंग’ जिसपर गाढा लाल थक्का फैल रहा था। सूखकर जिसकी पपड़ियां उठ रही थीं। तब आधुनिक कविता से मेरा परिचय नया नया था। वह मुझे आर्कषित करती लेकिन समझ में कम आती थी। ये पोस्टर इस कमी को पूरा कर सकते थे। इस घटना के बाद अकसर मन होता कि मुक्तिबोध की कविताओं पर पूरी एक सीरीज़ पेन्ट करूं ।
सालों बाद 1995 में केलंग में गुरूजी (चित्रकार सुखदास) की एकल प्रदर्शनी देखते हुए वयोवृद्ध संस्कृतिकर्मी श्री छेरिंग दोर्जे से एक नायाब पुस्तक प्राप्त हुई-‘’Dream Time Heritage’. ऑस्ट्रेलिया के मूल निवासियों से सम्बंधित मिथकों एवं पुराकथाओं को लेकर अनूठे चित्र थे उसमें। और वैसी ही कमाल की भाषा थी उन पुराख्यानों की, जो सामने दिए गए थे। वर्षों तक मैं उस किताब को चमत्कृत होकर पढ़ता रहा था।
मई 2005 में सोलन में एक आयोजन में प्रख्यात कला समीक्षक एवं हिन्दी कवि प्रयाग शुक्ल को आधुनिक कला पर व्याख्यान देते हुए सुना- “ अपने जटिलतम अनुभवों की अभिव्यक्ति के लिए एक कलाकार को अलग अलग विधाओं में चहलकदमी करते रहना पड़ सकता है। क्योंकि इस दौर के अनुभव प्राचुर्य को एक विधा में पकड़ पाना असम्भव है। लेकिन साथ में यह देख लेना ज्यादा ज़रूरी है कि वह इस उपक्रम को कितनी सजगता के साथ निभा ले जाता है .........यह कतई ज़रूरी नही कि विधाओं का यह आदान प्रदान एक परियोजना की तरह से ही सामने आए.”
प्रयाग जी की बातें प्रेरणाप्रद थी लेकिन एक प्रश्न बना रहा- “परियोजना की तरह” का क्या मतलब ?
‘आधी रात के रंग’ की रूप रेखा निश्चित रूप से इन्ही दिनों तैयार हो रही होगी।
कवि विजेन्द्र के काव्यकर्म से मेरा परिचय बहुत पुराना नहीं है। उनकी कविताएं पहल आदि में देखता रहा था । लेकिन उन्हें मैं एक सामान्य कवि ही मानता रहा जब तक वसुधा-72 में उनकी एक कविता नहीं पढ ली – ‘जब नाहर गढ़ से जयपुर को देखा’ . यह एक असाधारण कविता थी। यह कवि पृथ्वी को जानता है, ऐसा लगा मुझे........ और बहुत भीतर तक जानता है। कवि अग्निशेखर से फोन नंबर लेकर उन्हें बधाई दी। कविता और चित्र कला को लेकर उन्होने बहुत खुल कर बातें की। इसी चर्चा के दौरान ‘आधी रात के रंग’ के बावत मालूम हुआ। उन्होनें कहा कि पढ़ना चाहते तो भिजवा दूँगा। अन्धे को क्या चाहिए ? दो आंखें।
कुछ महीने बाद मैं मण्डी में कवि सुरेश सेन निशान्त से वह किताब सब्सिडाईज्ड कीमत पर खरीद रहा था। पढ़ कर मैंने फिर से उन्हें फोन किया। इन अर्थवान बिम्बों, मिथकों और खुरदुरे भूगभीZय प्रतीकों का आशय जानना चाहता था। इस चर्चा में मुझे सूचना मिली कि उन दिनों लम्बी कविता मैग्मा का अन्तिम ड्राफ्ट तैयार हो रहा था। बहुत बाद में मैं समझ सका कि आधी रात के रंग पर बात करते हुए विजेन्द्र जी बार बार मैग्मा का ज़िक्र क्यों छेड़ बैठते थे।
यह एक सिलसिला सा बन रहा था स्मृति में......उन घटनाओं का जिन्होने मुझे इस किताब तक पहुंचाया। इस ज़िक्र के बिना शायद हम इस किताब को ठीक से खोल नहीं पाते। तो आईए, इसे खोलने की कोशिश करें..........
