Wednesday, December 29, 2010

रंगों और शब्दों का चट्टान पुरुष.

चट्टान पुरूषइस किताब की केन्द्रीय छवि है। यह धूसर भूरे रंग से बना है। बहुत ताकतवर और खासे वज़नदार स्ट्रोक्स का इस्तेमाल है। बहुत फीके रंगों में से मन्द मन्द ओज तथा आभा का प्रस्फुटन.......सधे हुए हल्के हाथ का ट्रीटमेंट ....... एक निपट नग्न आकृति ....... अपने ही रंग के जटिल गांठदार चट्टान में से उभर रही। बल्कि उभरने की कोशिश में कोशिश की ऐंठन उसके समस्त अंगों में प्रकट है- घुटने, पिडलियां , पैरो के पंजे, खिंची हुई जर्जर बांहें, तना हुआ नाभि प्रदेश, यहां तक कि अपेक्षाकृत गाढ़े शेड में एक अनुत्तेजक का सा शिश्न भी। सुप्त प्राय: चेहरा फ्रेम से बाहर अदृश्य है और हाथ चट्टान में धंसे हुए .............

यहां अनेक प्रतीक हैं। कई कई इशारे, अनगिनत अर्थवान रूपक।

स्मृति पटल पर एक चेहरा कौंधता है सहसा। एक ऐंठा हुआ चेहरा ............ सम्भवत: चिरनिद्रा में लीन ........... भीषण थकान या असह्य पीड़ा हो शायद ......... हो सकता है किसी गुरू गम्भीर कार्य को अंजाम देता हुआ ......एक जेनुईन दायित्व बोध से जूझ रहे आदमी का ................मुक्तिबोध का चेहरा ! शेल्फ से पुस्तक निकालता हूँ – ‘चान्द का मुंह टेढ़ा है हां, वही तो है। रामकुमार का बहुचर्चित रेखांकन। कवि की छवि आप इस चेहरे को उठाकरचट्टान पुरूषके धड़ पर रखें। एक दम सटीक ! एक मुकम्मल मानवाकृति बनी जा रही ........ और हाथों के लिए कवि के निर्देश......




उठाओ, उठाओ/इस भारी चट्टान को उठाओ/और उसके शिकंजे से/बाहर आओ/इसे रौन्द कर अपना पथ खोजो/यह वही दैत्य है/जिसके विरूद्ध सदियों से लड़ते रहे हो


विडंबना यह कि दैत्य उसी चट्टान का अंग है जिससे कि स्वयं चट्टान पुरूष उभर रहा है। दोनों परस्पर एकमेक हुए। एक दूसरे में ऐसे क्पिनिेमक कि दोनो को अलग-अलग देख पाना ही असम्भव। और कवि का दुस्साहस कि उकसा रहा चट्टान पुरूष को उस दैत्य के संहार के लिए प्रेरित कर रहा है उससे मुक्त होने के लिए, जो सदियों से उसके भीतर छिपा बैठा है। संस्कारों की तरह। उस का अविभाज्य हिस्सा बनकर-


तुमने उसकी गरदन पकड़ ली है/ तुम इसके पिछले हिस्से को खींच रहे हो/ इसे मारने के बाद तुम अपने समय के मुक्त नायक बनोगे/ कविताएं रचने को मैं तुमसे प्रेरणा लूंगा/ उठाओ, इस भारी चट्टान को उठाओ

यह उद्बोधन किसके लिए है ? निश्चित रूप से उसी हताश, पराजित, भयाक्रान्त मानव के लिए जिसे बरसों पहले मुक्तिबोध ने कहा था-
कोशिश करो जीने की/ ज़मीन में गड़ कर भी


कौन हैचट्टान पुरूष’ ? क्या वही .........


खोजता हूँ पठार/ पहाड़/ समुन्दर/ जहां मिल सके मुझे/ मेरी वह खोई हुई परम अभिव्यक्ति अनिवार/ आत्म सम्भवा। ( -अंधेरे में )




चट्टान पुरूष को पढ़कर, उस चित्र के साथ जोड़कर मालूम होता है कि विजेन्द्र की कविताओं की सादगी और कथन की सपाटता भ्रामक है. दरअसल उनके अनुभवों की प्रखरता सीधे सीधे पकड़ में ही नहीं आती तमतमाती रहती है - शब्दों के बाहर, उनके बिंबों में। उनकी भीतरी ऊर्जा इन चित्रों के साथ सन्दभिZ होकर ज़बरदस्त दहक उत्पन्न करती है। और उस दहक की रोशनी पाठक को गहरे में झांकने की दृष्टि देती है-

“As the surface of the earth / Is only a shallow truth of life/ Until I know / That in the womb of the earth / There are melting rocks / And flowing streams too.” (-Truth of a Myth "

इस किताब के एकदम बाद पहल-88 में आई उनकी महत्वपूर्ण कविता मैग्मा की चर्चा यहां अप्रासंगिक नहीं होगी। मेरी समझ में यह किताब मैग्मा की ही तैयारी थी। मैग्मा में कवि की चिन्ताएं, स्वप्न, स्मृतियां और संवेदनाएं समग्रता के साथ अभिव्यिन्जत हुई है। इस कविता के लिए कवि को रंग, ब्रश और कैनवस के पास नहीं जाना पड़ता। कहना होगा कि आधी रात के रंग के अनेक चित्र मैग्मा में हूबहू शब्दान्तरित हुए हैं। विजेन्द्र का कवि अपनी इस लम्बी और जटिलतम कविता में अपनी पूरी इन्टेसिटि, पूरी एनर्जी के साथ उपस्थित है। बड़ी सहजता पूवर्क वह हिन्दी कविता के उस पाठक को उन कड़ियल, पठारीय, दुरूह धरातलों के पार ले जाता है जहां मुक्तिबोध की कविताएं उसे छोड़ गई थी। हत्प्रभ और आशंकित ! केवल पार ले जाता है बल्कि गहरे भूगर्भ में उस ज़िन्दा मैग्मा के स्पर्श करवाता है जिससे छूटे हुए बिम्ब अन्धेरें में तथा चकमक की चिंगारियां में दिखाई देती है। जिससे कि विजेन्द्र के यहां एक संवेदनशील आत्मा का स्थापत्य निर्मित होता है .
कवि- अंगिरा सुनो/ आंच ठण्डी हो/ उसका रूप बदलो/ दिशा ठीक करो/ उसे निखारो/ धार दो/वह बुझी नहीं है/ वह बुझे नहीं/धरातल फोड़कर निकला है/सुर्ख कल्ला बीज का/ वही जैविक मैग्मा है मेरी कविता का (मैग्मा )
यही एक वजह है कि मैग्मा कविता अंधेरे में के बाद आधुनिक हिन्दी कविता को एक नई दिशा प्रदान करती है। और निश्चित रूप से इसकी भूमिका आधी रात के रंग वाले चित्रों में है।मैग्मा तक पहंुचने के लिए पाठक को इस किताब से हो कर गुजरना पडेगा। शायद कवि के अन्य चित्रों से भी........

1 comment:

Neeraj said...

स्वयं से लड़ना बेहद दुष्कर काम है | स्व से लड़ने वाला इंसान बाहरी दुनिया में भले ही असफल मान लिया जाता है | लेकिन अपने अन्दर वो ऐसी निधि संचित कर लेता है जो साधारण सफल लोगों के लिए दुर्लभ है | हमेशा खुद से लड़ने वाले हैं मुक्तिबोध, उनकी परंपरा को विजेंद्र आगे बढ़ाएंगे, आपका लेख पढ़कर ऐसी उम्मीद जागती है |