Thursday, May 26, 2011

शताब्दी के अन्त के लिए कविता


शताब्दी के अन्त के लिए कविता

चेस्वाव मीवोश

जब सब कुछ भला था
और गायब हो चुकी थी पाप की अवधारणा
और बिना सम्प्रदायों और कल्पनालोकों के
एक सार्वभौम शान्ति में
धरती तैयार थी
चीज़ों का इस्तेमाल करने और प्रसन्न होने के लिए.

अज्ञात कारणों से
मैं घिरा हुआ था
फ़रिश्तों और धर्मशास्त्रियों
दार्शनिकों और कवियों की किताबों से
और किसी उत्तर को खोजता था,
त्यौरियां चढ़ाए, मुंह बनाता हुआ
रातों को जगता, भोर में बड़बड़ाता.

मुझे जिस चीज़ ने इस कदर सताया
वह थोड़ी शर्मनाक थी.
उसका नाम लेने में
न तो चालाकी नज़र आएगी न समझदारी.
वह मनुष्यता के स्वास्थ्य के खिलाफ़
उपद्रव तक लग सकता है.

आह, मेरी स्मृति
मुझे छोड़ना ही नहीं चाहती
और उसके भीतर लोग रहते हैं
हरेक के पास अपना दर्द
हरेक के पास अपना मरना,
इसकी अपनी थरथराहट.

तो स्वर्ग सरीखे समुद्रतटों पर
निष्कपटता क्यों,
स्वास्थ्य के गिरजाघर के ऊपर
एक त्रुटिहीन आसमान?
क्या ऐसा इसलिए है कि
वह बहुत पुरानी बात है?

एक अरबी कथा के मुताबिक
एक सन्त पुरुष से
तनिक दुर्भावना के साथ ईश्वर ने कहा
"अगर मैंने लोगों के बता दिया होता
तुम कितने बड़े पापी हो
तो वे तुम्हारी प्रशंसा न करते."

"और अगर" सन्त ने जवाब दिया
"मैंने उन्हें बता दिया होता
कि आप कितने दयालु हैं
तो वे आपकी परवाह तक न करते."

दुनिया की संरचना के भीतर
दर्द और अपराधबोध
के उस काले मसले के साथ
किसका मुंह तकूं मैं,
या तो यहां नीचे
या उधर ऊपर
कोई भी ताकत
कारण और परिणाम को नष्ट नहीं कर सकती?

मत सोचो, मत करो याद
सलीब पर मौत को,
अलबत्ता वह मरता है हर रोज़,
वह इकलौता, सब को प्रेम करने वाला
जिसने बिना किसी ज़रूरत के
सहमति दी और
यातना देने वाली कीलों समेत
हरेक चीज़ को बने रहने की इजाज़त दी.

पूरी तरह गूढ़.
असम्भव जटिल.
बेहतर है वाणी पर रोक लगा दी जाए.
लोगों के लिए नहीं है यह भाषा.
प्रसन्नता को आशीष मिले.
अंगूर और फ़सल.
चाहे हर किसी को न मिले
शान्ति.

1 comment:

Shalini kaushik said...

पूरी तरह गूढ़.
असम्भव जटिल.
बेहतर है वाणी पर रोक लगा दी जाए.
लोगों के लिए नहीं है यह भाषा.
प्रसन्नता को आशीष मिले.
अंगूर और फ़सल.
चाहे हर किसी को न मिले
शान्ति.
bahut sundar prastuti.aisee adbhut prastuti kar aap apne blog ko kabadkhana kyon likhte hain ye to ''guldasta ''kahlane yogya hai.