पहली कविता कवि का आत्म चित्र है। इस में मैंने एक सूत्र वाक्य पकड़ा-
‘जो कुछ कविता में छूटता है/ मैंने चाहा कि उसे/ रंग, बनावट, रेखाओं और दृश्य बिम्बों में/ रख सकूं’
यहीं से एक गहरी समझ कवि की रचनाधर्मिता के बारे विकसित होने लगी। बहुत धीरे, पृष्ट दर पृष्ट गहरे उतरते हुए उन की कविता के असाधारण पक्ष को पहचान पाया।
यहां पिछले तकरीबन दो दशकों के दौरान बनाए गए कुल चौबीस चित्रों की श्रंृखला है जिनके बरक्स रखी गई हैं हिन्दी व अंग्रेज़ी कविताएं। इसके इलावा कुछ स्वतन्त्र चित्र भी हैं। जो पहला चित्र मुझे अभिभूत करता है वह है ‘आधी रात के रंग’ जितनी सशक्त यह कविता है उतनी ही गहरी अपील इस चित्र में है।
‘आधी रात है/ मैं बिल्कुल अकेला जागता हूँ / आधी रात के रंग देखने को/ वे मेरे साथ संवाद करते हैं/ चुपचाप’
प्रतिकूल समय में सजग होकर संवाद स्थापित करने का उपक्रम। आगे इसी कविता में कैसे शब्दों के बिना कविता को सम्भव कर रहे हैं रंग-
‘आधी रात के रंग/ मेरी मूक कविता है/ जीवन से उत्खनित/मेरी आत्मा के बिंब’
काले, भूरे, दमकते लाल रंगों के मध्य एक नीली, गुलाबी लपट है, ऊर्ध्व मुखी, ज़रा लहरीली लेकिन जानदार ! मैंनें ज्वाला जी (कांगडा) के अंधेरे गर्भगृह की दरकती दीवारें देखी हैं ...... और उनमें से छलक कर बाहर निकलती टिमटिमाती मद्विम नीली भूगभीय लपटें। ये लपटें निश्चय ही युगों पुराने आदिम मैग्मा को छूती हुई हम तक आती हैं...........आह ! तो तुम वहां थे, दबे हुए, अतलान्त में ? लेकिन कवि के लिए वे तमाम रंग मिलकर एक सन्नाटा तोड़ रहे हैं ............. ‘रात के ढुलकते बाल काढ़ते हुए’
ऐसी अनेक कविताएं हैं- कई चित्र, जिनपर लम्बी चर्चां हो सकती है। हर कविता की अपनी एक अलग दुनिया है. हर चित्र का अपना एक अलग आस्वाद। बड़ी बात यह कि रचनाओं का अनुक्रम भी एक रूपक की तरह है। जीवन की गति को ‘डिपिक्ट’ करता चलता । सिलसिलेवार घटनाक्रमों के घात-प्रतिघात और उतार चढ़ाव से गुज़रते हुए अन्त ‘आशा’ पर होता है। यही विजेन्द्र की ‘पोज़िटिविटी’ है। ‘आशा’ में पुरातन गुहा-चित्रों की सी अपील है। एक आकर्षक रहस्यमयता है। किंतु कविता में भी यह भाव प्रतिबिंबित नही होता। बल्कि एक रचना ‘आशा’ से भी आगे जाती है। वह एक पंक्ति की सनातन आकांक्षा –‘काश मेरे पंख होते !’ दो पक्षी हैं, यद्यपि दोनों ही ऊपर देख रहें हैं ....... तो भी एक ज़रा नीचे नीचे उड़ रहा ................ उसके पंख में गहरी नीली चट्टान की ठोस परतें हैं......... अभी पूरा पक्षी नहीं है वह। पक्षी होने की प्रक्रिया में है और ज़ाहिर है उड़ना उसका सपना है। दूसरा जो ज़रा ऊंचा उड़ रहा है उसके पंख फेनिल नीली लहरों से निर्मित है। गतिमान! एक बहते हुए समुद्र की त्वरा है उसमें ............... ।
