गगन गिल की कविताओं, गद्य और अनुवाद-कर्म के विशिष्ट, अर्थवान और समृद्ध रचना-लोक से कौन परिचित नहीं है.
किसी सिलसिले में तकरीबन दो साल पहले जब गगन जी का जोधपुर आना हुआ था तो उनसे भेंट का सुअवसर मुझे भी मिला था. उनकी कुछ कविताओं के स्वयं उनके द्वारा उस वक्त किये गए पाठ की स्मृति आज भी लगभग वैसी ही ताजगी लिए है. उन्हीं कविताओं में से कुछ को यहाँ लगाने के लिए मैंने जब उनसे फोन पर बात की तो उन्होंने उदारतापूर्वक इसकी अनुमति दी. आज उनकी एक कविता आपसे साझा कर रहा हूँ.
ये कविता उम्मीद से ज्यादा उम्मीद की बेचैनी की कविता है, आशा की क्षीणतम मात्रा के लिए भी चतुर्दिक खोज की कविता है.
थोड़ी सी उम्मीद चाहिए
थोड़ी सी उम्मीद चाहिए
जैसे मिट्टी में चमकती
किरण सूर्य की
जैसे पानी में स्वाद
भीगे पत्थर का
जैसे भीगी हुई रेत पर
मछली में तड़पन
थोड़ी सी उम्मीद चाहिए
जैसे गूंगे के कंठ में
याद आया गीत
जैसे हलकी सी सांस
सीने में अटकी
जैसे कांच से चिपटे
कीट में लालसा
जैसे नदी की तह में
डूबी हुई प्यास
थोड़ी सी उम्मीद चाहिए
- गगन गिल
12 comments:
उम्मीदों में कटता जीवन।
... sundar rachanaa ... shaandaar post !!!
उम्मीद ही ज़िंदगी है ..
उम्मीद पर ही दुनिया कायम है ..
आह ! जीवन और प्रकृति का यह गहन आस्वाद्!
आपका ब्लॉग बहुत बढ़िया है. आपके ब्लॉग का लिंक हिंदी साहित्य ब्लॉग के मंच Hindi Sahitya Blog/हिंदी साहित्य ब्लॉग में शामिल किया गया है. कृपया देखें:- http://hindisahityablog.blogspot.com/. धन्यवाद.
स्पंदित करती कविता..
इस कविता की रचना के लिए गगन गिल जी को और इसे लोगों तक पहुँचाने के लिए आपको धन्यवादा उम्मीद की बात की है तो मुझे किशोर कुमार का गाया हुआ गीत याद आ रहा हैा फिल्म का नाम याद नहीं है पर गीत कुछ यूँ है, 'कभी पलकों पे ऑंसू हैं, कभी लब पे शिकायत हैा मगर ऐ जिन्दगी फिर भी, मुझे तेरी जरूरत हैा' इस जरूरत में ही दरअसल जिन्दगी की उम्मीद छिपी हुई हैा
चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना कल मंगलवार 28 -12 -2010
को ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..
http://charchamanch.uchcharan.com/
इस कविता को पढ़ने के बाद मन में यह बात जम जाती है कि उम्मीद पर दुनिया कायम है .. गगन गिल साहब को इस सुन्दर कविता के लिए बधाई और आपको साधुवाद इस सुन्दर रचना को हम सब तक पहुँचाने के लिए...
आभार
मनोज
थोड़ी सी उम्मीद चाहिए एक अच्छी कविता.
.
सामाजिक सरोकार से जुड़ के सार्थक ब्लोगिंग किसे कहते
नहीं निरपेक्ष हम जात से पात से भात से फिर क्यों निरपेक्ष हम धर्मं से..अरुण चन्द्र रॉय
सुन्दर कविता!
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