Tuesday, March 8, 2011

ज़िन्दगी जब भी तेरी बज़्म में

अगर आज मुझसे मेरी बर्बादी का कोई सबब पूछे, तो बेहिचक उसे अपने छोटे मामाजी का पता दे दूंगा | उम्र के जिस दौर में मुझे खूबसूरत लड़कियों को देखना चाहिए था, क्रिकेट खेलना चाहिए था, मैं खो गया | मामा तलत अज़ीज़ चलाकर अपना कुछ न कुछ पढ़ते रहते थे | और मैं गीत के बोल के पीछे भागता रहता था | तो अब आलम ये है कि कहीं कोई ग़ज़ल चले तो मैं दूसरा कोई काम नहीं कर सकता उसे सुनने के अलावा | और अगर ये ग़ज़ल हो तो , लगातार |



ज़िन्दगी जब भी तेरी बज़्म में लाती है हमें
ये ज़मीं चाँद से बेहतर नज़र आती है हमें

सुर्ख़ फूलों से महक उठती हैं दिल की राहें
दिन ढले यूँ तेरी आवाज़ बुलाती है हमें

याद तेरी कभी दस्तक कभी सरगोशी से
रात के पिछले पहर रोज़ जगाती है हमें

हर मुलाक़ात का अंजाम जुदाई क्यूँ है
अब तो हर वक़्त यही बात सताती है हमें



एक और प्लेयर , ताकि सनद रहे 

Talat Aziz - Zindagi Jab Bhi Teri
Found at abmp3 search engine

शहरयार की कलम और आवाज तलत अज़ीज़ की | मुज़फ्फर अली की इस फिल्म का एक एक दृश्य अपने आप में एक मुकम्मल ग़ज़ल है | खोने का डर खोने से ज्यादा डरावना होता है | लड़कपन , जवानी इसी उहापोह में गुज़ार दी | दो कदम चलने के बाद रास्ते खो जाने का डर कदमों को बाँध देता है | वही डर मौजूं है इस ग़ज़ल में | 

2 comments:

नीरज गोस्वामी said...

मामाजी का शुक्रिया अदा कीजिये जो उन्होंने आपको इस खूबसूरत विधा से रूबरू करवाया...ये गीत ही नहीं फिल्म भी अद्भुत थी...

नीरज

प्रवीण पाण्डेय said...

यदि इसे बर्बादी कहेगें तो आभाद होना क्या होगा?