इन रचनाओं में मिथक और परंपराएं हैं। सृजन और विध्वंस है। प्रकृति और पुरूष है। भय और आशा है। भीमकाय दैत्य है जीवन की विकटता और जटिलता का और उससे संघर्षरत एक पराजित, पिटा हुआ मानव है ,चित्रों में अदृश्य सा, जिसे कवि निरन्तर लड़ने और जीने के लिए प्रेरित करता है अपने शब्दों में।
जहां एक ओर विजेन्द्र जी आद्यशक्ति दुगाZ और अर्धनारीश्वर जैसे बहुप्रचलित शास्त्रीय मिथकों को अपना विषय बनाते हैं वहीं ‘यक्ष’ कविता में लोक परंपरा के प्रति उनका असीम लगाव और अन्तरंग जुड़ाव द्रष्ठव्य है। लोक की उपेक्षा का यह दर्द अन्यत्र दुर्लभ है-
‘ओ लोक देवता/तुम्हें अलग थलग गांव के कीच कांद भरे/उपेक्षित कोने में /प्रतििष्ठत किया गया है/................ मैं दुखी हूँ /तुम्हारे हंसते चेहरे पर/क्षति चिन्ह देख कर’
यही नहीं, अपनी कला साधना की दुष्कर प्रक्रिया में एकदम नए मिथक भी गढ़ते हैं। उनका ‘चट्टान पुरूष’ समकालीन संघषोZ के बीचोंबीच एक नए युग पुरूष का प्रतीक बन कर उभरता है। देखें कवि की चेतना में इस काव्य नायक की छवि किस अदभुत प्रक्रिया से निर्मित होती चली गई है -
‘मैं अकेला खड़ा हूँ यहां / पिघले मैग्मा से बनी/ उन्हें देखने को / धरती की अतल अन्तड़ियों में............ जैसे वे मेरे अन्दर भी हैं - शान्त/ जिससे मेरी धड़कने टकराती हैं/ उन्हें कोमल और हरा बनाने को’ (चट्टानों में लहरें)............
काले गड्ढे । नीली दरारें । बहुरंगीय रूपाकार। पारदशीZ लहरे है, और उनके भीतर चट्टानों में पनप रहा एक अनोखा हरापन । मानो प्रशान्त महासागर के किसी ‘कोरल द्वीप’ को कवि आकाश से निहार रहा हो, लहरों को सुनते हुए- और अंग्रेज़ी में कहा है कि –
^^O, Rocks / Melt to the core / And let the poisoned heart / Be purged /O Rocks, Litsen to the waves”.
(जारी........)
अभिव्यक्ति के तमाम माध्यमों में सबसे सशक्त है- कविता। सम्भवत: सबसे जटिल भी। हर उस कवि को बार बार काव्येतर विधाओं की ओर मुड़ना पड़ा है जिसने बहुत गहराई से चीज़ों को पकड़ने की जुर्रत की है । एक अन्तराल लेते हुए ठहरने की गरज़ से कहिए या एक तरह से रियाज़ करते हुए भी। कि आगे की काव्य यात्रा की तैयारी हो सके।
