Sunday, March 13, 2011

मेरे साथ मयाड़ घाटी चलेंगे न ? -- 6

धूप अब ढलानों से उतर कर नीचे वादी में बिछ रही है. सामने चन्द्रभागा लुका छुपी करती बह रही है. सड़क के निचले किनारे हटाई गई बरफ के ढेर पर बैठ कर मैं वह नज़ारा देखने लगा. नीचे खेतों पर नन्हे बच्चे किलकारियाँ मारते हुए अपने देसी ‘स्लेजेज़’ पर फिसल रहे हैं. कुछेक ने बाँस की बल्लियाँ चीर कर ‘स्कीज़’ भी बना रखीं हैं. कुत्ते प्रफुल्ल उन के पीछे दौड़ रहे हैं. औरतें पीठ पर किल्टे उठाए खेतों में मिट्टी बिखेर रहीं हैं. उन्हों ने कतर के ऊपर डॉन फेदर के उम्दा गरम जेकेट पहन रखे हैं. आँखो पर् काले चश्मे और माथा और नाक से नीचे पूरा चेहरा स्कार्फ से ढका हुआ. चाल मे गज़ब का आत्मविश्वास. क्षण भर के लिए मुझे लगा है किसी रूसी फिल्म का दृष्य देख रहा हूँ.

सामने से मज़दूरों से भरे दो ट्रक आते दिखते हैं. हम आश्वस्त हो गए हैं कि कभी न कभी तो ये गाड़ियाँ लौटेंगी ही. सड़क पर ध्यान जाता है तो पता चलता है कि काफी देर से हम बरफ छोड़ कर मेटल्ड सड़क पर चल रहे थे. कहीं कहीं जहाँ पानी इकट्ठा हो रहा है, यक (ice) की पतली झिल्लियाँ जमी दिख रहीं हैं. सामने ख्रूटी, और रानिका क्षेत्र की ढलानों पर बरफ नहीं दिख रही. बल्कि हल्की सी हरियाली का अहसास हो रहा है. शायद मेरी विशफुल थिंकिंग हो. दो मज़दूर लड़के सड़क किनारे गड्ढा खोद कर क़िल्टों में मिट्टी भर रहे हैं. मैं यूँ ही उन से बतियाने लगा हूँ.


-- भईया, ये क्यों खोद रहे हो?
-- मट्टी देना पड़ता है न खेत को !
-- मिट्टी, क्यों?
-- बरफ जल्दी पिघलेगा बोल के , इस लिए.
-- पिघल जाएगा ऐसा करने से ?
-- अभी घाम ठिक से रहे त हफ्ता दिन मे खतम. एकदम जाएगा.
-- अच्छा, घर कहाँ है तुम्हारा ?
-- दुमका.
-- और उस का?
-- गोरखा.
-- तेरी माँ का .......

दूसरे लड़के ने , जो नेपाली था उसे मोटी सी गाली देते हुए एक किक जमाई और मुझ से कहा— सुर्खेत नेपाल , हुज़ुर! मुझे वहाँ रुकते देख मेरे तीनो सहयात्री ठहर गए हैं. सह्गल जी बताते हैं कि अगला मोड़ पार कर के लोट गाँव में होटल (ढाबा) है. वहाँ आराम से चाय पी लेंगे और जूते – मोज़े सुखा कर के कुछ नाश्ता भी ले लेंगे. तब तक कोई गाड़ी लौट ही आएगी. मैं अधूरे मन से उठा और उन लड़कों की तरफ ‘वेव’ करते हुए आगे बढ़ गया. दोनों बड़े प्रसन्न नज़र आ रहे थे. सम्वाद भी क्या नायाब नैमत है क़ुदरत की ! बेवजह ही कितना उदात्त हो जाता है मन ? क्या मैं उन लड़कों के मन की कोई नाज़ुक तार छेड़ने में सफल हुआ था?

(जारी)

3 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

इतना खुल जाने के बाद चाय पीनी तो बनती है।

niranjan dev sharma said...

इसी संवाद की कमी तो खलती है । गाँव में नहीं शहर में , जहाँ कान में ईयर फोन लगाए हर कोई अपने से ही संवाद कर रहा है ।

अजेय said...

निरंजन , इस बदहवास समय मे गाँव क्या और शहर क्या. हर कुछ आत्म मुग्ध और आत्म रत हो गया है. और शहर तो फिर भी चेत जाता है... गाँव की सुध लेने वाला कोई नहीं रहा..... उसे तो बस जोत के रखो, मस्त रखो...और चूसो... ज़िन्दा रखने लायक अनुदान, वज़ीफा ,पेकेज रूपी इंजेक्शन देते रहो....