Saturday, March 5, 2011

मेरे साथ मयाड़ घाटी चलेंगे ? -- 4

पहाड़ों की देवी ने अपना चूल्हा सुलगा दिया है
“सर, यहाँ कोई ढाबा –ढूबा होना चाहिए था. ...” -- सुबह के मटमैले आकाश को देखते हुए लेटे- लेटे ही मैं कहता हूँ .
सहगल जी स्थानीय हैं. बहुत अनुभवी और धैर्यवान. मुस्कराते हुए कहते हैं —“ लौटती बार यहीं चाय पियेंगे. इस दफा बरफ कर के नहीं लगा होगा ढाबा . वर्ना लग ही जाता है इन दिनों ” . फिर चौहान जी को हौसला देने लगे हैं —“ बस दो चार किलोमीटर की बात है. सुना है उस तरफ से BRO के ट्रक चले हुए हैं. उदयपुर तक लिफ्ट मिल ही जाएगी. आगे की आगे देख लेंगे.”

कारगा मेरे गाँव के ठीक नीचे मेरे बचपन के खेलने की जगह है. यह तान्दी संगम के पास स्थित है..जहाँ चन्द्र और भागा नदियाँ मिल कर चन्द्रभागा बनती है और पश्चिम की ओर उदयपुर, किलाड़, भद्रवाह, किष्तवाड़ होती हुई जम्मू पहुँचती है.आगे पंजाब जा कर यह सोहनी – महिवाल वाली ऐतिहासिक चिनाब नदी बन जाती है. गर्मियों की लम्बी छुट्टियों में हम यहीं मस्ती करते थे. हरी घास , घने पेड़ , खूब सारे पानी के सोते, और खुली जगह्..... लेकिन गर्मियों का यह स्वर्ग सर्दियों मे नरक से भी बदतर हो जाता है. 3000 मीटर की ऊँचाई पर स्थित इस अधित्यिका के चारों ओर घाटियाँ खुलती हैं . खूब तेज़ हावाएं चलतीं हैं और जम कर बरफबारी होती है. आज भी चारों दिशाओं में झक्क सफेदी फैल रही है. ठेठ जाड़ों का मौसम प्रतीत हो रहा है. ब्यूँस की शाखें अभी तक गाढ़ी काली दिख रहीं हैं . साईबेरियाई हवाओं से जूझतीं, निपट नंगी ! उदयपुर यहाँ से 45 किलोमीटर दूर है.

हम चलने के लिए खड़े हुए हैं .अचानक मेरी नज़र कर्क्योक्स के पीछे वाले भव्य ग्लेशियर पर पड़ी है. उस के पूर्वी भाग पर सुनहली किरणों की बौछार हो रही है और पश्चिमी हिस्से से बर्फ का गुबार उड़ रहा है. आह ! पहाड़ों की देवी ने अपना चूल्हा सुलगा लिया है. ठहर कर आँख भर वह नज़ारा देख लेना चाहता हूँ. ..... “But I have promises to keep, and miles to go before I sleep”. हम कूच कर चुके हैं, लेकिन मैं मुड़ मुड़ कर पीछे देख रहा हूँ. बीर सिंह जी इसे भाँप कर बोलते हैं “ जनाब , कैमरा ही उठा लाते !”
अब मैं इन महाशय को कैसे समझाता कि मैं कैमरा क्यों नहीं रखता! और कैमरे की लेंस और नंगी आँखो की तासीर में फर्क़ क्या है?

सुमनम की तरफ जाती बिजली की लाईन पर उस पुराने खम्भे को देख कर घर की याद हो आई. वापसी पर ज़रूर घर जाऊँगा. जन्धर के सिरे पर ITBP का केम्प उसी पुरानी अदा में सो रहा है. नीचे संगम में काफी बदलाव आए हैं . संगम के बीचोंबीच एक टापू उभर आया है. दोनो नदियों की दो दो धाराएं बन रहीं हैं . घुषाल गाँव की तरफ काफी सारा सख्त गट्टों वाला किनारा नदी ने काट दिया है. घुषाल अब पुराने दिनों की तरह घने क्लस्टर में नही बसा है. ज़्यादातर घर छिटक कर दूर दूर हो गए हैं. जैसे ध्रुवीय प्रदेश में गर्मियाँ आने पर पेंग्विनो का झुण्ड छिटकता है. नए घर अब टीन की छत वाले ही बन रहे हैं. पहले ज़्यादातर फ्लेट रूफ मिट्टी के मकान होते थे.
(जारी)

3 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

वाह, लग रहा है कि पहाड़ों ने निर्जन-मन यज्ञ रचा हो।

सुनीता said...

जीवंत वृतांत फिर से ,, साथ साथ चल रही हूँ :-)

डॉ. नूतन डिमरी गैरोला- नीति said...

बहुत सुन्दर... साँझ की बेला में पहाड़ों का आकाश पश्चिमी दिशा में कुछ ज्यादा लाल चमकीला हो जाता है... और खड़ी पहाड़ों की चोटिया ज्यू उनको छु रही हों..बहुत अद्भुत नजारा होता है... बहुत सुन्दर लेख...