कवि विजेन्द्र के चित्रों एवं कविताओं का संकलन ‘आधी रात के रंग’ (Midnight Colours) इसी प्रक्रिया का परिणाम है। कला माध्यमों का परस्पर आदान प्रदान सर्वस्वीकृत है। पूर्व में अनेक प्रयोग साहित्य और विजुअल आर्ट्स में होते रहे हैं। टैगोर , अज्ञेय की चित्रकला और साहित्य में निरन्तर आवाजाही रही। जगदीश स्वामीनाथन जैसे लोगों ने दोनों विधाओं को समान रूप से साधा था। हुसैन ने अनेक कविताओं का चित्रान्तरण किया है। पौराणिक से लेकर आधुनिक तक। लेकिन ऐसा शायद पहली बार हुआ है कि कलाकार ने स्वयं ही चित्र बनाए, फिर उनका शब्दान्तरण किया और फिर इतने में ही चुप न रहकर स्वयं अपने उन शब्दों का भाषान्तरण भी कर दिया हो। कला और साहित्य की दुनिया में यह एक अभूतपूर्व प्रयोग है।
विधाओं की इस आवाजाही को लेकर मेरे मन में भी कुछ उत्सुकता कुछ आकांक्षाएं थी आरम्भ से ही। कुछ यादें सांझा करना ज़रूरी है। आठवें दशक के आरम्भ में जब पंजाब उग्रवाद की गिरफ्त में था, मैंने चण्डीगढ़ के रोज़ गार्डन में एक विचलित करने वाली प्रदर्शनी देखी। शहर के कुछ मेधावी कला छात्रों ने कुमार विकल की कविताओं पर आधारित प्रभावशाली पोस्टर पॉयम बनाए थे -
‘तुम मेरे शब्दों को रंग दो
मैं तुम्हारे रंगो को शब्द दूंगा’
वह एक पोस्टर अभी भी स्पष्ट याद आ रहा है – ‘सड़क पर बहता हुआ यह खून किस का है.....’ । काली पृष्टभूमि पर सफेद चौड़े ब्रश स्ट्रोक्स की ‘ज़ेबरा क्रॉसिंग’ जिसपर गाढा लाल थक्का फैल रहा था। सूखकर जिसकी पपड़ियां उठ रही थीं। तब आधुनिक कविता से मेरा परिचय नया नया था। वह मुझे आर्कषित करती लेकिन समझ में कम आती थी। ये पोस्टर इस कमी को पूरा कर सकते थे। इस घटना के बाद अकसर मन होता कि मुक्तिबोध की कविताओं पर पूरी एक सीरीज़ पेन्ट करूं ।
सालों बाद 1995 में केलंग में गुरूजी (चित्रकार सुखदास) की एकल प्रदर्शनी देखते हुए वयोवृद्ध संस्कृतिकर्मी श्री छेरिंग दोर्जे से एक नायाब पुस्तक प्राप्त हुई-‘’Dream Time Heritage’. ऑस्ट्रेलिया के मूल निवासियों से सम्बंधित मिथकों एवं पुराकथाओं को लेकर अनूठे चित्र थे उसमें। और वैसी ही कमाल की भाषा थी उन पुराख्यानों की, जो सामने दिए गए थे। वर्षों तक मैं उस किताब को चमत्कृत होकर पढ़ता रहा था।
मई 2005 में सोलन में एक आयोजन में प्रख्यात कला समीक्षक एवं हिन्दी कवि प्रयाग शुक्ल को आधुनिक कला पर व्याख्यान देते हुए सुना- “ अपने जटिलतम अनुभवों की अभिव्यक्ति के लिए एक कलाकार को अलग अलग विधाओं में चहलकदमी करते रहना पड़ सकता है। क्योंकि इस दौर के अनुभव प्राचुर्य को एक विधा में पकड़ पाना असम्भव है। लेकिन साथ में यह देख लेना ज्यादा ज़रूरी है कि वह इस उपक्रम को कितनी सजगता के साथ निभा ले जाता है .........यह कतई ज़रूरी नही कि विधाओं का यह आदान प्रदान एक परियोजना की तरह से ही सामने आए.”
प्रयाग जी की बातें प्रेरणाप्रद थी लेकिन एक प्रश्न बना रहा- “परियोजना की तरह” का क्या मतलब ?
