Wednesday, May 11, 2011

और मैं भी मनुष्य जब तक हूँ तब तक हूँ


असद ज़ैदी की एक कविता

अप्रकाशित कविता

एक कविता जो पहले ही से ख़राब थी
होती जा रही है अब और ख़राब

कोई इन्सानी कोशिश उसे सुधार नहीं सकती
मेहनत से और बिगाड़ होता है पैदा
वह संगीन से संगीनतर होती जाती
एक स्थायी दुर्घटना है
सारी रचनाओं को उसकी बगल से
लम्बा चक्कर काटकर गुज़रना पड़ता है

मैं क्या करूँ उस शिथिल
सीसे-सी भारी काया को
जिसके आगे प्रकाशित कविताएँ महज तितलियाँ है और
सारी समालोचना राख

मनुष्यों में वह सिर्फ़ मुझे पहचानती है
और मैं भी मनुष्य जब तक हूँ तब तक हूँ।

2 comments:

Pushpendra Vir Sahil पुष्पेन्द्र वीर साहिल said...

मैं भी मनुष्य जब तक हूँ तब तक हूँ .... a certain uncertainty...

प्रवीण पाण्डेय said...

कविता और मनुष्य का पुराना सम्बन्ध है।