Thursday, May 12, 2011

कौन हैं मुमिआ अबू-जमाल? - २


(पिछली पोस्ट से आगे)

जूरी के चयन के दौरान न्यायाधीश साबो ने सम्भावित जूरी से सवाल करने से मुमिआ को रोक दिया. साबो ने मुमिआ के बारे में कहा कि "खतरनाक दिखने वाला यह काला व्यक्ति जूरी के सदसों को धमकाता है." साबो की यह टिप्पणी अपने आप में नस्ली भेदभाव से भरी हुई है. २ जून १९९५ को पेंसिलवानिया के गवर्नर ने मुमिआ के डैथ-वारन्ट पर दस्तख़त किए जिसमें कहा गया था कि १७ अगस्त १९९५ को रात में दस बजे मौत की सज़ा दे दी जाए.

दिसम्बर २००१ में फ़िलाडेल्फ़िया के संघीय जिला जज विलियम यान ने मुमिआ का मृत्युदण्ड रद्द कर दिया और नए सिरे से मुकदमा चलाने की घोषणा की. मुमिआ के समर्थन में बने विभिन्न संगठनों की मांग थी कि मुकदमे के दौरान उन चश्मदीद गवाहों के बयान दर्ज़ किए जाएं जो ९ दिसंबर १९८१ को घटनास्थल पर मौजूद थे और जिनके बयान लेने से पिछली अदालतों ने बराबर इन्कार किया. इस में सबसे महत्वपूर्ण गवाही आर्नल्ड बेवर्ली की थी जिसने स्वीकार किया कि उसकी गोली से पुलिस अधिकारी फ़ॉक्नर की मौत हुई है. बेवर्ली का टेप किया बयान उपलब्ध है जिसमें उसने बताया है कि किस प्रकाए फ़िलाडेल्फ़िया के भ्रष्ट पुलिस अधिकारियों ने ही फ़ॉक्नर की हत्या की साज़िश तैयार की क्योंकि फ़ॉक्नर एक ईमानदार अधिकारी थे और उनकी मौजूदगी से भ्रष्ट अफ़सरों को दिक्कत हो रही थी.

मुमिआ के मामले पर एमनेस्टी इन्टरनेशनल ने जो टिप्पणी की है उस से समग्र रूप से कालों के प्रति अमेरिकी न्याय प्रणाली पर प्रकाश पड़ता है. अमेरिका में मृत्युदण्ड का इस्तेमाल नस्ल-आधारित है. कुछ क्षेत्रों में तो यह उन्हीं लोगों के लिए सुरक्षित है जो गोरे नहीं हैं. यह निष्कर्ष एम्नेस्टी इन्टरनेशनल का है. रिपोर्ट में कई ऐसे उदाहरण दिए गए हैं जिनसे पता चलता है कि न्यायिक प्रक्रिया के दौरान कदम-कदम पर नस्ली पूर्वाग्रह दिखाई देते हैं. एमनेस्टी इन्टरनेशनल अमेरिका के कार्यकारी निदेशक डॉ. विलियम एफ़. स्कज का कहना है कि "अमेरिका में आज जो भी व्यक्ति किसी अपराध में शामिल है उसे जीवित रहना है या मरना है इस बात पर निर्भर करता है कि उसकी चमड़ी का रंग क्या है."

एमनेस्टी ने इस संदर्भ में एक पुस्तक भी प्रकाशित की है "पूर्वाग्रहयुक्त हत्या: अमेरिका में मृत्युदण्ड". इस पुस्तक में कहा गया है कि अतीत की तुलना में आज नस्ली भेदभाव ज़्यादा चतुराई और कुशलता के साथ किया जाता है लेकिन अमेरिकी कानून प्रणाली में इसकी पहले की ही तरह ख़तरनाक भूमिका है.