‘आधी रात के रंग’ की रूप रेखा निश्चित रूप से इन्ही दिनों तैयार हो रही होगी।
कवि विजेन्द्र के काव्यकर्म से मेरा परिचय बहुत पुराना नहीं है। उनकी कविताएं पहल आदि में देखता रहा था । लेकिन उन्हें मैं एक सामान्य कवि ही मानता रहा जब तक वसुधा-72 में उनकी एक कविता नहीं पढ ली – ‘जब नाहर गढ़ से जयपुर को देखा’ . यह एक असाधारण कविता थी। यह कवि पृथ्वी को जानता है, ऐसा लगा मुझे........ और बहुत भीतर तक जानता है। कवि अग्निशेखर से फोन नंबर लेकर उन्हें बधाई दी। कविता और चित्र कला को लेकर उन्होने बहुत खुल कर बातें की। इसी चर्चा के दौरान ‘आधी रात के रंग’ के बावत मालूम हुआ। उन्होनें कहा कि पढ़ना चाहते तो भिजवा दूँगा। अन्धे को क्या चाहिए ? दो आंखें।
कुछ महीने बाद मैं मण्डी में कवि सुरेश सेन निशान्त से वह किताब सब्सिडाईज्ड कीमत पर खरीद रहा था। पढ़ कर मैंने फिर से उन्हें फोन किया। इन अर्थवान बिम्बों, मिथकों और खुरदुरे भूगभीZय प्रतीकों का आशय जानना चाहता था। इस चर्चा में मुझे सूचना मिली कि उन दिनों लम्बी कविता मैग्मा का अन्तिम ड्राफ्ट तैयार हो रहा था। बहुत बाद में मैं समझ सका कि आधी रात के रंग पर बात करते हुए विजेन्द्र जी बार बार मैग्मा का ज़िक्र क्यों छेड़ बैठते थे।
यह एक सिलसिला सा बन रहा था स्मृति में......उन घटनाओं का जिन्होने मुझे इस किताब तक पहुंचाया। इस ज़िक्र के बिना शायद हम इस किताब को ठीक से खोल नहीं पाते। तो आईए, इसे खोलने की कोशिश करें..........
पहली कविता कवि का आत्म चित्र है। इस में मैंने एक सूत्र वाक्य पकड़ा-
‘जो कुछ कविता में छूटता है/ मैंने चाहा कि उसे/ रंग, बनावट, रेखाओं और दृश्य बिम्बों में/ रख सकूं’
यहीं से एक गहरी समझ कवि की रचनाधर्मिता के बारे विकसित होने लगी। बहुत धीरे, पृष्ट दर पृष्ट गहरे उतरते हुए उन की कविता के असाधारण पक्ष को पहचान पाया।
यहां पिछले तकरीबन दो दशकों के दौरान बनाए गए कुल चौबीस चित्रों की श्रंृखला है जिनके बरक्स रखी गई हैं हिन्दी व अंग्रेज़ी कविताएं। इसके इलावा कुछ स्वतन्त्र चित्र भी हैं। जो पहला चित्र मुझे अभिभूत करता है वह है ‘आधी रात के रंग’ जितनी सशक्त यह कविता है उतनी ही गहरी अपील इस चित्र में है।
‘आधी रात है/ मैं बिल्कुल अकेला जागता हूँ / आधी रात के रंग देखने को/ वे मेरे साथ संवाद करते हैं/ चुपचाप’
प्रतिकूल समय में सजग होकर संवाद स्थापित करने का उपक्रम। आगे इसी कविता में कैसे शब्दों के बिना कविता को सम्भव कर रहे हैं रंग-
‘आधी रात के रंग/ मेरी मूक कविता है/ जीवन से उत्खनित/मेरी आत्मा के बिंब’
काले, भूरे, दमकते लाल रंगों के मध्य एक नीली, गुलाबी लपट है, ऊर्ध्व मुखी, ज़रा लहरीली लेकिन जानदार ! मैंनें ज्वाला जी (कांगडा) के अंधेरे गर्भगृह की दरकती दीवारें देखी हैं ...... और उनमें से छलक कर बाहर निकलती टिमटिमाती मद्विम नीली भूगभीय लपटें। ये लपटें निश्चय ही युगों पुराने आदिम मैग्मा को छूती हुई हम तक आती हैं...........आह ! तो तुम वहां थे, दबे हुए, अतलान्त में ? लेकिन कवि के लिए वे तमाम रंग मिलकर एक सन्नाटा तोड़ रहे हैं ............. ‘रात के ढुलकते बाल काढ़ते हुए’
