कथाकार सूरज प्रकाश ने ख़ास कबाड़ख़ाने के वास्ते यह रचना भेजी है. लुत्फ़ उठाइए:
ढाई फुट X साढ़े तीन फुट के भीतर चालीस बरस
पिछले दिनों पुणे में एक होटल में ठहरना हुआ. होटल एक मॉल की पांचवीं और छठी मंजि़ल पर था. पहली मंजि़ल से तीसरी मंजिल पर खाना-पीना, कुछ दुकानें और सिनेमाघर. इनके लिए लोग लिफ्ट का इस्तेमाल कम ही करते. चौथी मंजि़ल पर सिनेमाघरों के स्क्रीन के कारण लिफ्ट रुकती नहीं थी.
तो मैं होटल में आने-जाने के लिए जब भी लिफ्ट में गया, चाहे सुबह 6 बजे सैर पर जाने के लिए या देर रात कहीं से वापिस आने के लिए, लिफ्ट का बटन दबाते ही दरवाजा खुलता और मुझे उसके भीतर लिफ्टमैन खड़ा नज़र आता. दो-चार बार के बाद ही उसे पता चल गया था कि मैं होटल में रुका हूं तो वह बिना पूछे ही पांचवीं मंजिल का बटन दबा देता. उसे लिफ्ट के भीतर देखते ही मैं हर बार चौंक जाता और सोचने लगता – कितनी मुश्किल नौकरी है बेचारे की. होटल में कुल तीस कमरे हैं और दो लिफ्ट. ये तय है कि होटल में आने-जाने का समय आम तौर पर सुबह नौ-दस बजे और होटल के चैक-इन और चैक-आउट के समय ही ज्यादा होता होगा. ऐसे में जब लिफ्ट नहीं चल रही होती तो वह बेचारा किसी न किसी के द्वारा बटन दबाये जाने का इंतजार करता रहता होगा. खड़े-खड़े, क्योंकि लिफ्ट में स्टूल नहीं है. ये इंतज़ार कई-कई बार घंटों का भी रहता होगा. अगर वह लिफ्ट के बाहर भी खड़ा हो कर इंतज़ार करे तो एक तरफ होटल की लॉबी और दूसरी तरफ रिसेप्शन. वहां भी भला उससे बात करने वाला कौन होगा! वैसे भी लिफ्टमैन बेचारा सिर्फ फ्लोर नम्बर पूछने के अलावा बोलता ही कहां है. सुनने के नाम पर उसके हिस्से में लिफ्ट में कुछ पलों के लिए आये मुसाफिरों के आधे अधूरे वाक्य ही तो आते हैं जो हर मुसाफिर के जाने के बाद हमेशा के लिए आधे ही रह जाते हैं. लिफ्टमैन की पूरी जिंदगी ये आधे अधूरे वाक्य सुनते ही गुज़र जाती है. दुनिया भर के लिफ्टमैन आधा-अधूरा सुनने और सिर्फ फ्लोर नम्बर पूछने के लिए अभिशप्त हैं.
पूछा था मैंने उस लिफ्टमैन से कि कितने घंटे की नौकरी है और कि क्या अजीब नहीं लगता बंद लिफ्ट में इस तरह से लगातार खड़े रहना और इंतज़ार करना कि कोई बटन दबाये तो लिफ्ट ऊपर या नीचे हो. वह झेंपी हुई हँसी हँसा था - साब, नौकरी यही है तो किससे शिकायत. दस घंटे की ड्यूटी होती है और बीच-बीच में रिलीवर आ जाता है. तब मैंने हिसाब लगाया था - यही लिफ्टमैन अकेला तो नहीं है जो लिफ्ट, यानी ढाई फुट X साढ़े तीन फुट की सुनसान जगह के भीतर खड़ा है. हमेशा बाहर से बटन दबाये जाने के इंतज़ार में. खुद बटन दबाये भी क्या हो जाने वाला है. अपनी मर्जी से लिफ्ट को कहीं और ले जा भी नहीं सकता. सिर्फ ऊपर या सिर्फ नीचे.
पुणे में ऐसे पचीसों इमारतें होंगी, महाराष्ट्र में सैकड़ों, पूरे देश में हजारों और पूरी दुनिया में लाखों जहां ढाई फुट X साढ़े तीन फुट के भीतर एक न एक लिफ्टमैन खड़ा किसी न किसी के द्वारा बाहर से बटन दबाये जाने का इंतज़ार कर रहा होगा और ये इंतज़ार वह ढाई फुट X साढ़े तीन फुट के भीतर तब तक करता रहेगा जब तक वह इस काम से रिटायर न हो जाये या उसे कोई बेहतर काम न मिल जाये. तब उसकी जगह कोई और वर्दीधारी, टाई लगाये दूसरा लिफ्टमैन आ जायेगा. अपनी उम्र के चालीस बरस वहां गुजारने के लिए. ढाई फुट X साढ़े तीन फुट की सुनसान जगह में. बाहर से बटन दबाये जाने के इंतज़ार में. आधे अधूरे संवाद सुनने के लिए अभिशप्त.
इससे पहले कि लिफ्टमैन मुझे सलाम करे और मेरा फ्लोर नम्बर पूछे, मैं दुनिया भर के ऐसे सारे लिफ्टमैनों को सलाम करता हूं.
12 comments:
अच्छा लगा आलेख.. मेरी एक कविता है लिफ्टमैन... शेयर करता हूँ.. शायद यह देख अशोक पण्डे जी मुझे भी कबाड़ी बनाने का अवसर देंगे....कबाड़ी बनाने का मेरा आवेदन सरकारी दफ्तर की तरह लंबित है कोई साल भर से...