अमेरिका की आबादी में कालों की संख्या १४ प्रतिशत से अधिक है लेकिन कानून की निगाह में कालों के मुकाबले गोरों की ज़िन्दगी कहीं ज़्यादा कीमती है. अगर किसी ने किसी गोरे व्यक्ति की हत्या कर दी है तो उसे मृत्युदण्ड मिलना ही है जबकि इस के विपरीत अवस्था में ऐसा नहीं होता. १९७७ से १९९८ के बीच जिन ५०० लोगों को मृत्युदण्ड दिया गया उनमें से ८१% से भी ज़्यादा ऐसे लोग थे जिन पर किसी गोरे की हत्या का आरोप था. हालत यह है कि गोरे व्यक्ति द्वारा काले लोगों की हत्या के मामले भी लगभग समान हैं. एमनेस्टी इन्टरनेशनल ने नस्लगत आधार पर मृत्युदण्ड के इस्तेमाल का मामला लगातार कई वर्षों तक अमेरिकी अधिकारियों के समक्ष रखा है लेकिन इस पर कोई कार्रवाई नहीं हुई. डॉ. स्कज का कहना है - "केवल गोरों के लिए" जैसे चिन्ह जो १९५० के दशक में आम थे, अब दिखाई नहीं देते लेकिन नस्लवाद आज भी पहले की ही तरह है.

रिपोर्ट में ऐसे कई मामलों का उल्लेख किया गया है जिनमें न्यायाधीश ने अपना निर्णय सुनाते समय ख़ुद ही ऐसी सब्दावली का प्रयोग किया है जो नस्ली भेदभाव से भरी हो. एमनेस्टी इन्टरनेशनल का मानना है कि लाख कोशिशों के बावजूद अगर नस्ली मानसिकता समाप्त नहीं होती है तो अच्छा यही है कि मृत्युदण्ड को बिल्कुल समाप्त कर दिया जाए. एमनेस्टी इन्टरनेशनल का निष्कर्ष है कि मुमिआ का मुकदमा जिस तनाव और दुर्भावनापूर्ण वातावरण में हुआ, उसमें न्याय संभव ही नहीं था. ऐसा लगता है कि जैसे जजों ने पहले से ही यह मानसिकता बना ली थी कि इस मामले में मुमिआ को मृत्युदण्ड देना ही है.

मुमिआ अबू-जमाल के मामले में नोम चोम्स्की "अनावश्यक लोगों से अमेरिका को मुक्त कराने के सरकारी नव-उदारवादी अभियान" का एक अंग मानते हैं. इस मामले में अमेरिका में बसे अथवा रह रहे एशियाई मूल के लोगों में भी काफ़ी बेचैनी पैदा कर दी है. ११ सितम्बर की घटना के बाद आतंकवाद के सफ़ाए के नाम पर बुश प्रशासन ने जिस तरह एशियाइयों को अपना निशाना बनाया उस से एक बार फिर अमरीका के नस्लवाद पर लोगों का ध्यान गया है. २००३ में "मोबिलाइज़ेशन टु फ़्री मुमिआ अबू-जमाल" और "यू सी बर्कले डिपार्टमेन्ट ऑफ़ एथनिक स्टडीज़" ने एक सम्मेलन आयोजित किया जिसमें ३५० प्रतिनिधियों ने भाग लिया. इसमें चिन्ता व्यक्त की गई कि ११ सितम्बर की घटना के बाद देशभर में तीन हज़ार से अधिक लोगों को इसलिए जेल में डाल दिया गया कि वे इस्लाम धर्म मानते थे और अश्वेत थे. वैसे भी अमेरिका की जेलों में सबसे ज़्यादा संख्या कालों और अश्वेतों की ही है. "एशियन्स फ़ॉर मुमिआ" नामक संगठन ने बड़े पैमाने पर हस्ताक्षर अभियान चला रखा है जिसमें मुमिआ अबू-जमाल की तुरन्त रिहाई की मांग की गई है.

(समकालीन तीसरी दुनिया के सितम्बर २०१० अंक से साभार. कल पढि़ये मुमिआ का एक साक्षात्कार)

पुनश्च: इस लेख के लिखे जाने के बाद से तस्वीर में इतना ही बदलाव आया है कि २६ अप्रैल २०११ को थर्ड सर्किट कोर्ट ऑफ़ अपील ने मुमिआ की मृत्युदण्ड की याचिका पर दोबारा सुनवाई का आदेश जारी किया है. मृत्युदण्ड दोबारा लागू किया जा सकता है या अबू-जमाल को बिना पैरोल के जीवनदण्ड दिया जा सकता है. देखिये!

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