सुकुमार मुरलीधरन का यह आलेख शहीद पत्रकार हेमचन्द्र पांडे की पहली बरसी पर उनके मित्र-हितैषियों द्वारा प्रकशित पुस्तक से लिया गया है.
हेम होता तो सवाल उठाता
हेम चन्द्र पांडे की हत्या एक तथाकथित सशस्त्र मुठभेड़ में की गई जिसमें आंध्र प्रदेश पुलिस द्वारा प्रतिबन्धित कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ़ इन्डिया (माओवादी) के एक नेता, चेरुकुरी राजकुमार उर्फ़ आज़ाद का सफ़ाया किया गया. पहले हेम की शिनाख़्त नहीं हुई और शुरुआती मीडिया रपटों में उन्हें माओवादी काडर बतलाया गया. उनकी पहचान प्रेस में एक फ़ोटो प्रकाशित होने पर ही हो सकी.
इस मुठभेड़ के बारे में तब से बहुत ज़्यादा जानकारी नहीं मिली है सिवा जांच-पड़ताल के एक स्वतंत्र प्रयास के जिसके तहत तथाकथित मुठभेड़ वाले इलाके के नागरिकों से बातचीत की गई और जिसके बाद यह प्रमाणित हुआ कि यह घटना एक सोची-समझी हत्या थी. गृहमन्त्री ने इस मामले पर कुछ भी बोलने से इन्कार कर दिया और ऐसी किसी भी सम्भावना को नकार दिया कि घटना की जांच सी बी आई से कराई जाएगी. एकबारगी तो वे कानून और व्यवस्था के मसले पर राज्य सरकारों की एक्सक्लूसिव न्यायप्रणालियों की बाबत बेहद सतर्क साबित हुए.
तमाम व्यवस्थागत देरियों के बाद - जिन्हें राज्य और केन्द्र सरकारों द्वारा लगातार अटकाए जाए रहे रोड़ों ने अधिक दुरूह बनाया - मसला अन्ततः उच्चतम न्यायालय पहुंच सका. हत्या हुए छः माह से अधिक का समय बीत चुका था. इसके बाद न्यायालय द्वारा सरकार को एक निश्चित समयावधि में सारे प्रासंगिक विवरण एकत्र कर बेन्च के समक्ष पेश करने को कहा गया. न्यायालय द्वारा तय समयावधि के पूरा हो जाने के काफ़ी बाद, और उच्चतम न्यायालय द्वारा बार-बार सवालात किए जाने पर, सरकार ने मामले की जांच सीबीआई को सौंपने का निर्णय लिया.
अगर भारतीय सत्ता-उपकरण के मध्यकालीन तौर-तरीके सत्य की खोज करने का धुंधला सा भरम भी पैदा कर पाते हैं, एक बात तो पूछी ही जानी चाहिए : इस पूरे समय मीडिया क्या कर रहा था? मीडिया वहां होता है जहां मुश्किल सवाल पूछे जाते हैं और सरकारी एजेन्सियों की विश्वसनीयता साबित करने के लिए दबाव बनाया जाता है. मीडिया वहां होता है जहां जनसाधारण जवाबों को खोजते हैं, खासतौर पर जब मानवाधिकार के परोक्ष हनन के मामलों को यह कह कर न्यायसंगत ठहराया जाता है कि ऐसा सरकार द्वारा बड़े उद्देश्यों जैसे राष्ट्रीय सुरक्षा और बहुजन के लिए शान्ति स्थापित करने हेतु किया जाना होता है. मीडिया वहां होता है जहां इन दावों पर सवाल उठाए जाते हैं और जनता को सूचनाएं उपलब्ध कराई जाती हैं ताकि वह इन मसलों पर अपना पक्ष कायम कर सके.
हत्या के तुरन्त बाद, आन्ध्र प्रदेश यूनियन ऑफ़ वर्किंग जर्नलिस्ट्स (एपीयूडब्लूजे) ने पांडे की मृत्यु की परिस्थितियों को लेकर "गम्भीर सन्देह" व्यक्त किया और मामले की जांच एक "स्वतन्त्र संस्था" द्वारा कराए जाने की मांग की. एक वक्तव्य में एपीयूडब्लूजे ने कहा कि ऐसा न किए जाने की स्थिति में इन सन्देहों को हवा मिलेगी कि हेम की हत्या अपने कर्तव्यों को निभाने से रोकने हेतु की गई "डराने-धमकाने वाली कार्रवाई थी.
इस बात में कोई सन्देह नहीं है कि यदि मीडिया ने अपना सामूहिक ज़ोर लगाया होता हो राज्य और केन्द्र सरकारों के पास हेम की हत्या की स्वतन्त्र जांच के अलावा अधिक विकल्प न रहते. लेकिन कामगार पत्रकारों की यूनियनों द्वारा उठाई गई आवाज़ों से इतर एक सामूहिक संगठन के तौर पर मीडिया चुप रहा. अगर उसने कोई आवाज़ उठाई भी तो वह सिर्फ़ हेम के साथ अपना कोई भी सम्बन्ध होने से बचने के लिए थी.
(जारी)
(विचारधारा वाला पत्रकार - हेम चन्द्र पांडे से. पुस्तक प्राप्त करने हेतु इस पते पर मेल करें - bhupens@gmail.com अथवा भूपेन से इस नम्बर पर बात करें -.+91-9999169886 पुस्तक की कीमत है १५० रुपए)
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