माया एन्जेलू की कविताओं की सीरीज़ में आज उनकी दूसरी कविता
असाधारण स्त्री
ख़ूबसूरत स्त्रियां हैरत करती हैं कहां है मेरा रहस्य.
न तो मैं आकर्षक हूं न मेरी देहयष्टि किसी फ़ैशन मॉडल जैसी
लेकिन जब मैं उन्हें बताना शुरू करती हूं
वे सोचती हैं मैं झूठ बोल रही हूं.
मैं कहती हूं
कि यह मेरी बांहों की पहुंच में है
मेरे नितम्बों के पसराव में
मेरे मुड़े हुए होंठों में
कि मैं एक स्त्री हूं
असाधारण तरीके से
एक असाधारण स्त्री
वह हूं मैं.
मैं एक कमरे में प्रवेश करती हूं
ऐसे अन्दाज़ से जैसे आप चाहें
एक आदमी की तरफ़
जिसके गिर्द लोग होते हैं
या घुटनों के बल उसके सामने.
तब वे मेरे चारों तरफ़ इकठ्ठा हो जाते हैं
जैसे मधुमक्खियों का कोई छत्ता होऊं मैं.
मैं कहती हूं
यह मेरी आंखों की लपट में
मेरी कमर की लचक में
और मेरे पैरों की प्रसन्नता में है
कि मैं एक स्त्री हूं
असाधारण तरीके से
एक असाधारण स्त्री
वह हूं मैं.
ख़ुद आदमियों को अचरज होता है
उन्हें क्या दीखता है मुझमें
वे इतनी मशक्कत करते हैं
पर वे नहीं छू सकते
मेरे भीतरी रहस्य को.
जब मैं दिखाने की कोशिश करती हूं
वे कहते हैं वे अब भी मुझे नहीं देख सकते
मैं कहती हूं
यह मेरी पीठ की चाप में है
मेरी मुस्कान के सूर्य में है
मेरे स्तनों की सैर में है
मेरी अदा की गरिमा में है.
मैं एक स्त्री हूं.
असाधारण तरीके से
एक असाधारण स्त्री
वह हूं मैं.
अब तुम समझ रहे हो
क्यों मेरा सिर झुका हुआ नहीं है
मैं चिल्लाती नहीं उछल कूद नहीं मचाती
न मुझे बहुत ज़ोर से बोलना होता है.
जब आप मुझे गुज़रता हुआ देखें
इसने आपको भर देना चाहिए गर्व से.
मैं कहती हूं
यह मेरी एड़ियों की खटखट में है
मेरे केशों के मुड़ाव में है
मेरी हथेली में है
परवाह किए जाने की मेरी ज़रूरत में है
क्योंकि मैं एक स्त्री हूं
असाधारण तरीके से
एक असाधारण स्त्री
वह हूं मैं.
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