Tuesday, April 5, 2011

मीर, नज़ीर, कबीर, और इन्शा सब का एक घराना हो

इब्न-इ-इंशा पसंदीदा शायर हैं. बेबाक और बेलौस. जब-तब उन्हें यहाँ इस ठिकाने पर भी देखा जाता रहा है. आज उनकी कुछेक रचनाएं और देखिये -

१.

सावन-भादों साठ ही दिन हैं फिर वो रुत की बात कहाँ
अपने अश्क मुसलसल बरसें अपनी-सी बरसात कहाँ

चाँद ने क्या-क्या मंज़िल कर ली निकला, चमका, डूब गया
हम जो आँख झपक लें सो लें ऎ दिल हमको रात कहाँ

पीत का कारोबार बहुत है अब तो और भी फैल चला
और जो काम जहाँ को देखें, फुरसत दे हालात कहाँ

क़ैस का नाम सुना ही होगा हमसे भी मुलाक़ात करो
इश्क़ो-जुनूँ की मंज़िल मुश्किल सबकी ये औक़ात कहाँ

२.

अच्छा जो ख़फ़ा हम से हो तुम ऐ सनम अच्छा,
लो हम भी न बोलेंगे ख़ुदा की क़सम अच्छा|

मश्ग़ूल क्या चाहिए इस दिल को किसी तौर,
ले लेंगे ढूँढ और कोई यार हम अच्छा

गर्मी ने कुछ आग और ही सीने में लगा दी,
हर तौर घरज़ आप से मिलना है कम अच्छा

अग़ियार से करते हो मेरे सामने बातें,
मुझ पर ये लगे करने नया तुम सितम अच्छा

कह कर गए आता हूँ, कोई दम में मैं तुम पास,
फिर दे चले कल की सी तरह मुझको दम अच्छा

३.

जोग बिजोग की बातें झूठी सब जी का बहलाना हो
फिर भी हम से जाते जाते एक ग़ज़ल सुन जाना हो

सारी दुनिया अक्ल की बैरी कौन यहां पर सयाना हो,
नाहक़ नाम धरें सब हम को दीवाना दीवाना हो

तुम ने तो इक रीत बना ली सुन लेना शर्माना हो,
सब का एक न एक ठिकाना अपना कौन ठिकाना हो

नगरी नगरी लाखों द्वारे हर द्वारे पर लाख सुखी,
लेकिन जब हम भूल चुके हैं दामन का फैलाना हो

तेरे ये क्या जी में आई खींच लिये शर्मा कर होंठ,
हम को ज़हर पिलाने वाली अमृत भी पिलवाना हो

हम भी झूठे तुम भी झूठे एक इसी का सच्चा नाम,
जिस से दीपक जलना सीखा परवाना मर जाना हो

सीधे मन को आन दबोचे मीठी बातें सुन्दर लोग,
मीर, नज़ीर, कबीर, और इन्शा सब का एक घराना हो

2 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

बेहतरीन, पढ़कर आनन्द आ गया।

अजेय said...

ब्लॉगिंग करते हुए मुझे अभी दो साल होने जा रहे हैं. आज अचानक समझ आया कि कमेंट मॉडरेशन के कुछ अन्य भी कारण हो सकते हैं ; यानि जो जो मैं समझता था उन से इतर भी.... .खैर , कोई बात नहीं कवि कुछ चीज़ों को देर से ही समझ पाता है.

इंशा की ये गज़लें पहली बार पढ़ रहा हूँ.
शानदार !