Friday, April 22, 2011
पहाड़ से लिपट लटक क्या करता बादल
इब्बार रब्बी की कविता का आस्वाद कबाड़ख़ाने पर आप पहले भी ले चुके हैं. आज पेश हैं उनकी कुछ अन्य कविताएं. दो मार्च १९४१ को जन्मे रब्बी जी बढ़िया पत्रकार और कवि हैं. उनके साथ रहते हुए मैंने हमेशा एक निश्छल व्यक्ति का सान्निध्य पाया है. आज उनका संग्रह लोगबाग पढ़ते हुए उनकी कुछ कविताओ को यहां पोस्ट करने की इच्छा हुई. रब्बी जी के तीन अन्य संग्रहों के नाम हैं खाँसती हुई नदी, घोषणा पत्र, और वर्षा में भीगकर.
वर्षा में भीगकर
वर्षा में भीगकर
सहज सरल हो गया,
गल गईं सारी क़िताबें
मैं मनुष्य हो गया.
खाली-खाली था
जीवन ही जीवन हो गया,
मैं भारी-भारी
हल्का-हल्का हो गया.
बरस रही हैं बूंदें
इनमें होकर
ऊपर को उठा
लपक कर तना
पानी का पेड़
आसमान हो गया
वर्षा में भीगकर
मैं महान हो गया.
फ़ोटो
(विष्णु नागर के लिए)
झोपड़-पट्टी का दृश्य है
30 मरे ज़हरीली शराब से।
रो रही हैं फटेहाल औरतें
आँसू ही आँसू
गीला है अख़बार।
किलक रहे हैं
नंग-धड़ंग बच्चे
फ़ोटो खिंचा है
पहली बार
ऋग्वेद पढ़ते हुए
मैं आदमी की जड़ों में
पहुँच गया
पीछॆ लौट गया
बचपन के बचपन में।
दूध पीता हुआ बच्चा
ख़ून के खेत में
क्या कर रहा है?
करोड़ों वर्ष पुराने कारख़ाने में
मुँह छिपाए
क्या कर रहा है?
माँ की गोदी में पाँव पटकता
क्या कर रहा है वहाँ
वात्सल्य के भँवर में तैरता
भूख के विरुद्ध
गुप्त कार्रवाई कर रहा है
बच्चा
पहाड़
यहाँ से वहाँ
विराट आलस में बिछा
महान अजगर
करवट तक नहीं लेता वह
गले में बाँह डाल
पहाड़ से लिपट लटक
क्या करता बादल
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इस ब्लॉग पर उनकी पिछली कविताओं के लिंक ये रहे -
इब्बार रब्बी की दाल
इब्बार रब्बी की पड़ताल
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इब्बार रब्बी
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2 comments:
पहाड़ से लिपट कर रोता है बादल।
Saare bahut acche hain :)
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