Sunday, May 15, 2011

बंगाल में लैफ़्ट की पराजय के बहाने


एक अत्यंत अफ़सोस और उसके बाद

-शिवप्रसाद जोशी

जर्मन रेडियो की हिंदी सेवा के लिए लोकसभा चुनाव के दौरान जब महाश्वेता देवी का इंटरव्यू किया था तो उन्होंने बहुत दुख से कहा था कि वामपंथियों को सबसे आगे बढ़कर उन्होंने सपोर्ट किया था लेकिन उन्होंने यानी पश्चिम बंगाल की वाम सरकार के प्रतिनिधियों ने रास्ता बदल दिया. वे जाएंगें. गहरी आंतरिक चुभन के साथ ये बात महाश्वेता देवी ने 2009 में कही थी. ममता बनर्जी के बारे में उनका कहना था कि उसकी छवि एक ऐसी नेता की है जिसके पास कोई दुखियारी महिला जाकर उसके कंधे पर अपना माथा रख कर रो सकती है अपना दुख सुना सकती है. वहां कोई भी पहुंच सकता है.

ममता की पोशाक से लेकर व्यवहार तक महाश्वेता देवी ने पश्चिम बंगाल में एक बदलाव की सूत्रधार उनको बता दिया था. बुद्धदेब भट्टाचार्य को उन्होंने एक नाकाम और फ़ैसले करने में कमज़ोर सीएम माना था. उनका कहना था कि उनके आजूबाजू ऐसे लोग हैं जो उन्हें सही राय नहीं देते. महाश्वेता ने बताया था कि पश्चिम बंगाल में महिलाओं के हालात बदतर हैं. शिक्षा स्कूल अस्पताल की तंगी है. लोग परेशान हैं. सेज़ ने जीना दूभर कर दिया है.

आख़िर में जब मैंने पूछा था कि आपके इस स्टैंड से प्रतिक्रियावादी फ़ोर्सेज़ को जगह बनाने का मौक़ा मिलेगा तो इस पर महाश्वेता ने कहा था कि सत्ता राजनीति में, वोट की इस राजनीति में एक ओर बाघ होता है एक ओर मगरमच्छ, आपको कम ख़तरनाक चुनना पड़ता है. आपको अपनी बेहतरी के लिए जनता की बेहतरी के लिए समझौते करने होते हैं. ये समझौते उलटे भी पड़ सकते हैं लेकिन आख़िरकार जनता के हाथ में सब कुछ है. उनका कहना था कि वाम रेजीम में जनता की आवाज़ ग़ुम हो गई है, इसलिए उसका जाना ज़रूरी है. महाश्वेता के मुताबिक बंगाल को चेंज चाहिए एक परिवर्तन. जो आएगा उसे काम करना पड़ेगा.

2009 में कही गई ये बातें उसके बाद विभिन्न रूपों में पश्चिम बंगाल में अपनी छाप छोड़ती रहीं. वामपंथी सरकार को लोकसभा चुनाव नगरपालिका चुनाव में हार मिली. राजनैतिक नुक़सान भी हुए. ज्योति बसु नहीं रहे. एक बहुत बड़ा शून्य पैदा हो गया और इसे बडी़ चतुराई से भर दिया ममता बनर्जी ने. बुद्धदेब कुछ नहीं कर पाए, वो हाथ मलते रह गए. पश्चिम बंगाल में 34 साल का वाम शासन ममता के आगे ढह गया. ख़ैर जब क़िले बना दिए जाते हैं तो उन्हें ढहना भी होता ही है. ये ऐतिहासिक सच्चाई भी है.

सीपीएम कथित आत्ममंथन के कई छिटपुट दौर तबसे कर चुकी है. प्रकाश करात को अब क्या करना चाहिए. राजनैतिक रूप से किसे और एक्सरसाइज़ की ज़रूरत है. एक जो दुख सीपीएम ने इस देश की वाम बौद्धिक संघर्षशील बिरादरी को दिया है क्या उसकी भरपाई वो करेगी. जो उम्मीदें उसने तोड़ी हैं उसका कोई हिसाब है, जो ग़लत राजनैतिक आर्थिक फ़ैसले पश्चिम बंगाल से लेकर केरल तक किए गए हैं उनका कोई जवाब है. क्या सीपीएम को नया नेतृत्व तलाश करना होगा. सुरजीत और बसु के बूढ़े कंधों पर ये पार्टी जिस ताप से धधकती थी वो इन युवतर नेताओं के कंधों पर क्यों हांफने लगी है. क्यों उसका लाल रंग फीका हो रहा है.

