आलोक धन्वा की तीन छोटी-छोटी कविताएं -
विस्मय तरबूज की तरह
तब वह ज़्यादा बड़ा दिखाई देने लगा
जब मैं उसके किनारों से वापस आया
वे स्त्रियाँ अब अधिक दिखाई देती हैं
जिन्होंने बचपन में मुझे चूमा
वे जानवर
जो सुदूर धूप में मेरे साथ खेलते थे
और उन्हें इन्तज़ार करना नहीं आता था
और वे पहले छाते
बादल जिनसे बहुत क़रीब थे
समुद्र मुझे ले चला उस दोपहर में
जब पुकारना भी नहीं आता था
जब रोना ही पुकारना था
जहाँ विस्मय
तरबूज़ की तरह
जितना हरा उतना ही लाल
समुद्र और चांद
जब समुद्र उठ रहा था चाँद की ओर
पश्चिम भारत के अंतिम किनारे पर
उस शाम मैंने उसे देखा
और चाँद
ट्राम के पहिए जितना बड़ा
और वह शहर कलकत्ता बहुत दूर
जहाँ ट्राम चलती है
समुद्र उठ रहा था चाँद की ओर
उस तरह सिर्फ़ घोड़े ही उठ सकते हैं
जैसे वे दिखते ही तब हैं
जब वे दौड़ते हैं
समुद्र उठ रहा था चाँद की ओर
मैं बिलकुल पास ही खड़ा था
एक ऐसा अकेलापन एक तनाव
रोने की भी इच्छा हुई
लेकिन रुलाई फूटी नहीं
और किस तरह रात आ रही थी
उतनी ऊँची लहरों में
कहीं दिख नहीं रही थी
मेरी पुरानी कमीज़ के सिवा
देर तक वहाँ टिकना मुश्किल था
बम्बई के भीतर लौटा
चेन्नई में कोयल
चेन्नई में कोयल बोल रही है
जबकि
मई का महीना आया हुआ है
समुद्र के किनारे बसे इस शहर में
कोयल बोल रही है अपनी बोली
क्या हिंदी
और क्या तमिल
उतने ही मीठे बोल
जैसे अवध की अमराई में !
कोयल उस ऋतु को बचा
रही है
जिसे हम कम जानते हैं उससे !
2 comments:
जहाँ कौवे हौंक रहे हों, कोयलें ही ऋतु बचा सकती हैं।
सुंदर कविताएं ।
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