Sunday, April 3, 2011

मेरी मां अब ढेरों मन मिट्टी के नीचे सोती है


आज पढ़िये मशहूर उर्दू कवि अख़्तर-उल-ईमान की एक नज़्म. 



तहलील

मेरी मां अब मिट्टी के ढेर के नीचे सोती है
उसके जुमले, उसकी बातों,
जब वह जिंदा थी, कितना बरहम हो जाती थी थी
मेरी रोशन तबई, उसकी जहालत
हम दोनों के बीच एक दीवार थी जैसे

‘रात को ख़ुशबू का झोंका आए, जिक्र न करना
पीरों की सवारी जाती है’
‘दिन में बगूलों की जद में मत आना
साये का असर हो जाता है’
‘बारिश-पानी में घर से बाहर जाना तो चौकस रहना
बिजली गिर पड़ती है- तू पहलौटी का बेटा है’

जब तू मेरे पेट में था, मैंने एक सपना देखा था-
तेरी उम्र बड़ी लंबी है
लोग मोहब्बत करके भी तुझसे डरते रहेंगे

मेरी मां अब ढेरों मन मिट्टी के नीचे सोती है
सांप से मैं बेहद ख़ाइफ़ हूं
मां की बातों से घबराकर मैंने अपना सारा जहर उगल डाला है
लेकिन जब से सबको मालूम हुआ है मेरे अंदर कोई जहर नहीं है
अक्सर लोग मुझे अहमक कहते हैं।

तहलील - अन्तर्विश्लेषण 
रोशन तबई - उदारता
बरहम - ग़ुस्सा
ख़ाइफ़ - भयभीत
अहमक - मूर्ख

3 comments:

पारुल "पुखराज" said...

चटकीली दुनिया में "परदे" बाज़ दफ़ा बड़े ज़रूरी

प्रवीण पाण्डेय said...

संवेदनशील पंक्तियाँ।

बाबुषा said...

आपने बेहतरीन नज़्म उठायी है ईमान साहब की! शुक्रिया मैंने कई दिनों बाद उन्हें पढ़ा !



कुछ lines उनकी एक नज़्म की याद आ रही हैं मुझे ..जो कुछ इस तरह हैं कि -

उठाओ हाथ की दस्त -ए -दुआ बुलंद करें
हमारी उम्र का इक और दिन तमाम हुआ !
खुदा का शुक्र बजा लाएं आज के दिन भी
न कोई वाकया गुज़रा न ऐसा काम हुआ !

अशोक सर , आप कबाड़ी लोग 'कबाड़खाना' में एक 'आपकी फरमाइश ' कॉलम बनाइये ना ?

मेरी फरमाइश दर्ज भी कर लीजिये ..ये पूरी हुयी तो जल्दी ही दूसरी लिख भेजूंगी !

काजी नजरूल इस्लाम.