चुनावी राजनीति में ये हार कोई पहली असाधारण नहीं है. शासन बदलते जाते हैं. सत्ता में पार्टियां आती जाती हैं. हारजीत से इतर इसमें सीपीएम जैसी ग़रीबों वंचितों उत्पीड़ितों के हक़ में बोलने का दावा करने वाली पार्टी के एक बुर्ज़ुआ दबाव ग्रुप में बदल जाने की दारुणता छिपी है. इसमें ये बुनियादी और बहुत परेशान करने वाला सवाल छिपा है कि इस पार्टी और इस पार्टी समूह ने हम सबका यक़ीन आख़िर क्यों छीना.

अब और ख़तरे बढ़ गए हैं. प्रतिक्रियावादी और ज़ोर से हमला करेंगे. वे शोर करेंगे. बंदरों की तरह उछलकूद करेंगें. वे हर जगह चले जाएंगे. अखबार टीवी इंटरनेट बाज़ार बंगाल कोलकाता ख़ामोशी सब जगह. वामपंथियों को कॉर्नर करने की कोशिशें जो इधर बढ़ चली थीं वे तेज़ होंगी. जनता के हक़ में लड़ने वाले वे लोग जो सत्ताधारी वाम से अलग खड़े हैं और प्रतिरोध की ईमानदारी में अपना सर्वस्व लुटा रहे हैं वे जो साहस से समाज में हैं वे जो अप्रिय सवाल करते हैं और पत्थर और आलोचना और निंदा झेलते हैं वे जो लिखते हैं लिखते जाते हैं जो एक अपने निजी मार्क्सवाद के साथ इच्छाओं और वासनाओं और रंगीनियों को ठुकरा चुके हैं, ठुकरा रहे हैं, वे सब और हमलों और भी अलग अलग क़िस्मों के हमलों के सामने होंगे. एक बहुत कठिन समय और आने वाला है.

पश्चिम बंगाल की 34 साल पुरानी लेफ़्ट सरकार की मदद के बिना भी जो लड़ाई समाज में जन मूल्यों के लिए लड़ी जा रही थी उसे और चोटिल करने की कोशिशें होंगी. इसलिए कि वे लोग वे प्रतिक्रियावादी वे नवआर्थिकी के नुमाएंदे सिपहसालार वे गणमान्य वे नवउदारवाद के समर्थक वे मध्यवर्गीय यथास्थितिवादी इस लड़ाई को भी मुख्यधारा की वाम वैचारिकी से जोड़ते हैं. वे कहेंगे हैं अरे ये तो लेफ़्ट वाले हैं ये बंगाल में गए केरल में गए कहां चलेंगे इन्हें भगाओ इन्हें मारो.

ये फ़ॉलआउट है. जो यूं भी अपने भयावह इशारों के साथ हौले हौले हम सबके जीवन से टकरा ही रहा था. क्या प्रकाश करात को या बुद्धदेब को या बिमान बसु को या विजयन को या किसी और लालबत्तीधारी वामपंथी को ये अवश्यंभाविता नहीं दिखती थी. क्या इससे टकराने की उनकी तैयारी अधूरी और अशक्त थी.

उन्होंने अपने बाजू किन लोगों को किन ताक़तों को पनाह दी. उन्होंने जंतरमंतर की हज़ारे मुहिम पर जाने में संकोच नहीं हुआ, नंदीग्राम सिंगूर करने में संकोच नहीं हुआ विनतियां करने में संकोच नहीं हुआ, उन्हें एक जनांदोलन की आग में कूदने और उसपर से गुज़र जाने में संकोच क्यों हुआ. कैसे भी कैसे भी उस आग को बुझाने वालों के साथ वे कब और क्यों शामिल हो गए. वे निस्संकोच वहां क्यों चले गए.

5 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

अन्ततः विकास हो, जीत जनता की ही हो।

Neeraj said...

अब क्या कहा जाए ? वामपंथ के साथ सबसे बड़ी दिक्कत ये है कि जिसके हक के लिए लड़ने का वो दावा करती है , उसी की अक्ल पे शक करती है | उसे लगता है कि हमीं हैं बस जिसे अक्ल है |

मुकेश "जैफ" said...

क्या अब अायेगा बंगाल में परिवर्तन?

abcd said...

so finally......it was a one man show(AS ALWAYS IT IS!!)-JYOTI BASU.

स्वप्नदर्शी said...

I think this is a good opportunity for left for introspection, And a lesson to all politician that practice matters more than preaching.

Irrespective of ideology the politicians should always live in fear that they will be made accountable...