Tuesday, June 14, 2011

हम भारत के लोग और हमारा एक नागरिक हुसैन

मेरी कतिपय व्यक्तिगत समस्याओं के कारण भाई शिवप्रसाद जोशी द्वारा भेजा गया यह आलेख मैं थोड़ी देर से लगा रहा हूं. उस के लिए क्षमाप्रार्थी हूं.


एक नागरिक हुसैन
-शिवप्रसाद जोशी

दिल्ली में बहुत साल पहले हुसैन अपनी कोयला सीरिज की पेंटिग्स लेकर आए थे. कोयला बंबई की मसाला फिल्म थी जिसके नायक शाहरूख खान और नायिका माधुरी दीक्षित थी. माधुरी को उस दौरान हुसैन पेंटिग्स में ला रहे थे. कोयला फिल्म से भी उन्होंने इंप्रेशन उतारे थे. मीडिया के लिए ये दिलचस्प घटना थी. धडाधड कवरेज हो रही थी. उसी दौरान हुसैन से बातचीत का मौका मिला जी न्यूज के लिए. हुसैन का अपना एक ठाठ था. वो उस पांचसितारा होटल में पांव पर पांव रखे बैठे थे. अपने चिरपरिचित अंदाज में. कला पर मेरे कुछ सवालों के अटपटेपन पर उन्होंने लगभग डपटते हुए कहा था कि पेंटिग्स को और ध्यान से देखो सीखो. हालांकि वे पेंटिग्स पॉप्युलर खांचे की थीं पर हुसैन की वो छवि दिमाग से नहीं जाती. वो एक ऐसे देहाती लगते थे एक ऐसे हलवाहे जिसे कह दिया गया हो कि ये महंगी पोशाक पहनो ये महंगी कार रखो ये महंगा साजोसामान रखो और लंबे बालों नंगे पांवों एक लंबी कूची के साथ टहलो और स्टाइलिश बन जाओ.

हुसैन की पर्सनैलिटी का ये ठेठ ग्राम्य शेड ही होगा कि कूची भी उनके हाथ में खेतीबाडी के किसी औजार की तरह लगती थी. उनके हाथ लंबे फैले हुए और रूखे से थे, नसें उभरी हुई थीं और उन्हें देखकर लगता था कि जैसे वो भी कोई लैंडस्केप का टुकडा हो. उनमें एक अटपटापन था एक ऊबडखाबड टैक्सचर एक टेढामेढापन.

वे ऐसी किसानी धज और काया वाले हुसैन 21वीं सदी के मध्य के दशकों में देश से दूर कर दिए गए और कतर की नागरिकता लेने के लिए विवश किए गए, हिन्दुस्तान लौटना चाहते रहे पर मजहबी हुडदंगियों और धर्म और निंदा से भय खाते रहने वालों की एक भरीपूरी बिरादरी की अश्लीलता ने ये मुराद पूरी न होने दी. बाबाओं और ध्वज पताकाओं और विजय जुलूसों, ललकारों, बात बात पर गांधी और भगत सिंह के नामों को फुलाते हुंकारों, इधर न जाने मध्यवर्गीय नाकारापन के किस कोने से उठीं और एक झटके में सिविल सोसायटी कहलाई जा रही गदगद जमातों, नकली किस्म के अनशनों, नाना किस्म की प्रेस कॉफ्रेंसों भगवा और न जाने कौन से साजिश भरे रंगों से लोटती पोटती घबराती उखडती सरकारों उनके नुमायंदों सौदेबाज गुटों नक्कालों की रंगीनियों और रंगबाजियों के बीच सहसा तमाम रंगों से ऊपर उठता हुआ एक रंग फनां हो गया. एक कोने पर हुसैन के छाते रखे हुए हैं. उन्हें खोलने की अब जुर्रत भी न होगी किसी की. सारे रंग उन छातों ने सोख लिए हैं.