लिफ्टमैन
किसी भी
बहुमंजिले कार्पोरेट टावर में
होती हैं कई कई लिफ्ट
जो चलती हैं
भूतल के दो तल नीचे से
सबसे ऊपर मंजिल तक
और प्रत्येक लिफ्ट में
होता है एक लिफ्टमैन
पूरी तरह सुसज्जित
चेहरे पर मुस्कान लगाये
और संक्षिप्त अभिवादन करते
सुबह से देर रात तक
यांत्रिक सा
जिन लिफ्टों में
तय होता है
व्यापारिक नीतियों का सफ़र
विपणन की रणनीति
एक मंजिल से दूसरी मंजिल तक
तटस्थ रूप से
होता है खामोश
लिफ्टमैन
गिरते सेंसेक्स पर
जब कोई छलांग मारता है
सबसे ऊपरी मजिल से नीचे
लिफ्टमैन ही
पहुंचाया होता है उसे
सबसे ऊपरी मंजिल पर
रोक लिया होता उसने
यदि नही होता
उसे निर्देश
तटस्थता का
वह जो
रोज़ शाम को
आती है दफ्तर के
बंद होने के बाद
पब्लिक रिलेशन के नाम पर
बिल्कुल अच्छा नहीं लगता
लिफ्टमैन को
वह नहीं ले जाना चाहता है
लिफ्ट उसके निर्देश पर
चाहता है कि
पंहुचा दे उसे घर वापस
या फिर लगा दे
एक जोरदार चांटा
भाई स्वरुप
कई बार
जब देर रात को
उतर रहे होते हैं
वे दो
लिफ्टमैन
स्वयं ही नहीं उतरता मंजिले
उनके साथ
प्रार्थना करता है
ईश्वर से
जिसकी पिछले साल
हुई थी शादी
अभी पेट से है
उसे देख कर
लिफ्टमैन को
याद आती है
अपनी घरवाली
उसे सुध नहीं रहती
मंजिलो की
जब बंद हो जाते हैं
दफ्तर सभी
सुस्ताते हैं दोनों
लिफ्ट और लिफ्टमैन
बहुत बातें करता है
वह लिफ्ट से
अपनी पत्नी
होने वाले बच्चे के बारे में
आदमियों के
जाने के बाद ही
आदमी सा मह्सूस कर पाता है
यांत्रिक सा दिखने वाला
तटस्थ लिफ्टमैन
अरुण चन्द्र रॉय at Thursday, March 10, २०११ www.aruncroy.blogspot.com
समाज के हर कोने में आपको ऐसे व्यक्ति मिल जायेंगे। चाहे सड़क का कचरा साफ करने वाला कर्मचारी हो या मैनहोल साफ करने वाला, रेलगाड़ी का ड्राइवर हो या सरकारी कार का ड्राइवर सबकी अपनी अपनी अलग कहानी है।
आप जैसे कुछ अच्छे लोगों से हुयी बातचीत ही उसके ढाईफुटा कार्यक्षेत्र का विस्तार है।
liftmen ke ooper aapki ssoch or uski yuatha ka chitran sahi he kitne log he jo etna sab sochate he? per anya logo se hatkar aap he ek sahityakar ki drasti hi etna soch sakati he
इससे पहले कि लिफ्टमैन मुझे सलाम करे और मेरा फ्लोर नम्बर पूछे, मैं दुनिया भर के ऐसे सारे लिफ्टमैनों को सलाम करता हूं.
ऐसे उपेक्षित पात्र को नायक बनाकर आलेख और कविता लिखने वालों को सलाम. लिफ्टमैन, अखबार वाला,रिसेप्शनिस्ट आदि के साथ लगभग ऐसा ही व्यवहार होता रहता है, उस व्यवहार को लक्ष्य करके लिफ्टमैन कि तरफ से कुछ कहना विशेष है.
लिफ्टमैन की बात सामने लाने वालों को भी सलाम. कोई तो है जिसने इन उपेक्षित रहे पात्र को नायक बना कर आलेख व कविता लिखी, उन्हे लिफ्ट की भांति यंत्र नही समझा.
लिफ्टमैन की बात सामने लाने वालों को भी सलाम. कोई तो है जिसने इन उपेक्षित रहे पात्र को नायक बना कर आलेख व कविता लिखी, उन्हे लिफ्ट की भांति यंत्र नही समझा.
लिफ्टमैन की बात सामने लाने वालों को भी सलाम. कोई तो है जिसने इन उपेक्षित रहे पात्र को नायक बना कर आलेख व कविता लिखी, उन्हे लिफ्ट की भांति यंत्र नही समझा.
लिफ्टमैन की बात सामने लाने वालों को भी सलाम. कोई तो है जिसने इन उपेक्षित रहे पात्र को नायक बना कर आलेख व कविता लिखी, उन्हे लिफ्ट की भांति यंत्र नही समझा.
लिफ्टमैन की बात सामने लाने वालों को भी सलाम. कोई तो है जिसने इन उपेक्षित रहे पात्र को नायक बना कर आलेख व कविता लिखी, उन्हे लिफ्ट की भांति यंत्र नही समझा.
लिफ्टमैन की बात सामने लाने वालों को भी सलाम. कोई तो है जिसने इन उपेक्षित रहे पात्र को नायक बना कर आलेख व कविता लिखी, उन्हे लिफ्ट की भांति यंत्र नही समझा.
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