तुम जो ठहर जाओ तो ये रात, महताब
ये सब्ज़ा, ये गुलाब और हम दोनों के ख़्वाब
सब के सब ऐसे मुबहम हों कि हक़ीक़त हो जायें
न गँवाओ नावके-नीमकश, दिल-ए-रेज़ा रेज़ा गँवा दिया.
जो बचे हैं संग समेट लो, तने-दाग़ दाग़ लुटा दिया.
ये सब्ज़ा, ये गुलाब और हम दोनों के ख़्वाब
सब के सब ऐसे मुबहम हों कि हक़ीक़त हो जायें
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आज फरवरी माह की चौदहवीं तिथि को जब तमाम दुनिया प्रेम दिवस को अपने - अपने तरीके से 'सेलिब्रेट' करने में व्यस्त है तब शायरी और मौसीकी के समुद्र में अवगाहन - स्नान करते हुए अपने भीतर की कोमलता को टच करने या दुनिया के शबो - रोज में होते तमाशे को देखते , उसका हिस्सा बनते, उससे रीझते खीझते,उस पर पड़ गई धूल को झाड़ते - पोँछते आज (एक बार फिर) फ़ैज़ की शायरी का आनंद लेते हैं। याद है यह वही शायर है जिसने कहा था कि 'और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा' और यह भी कि 'तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है '। कहने की बात नहीं है कि फ़ैज़ के यहाँ प्रेम दुनिया -ए- फानी से पलायन नहीं बल्कि इसी दुनिया को सुंदर दुनिया बनाने व इसकी सुंदरता को बिगड़ने से बचाने के प्रयत्न / प्रेरणा का सहचर है। और क्या कहा जाय .. तो आइए सुनते है फ़ैज़ की शायरी.. स्वर है उस्ताद मेंहदी हसन साहब का...
न गँवाओ नावके-नीमकश, दिल-ए-रेज़ा रेज़ा गँवा दिया.
जो बचे हैं संग समेट लो, तने-दाग़ दाग़ लुटा दिया.
मेरे चारागर को नवेद हो, सफ़े-दुश्मनाँ को ख़बर करो
जो वो क़र्ज़ रखते थे जान पर, वो हिसाब आज चुका दिया.
जो वो क़र्ज़ रखते थे जान पर, वो हिसाब आज चुका दिया.
करो कज जबीं पे सरे-कफ़न, मेरे क़ातिलों को गुमाँ न हो
कि ग़ुरूरे-इश्क़ का बाँकपन, पसे-मर्ग हमने भुला दिया.
कि ग़ुरूरे-इश्क़ का बाँकपन, पसे-मर्ग हमने भुला दिया.
उधर एक हर्फ़ कि कुश्तनी, यहाँ लाख उज़्र था गुफ़्तनी .
जो कहा तो सुन के उड़ा दिया, जो लिखा तो पढ़ के मिटा दिया.
जो कहा तो सुन के उड़ा दिया, जो लिखा तो पढ़ के मिटा दिया.
जो रुके तो कोहे-गराँ थे हम, जो चले तो जाँ से गुज़र गये
रहे-यार हमने क़दम क़दम, तुझे यादगार बना दिया.
रहे-यार हमने क़दम क़दम, तुझे यादगार बना दिया.
4 comments:
बड़ा ही सामयिक पोस्ट लगाया है। कल ही, यानी 13 फरवरी (1911) को इस मशहूर शायर का जन्म दिन था। वो ऊर्दू ज़बान के ही नहीं, भारतीय उपमहाद्वीप की जनता के सबसे बड़े हमदर्द शायर थे। देश की उत्पीडित जनता के संघर्षों का साथ देने के गुनाह में कई बार जेल जाना पड़ा। देशनिकाला भी झेलना पड़ा। आम ज़िन्दगी की जद्दोजहद और बेहतर इंसानी समाज बनाने के लिए आज भी जो संघर्ष चल रहे हैं, फ़ैज़ की शायरी उन सब के साथ सड़कों पर गूंज रही है। शोषण के खात्मे का पुरजोर तसव्वुर इन शब्दों में पेश किया
ऐ खाकनशीनों उठ बैठो, वो वक़्त क़रीब आ पहुंचा है,
जब तख्त गिराये जायेंगे जब ताज उछाले जायेंगे।
क्या खूब पेशकश है.
जो रुके तो कोहे-गराँ थे हम, जो चले तो जाँ से गुज़र गये
रहे-यार हमने क़दम क़दम, तुझे यादगार बना दिया
.bahut hi sunder
क्या खूब पेशकश है.
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