हुसैन बाहर नहीं रहना चाहते थे. उनकी जिंदगी थ्रू द आईज ऑफ पेंटर सरीखी थी जो उनकी एक फिल्म का नाम है. 1967 में बनी इस फिल्म को बर्लिन फिल्मोत्सव में गोल्डन बियर अवार्ड मिला था. कतर की नागरिकता लेकर रहने भले लगे थे लेकिन वे एक जगह रहते कहां थे. पर उनका मन देश पर अटका हुआ था. देश के लिए उनकी तडप उनकी वेदना ने उन्हें कमजोर करना शुरू कर दिया था. वो हैरान थे कि आखिर उनके और उनकी कला के बीच में कहां से आ गए वे लोग कौन हैं जो तय करने लगते थे कि कौन देश में रहेगा कौन नहीं. वे हैरान थे कि उन्हें किस आसानी से, किस सामरिक खुराफात के साथ बाहर ठेल दिया गया.
हुसैन के अभिनेत्री प्रेम और पेंटिग्स की चर्चा और विवाद तो खूब चटखारेदार शोरशराबे और हिंसक ढंग से होते रहे हैं लेकिन उनकी रचनाशीलता की वास्तविकता से परहेज करने की टेंडेंसी बनी रही है. ये जानने की कोशिश कोई नहीं करता कि कैसे हुसैन ने राममनोहर लोहिया के सुझाव पर रामायण सीरीज की पेंटिग्स बनाई थीं. उनकी कला के संरक्षक बद्री विशाल पित्ती के बारे में कितने लोग जानते हैं. कैसे उनकी कुछ पेंटिग्स विश्व कला में धरोहर जैसी हैं. कैसे वो अकेले भारतीय पेंटर हैं जिनकी कला में समूची भारतीयता, समूची भारतीय आत्मा रचीबसी है. आखिर इस बात पर कोई चर्चा क्यों नहीं होती कि हुसैन क्योंकर समस्त भारतीयता को उकेरने वाले सबसे अग्रणी चित्रकार हैं. सबसे आगे और हमेशा. वैसा कोई और हो नहीं सकता. हुसैन के लिए देश में रहना दूभर कर दिया गया था और देश से बाहर रहना उनके लिए दूभर था. वो गांव देहात के बेटे थे. उनकी कला इस देश की मिट्टी और तहजीब में घुली मिली थी. हिंदू हिंदू चिल्लाने वाली जमात क्या अब अपने कपडे फाडेगी कि हुसैन वहीं चले गए हैं जहां तमाम आराध्य रहते बताए जाते हैं.

नवउदारवाद के राजनैतिक, आर्थिक, धार्मिक जुनूनों के आगे नतमस्तक हो जाने वाली सरकारें हुसैन को देश वापस नहीं बुला पाईं. केंद्र सरकार की कभी इतनी हिम्मत नहीं हुई कि हुसैन के खिलाफ जो अजीबोगरीब मुकदमे पूरे देश भर में न जाने कहां कहां दर्ज हैं उन्हें रद्द कराए, कोर्ट में दलीले दें और अपने सबसे बडे चित्रकार देश के सबसे बुजुर्ग रचनाधर्मी को मान सम्मान दे पाए. अब तो बहुत देर हो चुकी है. हुसैन के साथी, प्रशंसक, शिष्य एक ऐसे अचंभे में दिखते हैं जिसका कोई जवाब नहीं सूझता, जो सच्ची मार्मिक टिप्पणियां आई हैं वे ऐसी हैं कि आप उनमें रोने रोने को हो उठने की हिचकी बंधी हुई महसूस कर सकते हैं. एक ऐसी उमडघुमड से भरी हिचकी जिसमें उलझन आवेग रेला और एक खीझ है. इस मोमेंटम को समझना बहुत मुश्किल है.
अब जैसे ये लग रहा है सबको क्या उन्हीं की गलती थी कि हुसैन वापस नहीं बुलाए जा सके. क्या इस देश में ऐसी कोई विराट साहसी मांग न उठ सकती थी जो हुसैन को लौटा लाने में उत्प्रेरक होती. उनसे क्षमा मांग सकने का साहस होता. क्या जंतर मंतर और रामलीला मैदान हमारे समय की वास्तविक लडाइयां हैं. हुसैन पर हर तरह से हमला करने वालों की आत्मा में क्या नश्तर जैसा कुछ चुभता होगा. क्या रीढ की हड्डी पर कोई कंपकंपी कोई सिहरन पसीने की कोई बूंद गुजरी होगी. एक साल पहले फरवरी में कतर की नागरिकता लेने को विवश हुए थे हुसैन, और उन पर किस किस ढंग से फब्तियां नहीं कसी गईं. उनका कितना अपमान किया गया. उनके काम को कैसे कैसे कोणों से न उधेडा गया. हुसैन के राम सीता हनुमान को नोंचने की कोशिशें की गईं. उनकी रेखाओं की ज्यामिति को छिन्नभिन्न किया जाता रहा. उस कला के नाजुक कांच पर किस किसने न जाने कितनी बार पांव न रखे. वह न टूटा न दरका न मुडा न गिरा. वह बस चलता गया.

जाहिर है एक इंसान आखिर कितना झेल सकता है. हुसैन को आखिर देश से जाना पडा. और अब 96 साल के हुसैन की मौत क्या लगता है आपको एक उम्रदराज व्यक्ति की स्वाभाविक मौत है. या ये मौत के घेरे तक धकेल दिए जाने की एक अप्रत्यक्ष प्रक्रिया थी. हुसैन की तूफानी रचनाधर्मिता का रिकॉर्ड बताता है कि वो थके हुए नहीं थे, वे लगातार काम करते थे. 2006 से वो बाहर हैं. 2010 में औपचारिक रूप से दूसरे देश के भी नागरिक हो गए. इस एक साल में हुसैन घर लौटने की इच्छा से इतनी तीव्रता और उससे इतर न जाने कौन से गहरे गम और क्षोभ से भरे हुए थे कि इस बात की तस्दीक मशहूर पेंटर रामकुमार के बयान से की जा सकती है जो बीबीसी हिंदी में उन्होंने हुसैन के साथ अपनी एक बातचीत के हवाले से दिया है कि जब उन्होंने हुसैन से पूछा कि क्या आपका देश आने का मन नहीं करता तो हुसैन साहब ने कहा कि मेरा मन करता है कि मैं खिडकी से कूद कर मर जाऊं.
हुसैन मर गए हैं. कांग्रेस की अगुवाई वाली भारत सरकार के प्रधानमंत्री ने कह दिया है कि नेशन को लॉस हो गया है. बीजेपी में शामिल बंबइया फिल्मों का एक पूर्व अभिनेता अपनी गर्जना भरी आवाज में कहता है मकबूल फिदा ‘हसन’ रेरस्ट ऑफ रेयर स्पेशीज थे, दुर्लभतम आर्टिस्ट थे.