ऐसी अनेक कविताएं हैं- कई चित्र, जिनपर लम्बी चर्चां हो सकती है। हर कविता की अपनी एक अलग दुनिया है. हर चित्र का अपना एक अलग आस्वाद। बड़ी बात यह कि रचनाओं का अनुक्रम भी एक रूपक की तरह है। जीवन की गति को ‘डिपिक्ट’ करता चलता । सिलसिलेवार घटनाक्रमों के घात-प्रतिघात और उतार चढ़ाव से गुज़रते हुए अन्त ‘आशा’ पर होता है। यही विजेन्द्र की ‘पोज़िटिविटी’ है। ‘आशा’ में पुरातन गुहा-चित्रों की सी अपील है। एक आकर्षक रहस्यमयता है। किंतु कविता में भी यह भाव प्रतिबिंबित नही होता। बल्कि एक रचना ‘आशा’ से भी आगे जाती है। वह एक पंक्ति की सनातन आकांक्षा –‘काश मेरे पंख होते !’ दो पक्षी हैं, यद्यपि दोनों ही ऊपर देख रहें हैं ....... तो भी एक ज़रा नीचे नीचे उड़ रहा ................ उसके पंख में गहरी नीली चट्टान की ठोस परतें हैं......... अभी पूरा पक्षी नहीं है वह। पक्षी होने की प्रक्रिया में है और ज़ाहिर है उड़ना उसका सपना है। दूसरा जो ज़रा ऊंचा उड़ रहा है उसके पंख फेनिल नीली लहरों से निर्मित है। गतिमान! एक बहते हुए समुद्र की त्वरा है उसमें ............... ।
इन रचनाओं में मिथक और परंपराएं हैं। सृजन और विध्वंस है। प्रकृति और पुरूष है। भय और आशा है। भीमकाय दैत्य है जीवन की विकटता और जटिलता का और उससे संघर्षरत एक पराजित, पिटा हुआ मानव है ,चित्रों में अदृश्य सा, जिसे कवि निरन्तर लड़ने और जीने के लिए प्रेरित करता है अपने शब्दों में।
जहां एक ओर विजेन्द्र जी आद्यशक्ति दुगाZ और अर्धनारीश्वर जैसे बहुप्रचलित शास्त्रीय मिथकों को अपना विषय बनाते हैं वहीं ‘यक्ष’ कविता में लोक परंपरा के प्रति उनका असीम लगाव और अन्तरंग जुड़ाव द्रष्ठव्य है। लोक की उपेक्षा का यह दर्द अन्यत्र दुर्लभ है-
‘ओ लोक देवता/तुम्हें अलग थलग गांव के कीच कांद भरे/उपेक्षित कोने में /प्रतििष्ठत किया गया है/................ मैं दुखी हूँ /तुम्हारे हंसते चेहरे पर/क्षति चिन्ह देख कर’
यही नहीं, अपनी कला साधना की दुष्कर प्रक्रिया में एकदम नए मिथक भी गढ़ते हैं। उनका ‘चट्टान पुरूष’ समकालीन संघषोZ के बीचोंबीच एक नए युग पुरूष का प्रतीक बन कर उभरता है। देखें कवि की चेतना में इस काव्य नायक की छवि किस अदभुत प्रक्रिया से निर्मित होती चली गई है -
‘मैं अकेला खड़ा हूँ यहां / पिघले मैग्मा से बनी/ उन्हें देखने को / धरती की अतल अन्तड़ियों में............ जैसे वे मेरे अन्दर भी हैं - शान्त/ जिससे मेरी धड़कने टकराती हैं/ उन्हें कोमल और हरा बनाने को’ (चट्टानों में लहरें)............
काले गड्ढे । नीली दरारें । बहुरंगीय रूपाकार। पारदशीZ लहरे है, और उनके भीतर चट्टानों में पनप रहा एक अनोखा हरापन । मानो प्रशान्त महासागर के किसी ‘कोरल द्वीप’ को कवि आकाश से निहार रहा हो, लहरों को सुनते हुए- और अंग्रेज़ी में कहा है कि –
^^O, Rocks / Melt to the core / And let the poisoned heart / Be purged /O Rocks, Litsen to the waves”.
(जारी........)
1 comment:
अजेय,
आपने बहुत अच्छा काम शुरू किया है |
विजेंद्र की कविताओं के साथ उनसे अनुमति लेकर उनके बनाये कुछ चित्र भी पोस्ट में लगा दीजिये, अगर संभव हो तो |
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