Wednesday, March 30, 2011

क्योंकि तानाशाह आपके प्राण लेते वक़्त कोई रसीद नहीं देता

ईराकी मूल की कवयित्री दून्या मिख़ाइल की दो और कविताएं प्रस्तुत है. लम्बे समय से युद्ध की विभीषिकाएं झेल रहे अरब समाज, विशेषतः उसकी स्त्रियों का दर्द दून्या की रचनाओं में सतत उपस्थित रहता है. आधुनिक समय के युवा रचनाकारों की सूची में ख़ासा बड़ा नाम मानी जाने वाली दून्या अब निर्वासन में अमेरिका में रहती हैं.


हड्डियों का झोला

क्या तक़दीर है!
उसे मिल गई हैं उसकी हड्डियां.
खोपड़ी भी है झोले में
झोला उस स्त्री के हाथ में
बाक़ी झोलों की तरह
बाक़ी कांपते हाथों की तरह.
उसकी हड्डियां, हज़ारों हड्डियों की तरह
सामूहिक कब्रिस्तान में
उसकी खोपड़ी, दूसरी किसी भी खोपड़ी की तरह नहीं.
दो आंखें या दो गड्ढे
जिनसे कितना सारा देखा था उसने’
दो कान
जिनकी मदद से वह सुनता था उस संगीत को
जो उसकी अपनी कहानी कहता था,
एक नाक
जिसने कभी नहीं जाना साफ़ हवा को
एक मुंह, किसी गर्त की मानिन्द खुला हुआ,
वह तब वैसा नहीं था जब उसने उसे चूमा था
वहां, ख़ामोशी में
इस जगह नहीं
जहां सवालों के साथ खोदी जाती हैं
शोरभरी खोपड़ियां हड्डियां और धूल:
ये सारी मौतें मरने का क्या मतलब है
इस जगह में जहां अन्धेरा खेलता है इस सारी ख़ामोशी के साथ?
अपने प्यारों से अब मिलने का क्या मतलब है
इन तमाम खोखली जगहों पर?
मौत के मौक़े पर
वापस लौटाना अपनी मां को
मुठ्ठीभर हड्डियां
जो उसने दी थीं तुम्हें
जन्म के मौक़े पर?
बिना जन्म या मृत्यु प्रमाणपत्र के निकल जाना
क्योंकि तानाशाह आपके प्राण लेते वक़्त
कोई रसीद नहीं देता?
तानाशाह के पास एक दिल भी है
एक ग़ुब्बारा जो कभी फूलता ही नहीं.
उसकी एक खोपड़ी भी है, ख़ासी विशाल
किसी भी और खोपड़ी से अलहदा.
उसने अपने आप ही हल कर लिया गणित का एक सवाल
जिसने एक मौत को गुणा किया लाखों से
ताकि उत्तर निकले मातृभूमि.
तानाशाह एक बड़ी त्रासदी का निर्देशक है.
उसके श्रोता भी हैं
तालियां पीटने वाले श्रोता,
जब तक कि खड़खड़ाने न लगें हड्डियां -
झोले में हड्डियां,
पूरा झोला आख़िरकार उसके हाथों में है
उसकी निराश पड़ोसन की तरह नहीं
जिसे अभी नहीं मिला है उसका झोला.


सर्वनाम

वह खेलता है ट्रेन-ट्रेन
वह खेलती है सीटी-सीटी
दोनों दूर निकल जाते हैं

वह खेलता है रस्सी-रस्सी
वह खेलती है पेड़-पेड़
दोनों झूला झूलते हैं

वह खेलता है सपना-सपना
वह खेलती है पंख-पंख
दोनों उड़ जाते हैं

वह खेलता है जनरल-जनरल
वह खेलती है जनता-जनता
वे युद्ध की घोषणा कर देते हैं.

9 comments:

Neeraj said...

जिसने एक मौत को गुणा किया लाखों से
ताकि उत्तर निकले मातृभूमि.

प्रवीण पाण्डेय said...

कुराज का दर्द क्या होता है, पढ़कर समझ आ रहा है।

संजय कुमार चौरसिया said...

bahut shandaar kavitayen,

sundar abhivyakti

मुकेश कुमार सिन्हा said...

bahut umda!

राजेश उत्‍साही said...

कविता इतिहास की तरह है।

Unknown said...

भावपूर्ण प्रस्‍तुति

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बहुत अच्छी प्रस्तुति

गौरव कुमार *विंकल* said...

वह खेलता है जनरल-जनरल
वह खेलती है जनता-जनता
वे युद्ध की घोषणा कर देते हैं.

bahut khoob.......

गौरव कुमार *विंकल* said...

वह खेलता है जनरल-जनरल
वह खेलती है जनता-जनता
वे युद्ध की घोषणा कर देते हैं.

bahut khoob...