मौत के बाद के ढोल बजते रहेंगे. हम कभी शर्मिंदा नहीं होंगे. हम जो बातबेबात पर इकट्ठा हो जाते हैं. दांत भींच लेते हैं मारने दौड पडते हैं हम जो समाधिस्थलों पर रातों में प्रेतों की तरह नाचने लगते हैं हम जो नैतिकता और इंसाफ को अपने अपने तराजू पर तौलते हैं हम भारत के नागरिक जो अपने एक बुजुर्ग सह नागरिक की हिफाजत नहीं कर पाते हैं हम जो अपनी कला को कुचलते हैं हम जंतर मंतर जाने वाले हम रामलीला मैदान जाने वाले हम वोट देने वाले हम आतताइयों के खौफ से डर कर रह जाने वाले हम घुटनों के बल घिसटने पर कोई एतराज न करने वाले इन दिनों एक धंसे हुए वक्त में एक धंसती हुई जाती हुई जगह पर गिरते डगमगाते रहने वाले लोग हैं. हम आखिर ये कैसी हो गईं जिंदा कौमें हैं. हम कितना और नष्ट हो जाएंगें.

हम भारत के लोग.

7 comments:

अमिताभ श्रीवास्तव said...

शिवप्रसाद जोशी साहब,

हर किसी का अपना प्रेम होता है, रुचि होती है..जरूरी कत्तई नहीं कि हर कोई किसी एक व्यक्ति विशेष को या उसकी कला को जाने समझे..। रही बात हुसैन साहब की तो आपका उनके प्रति, उनकी कला के प्रति प्रेम झलकता है..इसलिये आपने उस एक व्यक्ति के लिये देश को दांव पर खडा कर यह विचार प्रतिपादित कर डाला कि हम जमीन के नीचे और गड गए हैं. हम भारत के लोग. हम ये कैसी हो गईं जिंदा कौमें. ...., आपका दर्द विलग है इसे संभल कर रखिये.., उनकी चित्रकारी के आप कायल हो सकते हैं, उनकी वो चित्रकारी के भी जिन पर बवाल मचा..., कलाजगत की क्षति है..देश की क्षति से न जोडिये..क्योंकि देश को जिन्दा रखने वाले अभी भी मौजूद हैं....और जो यहां की संस्कृति, परंपरायें, विरासत, सभ्यता को जानते समझते हैं..सिर्फ चित्र बनाकर बेचकर करोडों कमाते नहीं....

varsha said...

फिर भी न जाने कुछ ऐसा लगता है कि हम जमीन के नीचे और गड गए हैं....
दुनिया अपने कवि और कलाकारों की पूजा करती है और हम उन्हें देश से बाहर जीने-मरने के लिए मजबूर करते हैं। उन्हें उस आबोहवा से दूर करते हैं, जो उनके लिए प्रेरणा का काम करती रही है।

Unknown said...

क्या हुसैन की पर्सनैलिटी का ये ठेठ ग्राम्य शेड कभी उनकी पेंटिग्स में भी दिखाई दिया है, ग्राम्य समाज में खेती बाड़ी की तमाम मुश्किलें, असम्भव और दुर्गम पहाड़ सी ज़िन्दगी, क़र्ज़ में डूबे किसानों की आत्महत्याएं आदि. उनकी प्रतिबद्धता अलग दिखाई देती है. हुसैन सम्पूर्ण भारतीयता को दिखाने वाले अकेले तो बहुत दूर ऐसे पेंटर्स के बहुत पीछे भी नहीं दिखाई देते. उनके घोड़े आलीशान एसी ड्राइंग रूम में हमेशा दौड़ते रहेंगे.

प्रवीण पाण्डेय said...

हम गुण दोषों की खिचड़ी बनाकर किसी व्यक्तित्व को चखने लग जाते हैं औऱ गुणों का अहित कर बैठते हैं।

प्रीतीश बारहठ said...

हूसैन की आत्मा को शांति मिले !
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रुदाली भी एक कला है!
और मरना तो दूर, अभी अप्रासंगिक भी नहीं हुई है।

Fauziya Reyaz said...

alfaazon ki kami ke liye maafi chaahti hun par abhi ye padh kar....chup rehne ka mann hai

रोहित said...

हुसैन के कलाकर्म और खासकर उनकी विवादित रही पेंटिग्स पर चित्रकार अशोक भौमिक तफसील से ने लिखा है. नीचे लिंक है समय हो तो देखें..
http://acanvas.blogspot.in/2010/03/blog-post_07.html